मंगलवार, 31 मार्च 2015

'क्या सरकार शाकाहारी ब्राह्मण हो गई है?'

'क्या सरकार शाकाहारी ब्राह्मण हो गई है?'

  • 30 मार्च 2015
    गाय
महाराष्ट्र में गाय की हत्या और गो मांस की खरीद बिक्री पर लगाया गया प्रतिबंध राज्य की कृषि अर्थव्यवस्था को एक बड़े संकट में डालने जा रहा है.
अगर ऐसे ही कदम अन्य सभी राज्यों में भी उठाए जाने लगे तो इस तरह की नीति पूरे भारत की कृषि अर्थव्यवस्था के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है.
महाराष्ट्र हो या फिर कोई दूसरा राज्य, कई आदिवासी जनजातियां, दलित जातियां और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी गो मांस खाते हैं.

पढ़ें विस्तार से

गाय

भारत में सबसे पहले जिन लोगों ने गो मांस खाना शुरू किया था, वे न तो ईसाई थे और न ही मुसलमान. वे आम लोग थे जिनमें सभी जातियों के लोग शामिल थे.
मांस खाने के खिलाफ आदि शंकराचार्य की मुहिम शुरू होने तक जैन बनियों को छोड़कर द्विज भी गो मांस खाते थे.
इसी के बाद से ब्राह्मणों और अन्य बनियों ने गो मांस खाना छोड़ा.
हालांकि कई दलित जातियां, आदिवासी समुदाय और कई अन्य पिछड़ी जातियां अभी भी गो मांस खाती हैं. इसके अलावा वे भेड़ का मांस, चिकन और मछली आदि भी खाते हैं.

खान-पान की संस्कृति

भारत, खान-पान, संस्कृति

कश्मीरी पंडित आज भी मांसाहारी हैं. बंगाली ब्राह्मण मछली भी खाते हैं और मांस भी.
क्या बीजेपी इन सभी चीजों पर रोक लगाएगी जिनमें भेड़, बकरियां, मुर्गे-मुर्गियां और मछलियों का जीवन शामिल हैं?
मनुष्यों के खान-पान की संस्कृति के संबंध में वे हिंसा और अहिंसा के बीच की लकीर कहां खींचेंगे?
एक तरह से देखा जाए तो वे जो कुछ कर रहे हैं मानो सरकार ने एक शाकाहारी ब्राह्मण की जिम्मेदारी ले ली हो और वह अपने खान-पान की संस्कृति पूरे समाज पर थोप रही हो.

भैंस की स्थिति

भैंस

गाय को संरक्षण देने के उनके विचार ने कई मुश्किलें पैदा कर दी हैं. उन्होंने बैलों को मारे जाने पर भी रोक लगा दी है.
हालांकि भैंस या भैंसे को मारने को लेकर भी अस्पष्टता की स्थिति है.
निजी तौर पर मेरा मानना है कि वे भैंस या भैंसे को मारने की इजाजत देंगे जैसा कि गुजरात सरकार फिलहाल कर रही है.
सज़ा देने के सवाल पर बेशक महाराष्ट्र में लाया गया कानून कहीं कठोर और अजीबोगरीब है.
यहां तक कि जो गो मांस अपने घर में भी रखेंगे, वे भी इसके दायरे में आएंगे.

भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय किसान

जो बात संघ परिवार नहीं समझ पा रहा है, वो यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गाय और बैलों की भूमिका तेजी से कम हुई है.
गांव के किसान अब गाय को बछड़े के स्रोत के तौर पर नहीं देखते हैं.
वो बछड़ा जिससे बैल तैयार किए जाता है, अब भारतीय अर्थव्यवस्था में किसी काम का नहीं रहा.
भारत में दूध उत्पादन में भी गाय का योगदान कोई बहुत ज्यादा नहीं है. भारत में होने वाले दूध के उत्पादन का तकरीबन 75 फीसदी भैंसों से प्राप्त होता है.

जानवरों का श्रम

भारतीय किसान

गाय और बैलों को बचाने और बढ़ाने का एक मात्र तरीका ये है कि गाय से बछड़े हों और उन बछड़ों से बैल तैयार किए जाएं.
और उन बैलों का इस्तेमाल खाना, चमड़ा और हड्डियों से बनने वाले दूसरे उत्पाद तैयार करने के लिए किया जाए.
जानवरों को बड़े पैमाने पर बचाना उनके आर्थिक इस्तेमाल के बगैर संभव नहीं है.
किसान गाय और बैलों को इसलिए नहीं पालते कि वे उन्हें अपने घरों के आगे सजाने के लिए खड़ा कर दें. उनका एक आर्थिक मक़सद भी होता है.
खेती के मशीनीकरण के बाद जब एक बार इन जानवरों का श्रम काम का नहीं रह जाता है, तो फिर उनकी उपयोगिता केवल मांस और चमड़ा देने वाले जानवर के तौर पर रह जाती है.

राष्ट्रीय कानून

भारत, कानून

कुछ कल्याणकारी संस्थाएं भले ही गोशाला चला रही हैं लेकिन गाय और बैल वहां पैदा नहीं किए जा सकते हैं.
पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में गो मांस को एक प्रमुख भोजन के तौर पर देखा जाता है.
अगर महाराष्ट्र की तर्ज पर एक राष्ट्रीय कानून बना दिया जाए तो कई राज्यों को भारत में बने रहने में मुश्किल आ सकती है.
आखिरकार इस देश में खान-पान की संस्कृति अलग अलग राज्यों और क्षेत्रों में भिन्न है. यहां तक कि अलग अलग लोगों की खान-पान की आदतें अलग हैं.

शाकाहार

भारतीय खाना

कोई भी सरकार अगर लोगों की खान-पान की आदतों पर प्रतिबंध लगाती है तो उसे न केवल एक मजहबी सरकार के तौर पर देखा जाएगा बल्कि उसे फासीवादी भी करार दिया जाएगा.
हिंदुत्व की ताकतें खान-पान की संस्कृति को नहीं समझती हैं जो मानव सभ्यताओं से होकर पनपी हैं.
वे खान-पान की संस्कृति के धार्मिक पहलू को भी नहीं समझते हैं. अगर कोई ब्राह्मण या बनिया शाकाहारी है तो उसे ऐसा होने का पूरा अधिकार है.
और अगर उन्हें लगता है कि ईश्वर ने उन्हें ऐसा करने के लिए आदेश दिया है तो उन्हें इसके लिए भी पूरा हक है.

दलित आदिवासी

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लेकिन वे सभी धर्मों, राज्यों और पूरे देश के लोगों से ऐसा कैसे कह सकते हैं कि वे उनकी संस्कृति और उनके हिंदू ईश्वरों के आदेश का पालन करें जिन्होंने उन्हें शाकाहारी होने के लिए कहा है?
किसी ईश्वर या अल्लाह ने लोगों से केवल शाकाहारी हो जाने के लिए नहीं कहा है.
बौद्ध, क्रिश्चियन और मुसलमान मांस खाते हैं और शाकाहारी खाना भी. भारत के दलित बहुजन और आदिवासी भी इन्हीं की तरह खान-पान की आदतें रखते हैं.
सत्तारूढ़ बीजेपी इस तरह की नीतियों के रास्ते देश को खाद्य संकट और ऊर्जा की कमी की ओर धकेल रही है.
क्योंकि दूध और मांस के उत्पाद बच्चों को उनके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए दिए जाने चाहिए.
बीफ़ पर प्रतिबंध लगाकार बीजेपी भारतीयों के मानसिक और शारीरिक विकास पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश कर रही है.

जानें किसानों के मुआवजे की पूरी हकीकत

जानें किसानों के मुआवजे की पूरी हकीकत

पीयूष बबेले

जयपुर के बाहरी इलाके में ओलावृष्टि से तबाह गेहूं की फसल देखती महिलाएं
सर्दी थी कि वसंत को गुलजार ही न होने देती थी. खेतों में गेहूं, चना, मटर, आलू और ऐसी ही कई फसलें पकने को तैयार थीं. किसान आस लगाए बैठा था कि मौसम में गर्माहट आते ही उसकी मेहनत का फल उसे मिल जाएगा. लेकिन मार्च की शुरुआत में ऐसी घटाएं छाईं कि पूरे मध्य और पश्चिम भारत में पहले तो मूसलाधार बारिश हुई और उसके बाद गिरे ओलों ने जैसे सब कुछ खत्म कर दिया. केंद्र सरकार के शुरुआती आकलन के मुताबिक देश में गेहूं की 40 फीसदी फसल को नुक्सान हुआ है, जिसका न्यूनतम मूल्य 65,000 करोड़ रु. बैठता है. अगर इस साल की पूरी रबी फसल की बात करें तो 30 फीसदी फसल चौपट हो चुकी है. हर साल औसतन 12,000 किसान आत्महत्या की मूक गवाही देने वाले देश में किसान आत्महत्या का मीटर तेजी से बढ़ने के लिए इतनी तबाही काफी थी. उसके बाद से अकेले बुंदेलखंड में ही 18 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. स्थानीय अखबारों के पन्ने किसानों के धरने, प्रदर्शन और ज्ञापन की खबरों से पटे हैं. अब सबकीजुबान पर एक ही सवाल है-मुआवजा कितना और कब मिलेगा? और क्या फसल बीमा की तमाम योजनाएं वाकई किसान के काम आएंगी?
जब केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने घोषणा की, ''राज्य सरकारें अपने आपदा कोष से किसानों की मदद शुरू करें. आकलन सामने आने के बाद केंद्र राज्यों को पैसा दे देगा.'' तब इन्हीं सवालों का जवाब लेने के लिए इंडिया टुडे ने अलग-अलग राज्यों की पड़ताल की. सबसे पहले रुख किया उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल का. इलाके में धंसने से पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की घोषणा पर ध्यान दें, ''किसानों को केंद्र के स्वीकृत मुआवजे से दोगुना मुआवजा दिया जाए. इसके लिए 200 करोड़ रु. तुरंत स्वीकृत किए जाते हैं.'' लेकिन इससे किसानों को तुरंत राहत मिल जाएगी इसकी उम्मीद कम है. लगातार विरोध प्रदर्शन में जुटे भारतीय किसान यूनियन के बुंदेलखंड अध्यक्ष शिवरानायण सिंह परिहार कहते हैं, ''अभी तो किसानों को पिछले साल रबी सीजन में हुए नुक्सान के चैक ही आ रहे हैं.'' ऐसे में अब हफ्ते-दस दिन में राहत राशि मिलने की उम्मीद जताना सरकारी मशीनरी से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करने जैसा होगा. यही हाल मध्य प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में भी है.

दरअसल देश में मुआवजा बांटने की प्रक्रिया ही इतनी पुरानी और सुस्त है कि किसान कितना भी धरना-प्रदर्शन कर लें, मुआवजा मिलने में लगेंगे कई महीने. मिसाल के तौर पर झांसी जिले को लें. यहां कोई 600 राजस्व गांव हैं. जिले में 2.5 लाख किसानों पर करीब 200 लेखपाल तैनात हैं. यानी एक लेखपाल के पास औसतन 3 राजस्व गांव और डेढ़ से दो हजार खाते हैं. इस बार की जमीनी स्थिति यह है कि ओलावृष्टि के बाद जब गांव-गांव में किसानों का प्रदर्शन होने लगा तो ओलावृष्टि के 10 से 15 दिन बाद प्रदेश के बाकी जिलों की तरह यहां भी फसल के नुक्सान के सर्वे का काम शुरू हुआ. नियम के मुताबिक लेखपाल को एक-एक खेत में जाकर वहां हुए नुक्सान का सर्वे करना है. ऐसे में हफ्ते भर के अंदर अगर कोई लेखपाल हर खेत में हुए नुक्सान का द ब्रयोरा दर्ज कर देता है तो निश्चित तौर पर उसके पास हनुमान जी की तरह वायुमार्ग से उडऩे की क्षमता और गणेशजी जैसी लेखनी है. बहरहाल सारे पटवारी अपनी रिपोर्ट कई कार्यालयों से होते हुए डीएम के पास भेजते हैं, जहां से डीएम इसे लखनऊ भेज देता है. यहां से हर किसान के लिए मुआवजा तय होता है. इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी सैटेलाइट चित्रों या ड्रोन विमान से खेतों का मुआयना करने का जिक्र नहीं है. बहरहाल, झांसी के डीएम अनुराग यादव ने दावा किया, ''मुख्यमंत्री के आदेश के तहत किसानों को जल्दी से जल्दी मुआवजा बांटने का काम किया जा रहा है.''
किसानों के मुआवजे की हकीकत
वैसे यह मुआवजा भी नाम का ही होता है. पूरे देश में आपदा से खेती को होने वाले नुक्सान के लिए मुआवजा राष्ट्रीय आपदा राहत कोष के तय नियमों के तहत बंटता है. इसमें बाढ़ और ओलावृष्टि से फसल को नुक्सान होने पर मुआवजे का प्रावधान है, लेकिन भारी बारिश या आग लगने पर मुआवजे की व्यवस्था नहीं है. अगर फसल को 50 फीसदी से कम नुक्सान होता है तो किसान को कोई मुआवजा नहीं मिलेगा. वर्तमान व्यवस्था में असिंचित जमीन के लिए प्रति हेक्टेयर 4,500 रु., सिंचित जमीन के लिए 9,000 रु. और बहुफसली जमीन के लिए 12,000 रु. मुआवजा देने का प्रावधान है. भले ही चने की कीमत गेहूं से ज्यादा हो और दालों की कीमत इससे भी कहीं अधिक हो. दैवीय आपदा से किसान की मौत पर केंद्र की ओर से 1.5 लाख रु. और यूपी सरकार की ओर से 3.5 लाख रु. का प्रावधान किया है.

मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य अभी फसल को हुए नुक्सान का आकलन कर रहे हैं. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ग्रामीण इलाकों में फसल को हुए नुक्सान का जायजा लेने के बाद कहा, ''मेरे रहते किसानों के आंसू निकलें तो मेरे सीएम रहने का क्या फायदा?'' उन्होंने 50 फीसदी से ज्यादा के मुआवजे को 100 फीसदी मानने की घोषणा की है. राज्य में मुआवजा राशि बढ़ाकर 15,000 रु. प्रति हेक्टेयर कर दी गई है. साथ ही उन्होंने पीड़ित किसानों की बेटी की शादी में 25,000 रु. की सरकारी मदद देने की घोषणा की है. यानी सरकार खैरात तो दे सकती है, लेकिन किसान की बुनियादी समस्याएं नहीं निबटा सकती. वहीं, महाराष्ट्र में पहले ही केंद्र सरकार किसानों के लिए 2,000 करोड़ रु. का पैकेज घोषित कर चुकी है. अगर गेहूं को ही मानक मानें तो किसान 46,500 रु. प्रति हेक्टेयर फसल उगाने वाली जमीन पर 9,000 रु. हेक्टेयर मुआवजा पाने के लिए पूरी ताकत, यहां तक कि जान दांव पर लगा रहा है.

इसके अलावा किसान के पास दूसरी आस है फसल बीमा की. देश में इस समय मुख्य रूप से तीन तरह की फसल बीमा योजनाएं लागू हैं. राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (एनएआइएस), उच्चीकृत एनएआइएस और मौसम आधारित फसल बीमा योजना (डब्ल्यूबीसीआइएस). ये सारी योजनाएं मिलकर भी किसी राज्य में अब तक सभी किसानों को अपने दायरे में नहीं ला सकी हैं. देश के 50 जिलों में लागू उच्चीकृत एनएआइएस में फसल को हुए नुक्सान के आकलन के लिए बीमा कंपनी सैटेलाइट इमेज का इस्तेमाल कर सकती है. इसमें बीमा क्लेम की मोटे तौर पर तीन सूरत हैं. पहली—अगर बरसात न होने के कारण फसल बोई ही ना जा सके तो राज्य सरकार बीमा कंपनी को फसल को होने वाले अनुमानित नुक्सान का द्ब्रयोरा भेजेगी. इसके बाद बीमा कंपनी किसान को तुरंत बीमा क्लेम की 25 फीसदी तक रकम देगी. इस मामले में किसानों को अपनी तरफ से कार्रवाई नहीं करनी है. दूसरी स्थिति वह है जब खड़ी फसल के दौरान प्राकृतिक आपदा आए. ऐसे में अगर 50 फीसदी से ज्यादा फसल नष्टï होने का आकलन राज्य सरकार पेश करती है तभी बीमा कंपनी 25 फीसदी तक क्लेम की रकम देगी. तीसरी स्थिति यह है कि अगर फसल कटने के बाद नष्ट होती है तो किसान को 48 घंटे के भीतर संबंधित बीमा कंपनी या बैंक को फसल के नुक्सान की जानकारी देनी है. इसके बाद बीमा कंपनी क्लेम का भुगतान करेगी. 

लेकिन जमीन पर बहुत घालमेल है, तभी तो ओला वृष्टि के 25 दिन बाद भी किसी किसान को बीमा की फूटी कौड़ी नहीं मिली है. झांसी जिले के एक लेखपाल बताते हैं, ''अगर कोई किसान बैंक का डिफाल्टर है तो उसे बीमा का लाभ नहीं मिलेगा.'' वहीं बिहार के एक द्ब्रलॉक में तैनात बीडीओ फसल बीमा में फैले भ्रष्टाचार की तरफ इशारा करते हैं, ''यहां बीमा का काम प्राथमिक कृषि समिति (पीएसी) के माध्यम से होता है. तजुर्बा यह है कि तीन गांव के प्रधान जितना कमाते हैं, एक पीएसी का प्रमुख अकेले कमा लेता है.'' मोतीहारी में ऐसे कई मामले सामने आए जहां पीएसी ने बड़े पैमाने पर किसानों के बीमे की रकम खुर्द-बुर्द कर दी. नवादा के गुरम्हा के किसान रामनरेश सिंह कहते हैं, ''एक एकड़ रबी या खरीफ की फसल का बीमा 20,000 रु. का होता है. किसान को साढ़े चार फीसदी प्रीमियम देना होता है. पर जब क्लेम मिलना होता है तो बीमा कंपनी अपने हिसाब से देती है. बीमा का गणित समझ से बाहर है.''
यानी फसल चौपट होने के बाद राहत घोषणाओं के दशकों से चले आ रहे ढर्रे को बदलने की जरूरत है. मुआवजा तय करने की प्रक्रिया का आधुनिकीकरण और बीमा व्यवस्था को वाकई में किसान हितैषी बनाने की दिशाओं में नीति नियंताओं को सोचना होगा. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शहीदी दिवस पर किसानों के लिए पेंशन योजना की घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस दिशा में भी सोचना होगा कि नौजवान किसानों की शहादत को कैसे रोका जाए. क्योंकि किसानों पर कुदरत का ये कहर न तो पहला है और न आखिरी. अप्रैल में फिर ओलावृष्टि का पूर्वानुमान है.

( —साथ में रोहित परिहार, संतोष पाठक, अशोक कुमार प्रियदर्शी, समीर गर्ग और शुरैह नियाजी)


और भी... http://aajtak.intoday.in/story/is-compensation-is-enough-for-farmers-1-805512.html

केन्द्रीय बजट 2015-2016: जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की जि‍‍म्मेदारी से पल्ला झाड़कर थैलीशाहों की थैलियाँ भरने का पूरा इंतज़ाम

केन्द्रीय बजट 2015-2016: जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की जि‍‍म्मेदारी से पल्ला झाड़कर थैलीशाहों की थैलियाँ भरने का पूरा इंतज़ाम

सम्‍पादक मण्‍डल
Jaitleyनरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने पिछले साल सत्ता में आने के फौरन बाद एक अन्तरिम बजट प्रस्तुत किया था जिसमें हालाँकि उसने इस बात के स्पष्ट संकेत दे दिये थे कि ‘‘अच्छे दिनों’’ से उसका तात्पर्य दरअसल पूँजीपतियों और सेठ-व्यापारियों के अच्छे दिनों से था, लेकिन फिर भी पूँजीपति वर्ग और उसकी चाकरी करने वाले अर्थशास्त्री, पत्रकार और बुद्धिजीवी उस अन्तरिम बजट में सरकार द्वारा थैलीशाहों की थैलियाँ भरने के लिए की गई घोषणाओं से संतुष्ट नहीं थे। नयी सरकार के पहले नौ महीनों के दौरान पूँजीपति वर्ग और उसके लग्गू-भग्गू लगातार इस बात का दबाव बनाते रहे कि देश में निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाने के लिए सरकार कॉरपोरेट धनपशुओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों और श्रमशक्ति की लूट का खुला चारागाह मुहैया करा दे और उनके मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए उनपर लगने वाले करों में कटौती करे तथा उसकी भरपाई आम जनता पर करों को बोझ लादकर करे। पिछली 28 फरवरी को वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत केन्द्रीय बजट में सरकार ने जहाँ एक ओर आम जनता पर करों का बोझ बढ़ाया और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतों में भी कटौती की वहीं दूसरी ओर पूँजीपतियों और सेठ-व्यापारियों को थोक भाव में अच्छे दिनों की सौगात दी। इस सौगात को पाकर इन लुटेरों और उनके चाकरों की खुशी का ठिकाना नहीं था और वे टीवी और अखबारों में मोदी सरकार की तारीफ़ के पुल बाँधते नहीं अघा रहे थे और कइयों ने तो इस बजट को 1997 के ‘ड्रीम बजट’ से किया जिसमें तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम ने कॉरपोरेट धनपशुओं को तोहफ़े की बौछार की थी।
हर बजट की तरह मीडिया में इस बजट की चर्चाओं में पूँजीपतियों के टुकड़खोर बुद्धिजीवी बढ़ते राजकोषीय घाटे (फिस्कल डेफिसिट) पर छाती पीटते नज़र आये। बढ़ते हुए राजकोषीय घाटे पर छाती पीटने के पीछे इन लग्गू-भग्गुओं का मक़सद यह होता है कि राज्य जनता को खाद्य, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी से भी हाथ खींच ले। ये लग्गू-भग्गू कभी भी हर साल बजट में पूँजीपतियों को दी जाने वाली लाखों करोड़ रुपये की सब्सिडी को कम करने को लेकर चूँ तक नहीं करते, बल्कि उल्टा उसको और बढ़ाने के लिए ऊटपटांग दलीलें ईजाद करते हैं। ऐसी ही दलीलों को सिर-आँखों पर रखते हुए अरुण जेटली ने इस बार बजट में कॉरपोरेट घरानों की मुँह मांगी मुराद पूरी कर दी जब उन्होंने कॉरपोरेट करों की दर 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करने के सरकार के फैसले का ऐलान किया। यही नहीं सरकार ने सम्पत्तिवानों पर लगने वाले सम्पदा कर (वेल्थ टैक्स) को तो पूरी तरह ख़त्म करने की घोषणा करके सम्पत्तिशाली तबके के लिए सोने पर सुहागा का काम किया।
achhe-dinधनपशुओं पर लगने वाले करों में कटौती करने का नतीजा यह होगा कि अगले वित्तीय वर्ष में सरकार को प्रत्यक्ष करों के रूप में होने वाली आय में लगभग 8,315 करोड़ रुपये की कमी आयेगी। इसकी भरपाई करने के लिए सरकार ने इस बजट में अप्रत्यक्ष करों में 23,383 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी करने की घोषणा भी की। ग़ौरतलब है कि अप्रत्यक्ष करों से सबसे ज़्यादा नुकसान आम मेहनतकश जनता को होता है। इसका कारण यह है कि यह प्रत्यक्ष करों की भाँति किसी व्यक्ति की कर देने की क्षमता के आधार पर होने की बजाय अप्रत्यक्ष कर हर किसी पर एकसमान रूप से लगता है क्योंकि बाज़ार में बिकने वाली कोई चीज़ हर किसी को एक ही दाम पर मिलती है, यानी एक अरबपति सेठ और दिहाड़ी मज़दूर पर लगने वाला अप्रत्यक्ष कर एक ही होता है। यही नहीं, सरकार ने सेवा कर को भी 12.6 प्रतिशत से बढ़ाकर 14 प्रतिशत करने का ऐलान किया जिसका बोझ आम आदमी को ही उठाना पड़ेगा। पेट्रोल और डीज़ल के आयात शुल्क में भी बढ़ोत्तरी की गई जो उपभोक्ताओं के ही मत्थे मढ़ा जायेगा। इस फैसले के बाद पेट्रोल और डीज़ल के दाम तुरन्त बढ़ गए। ग़ौरतलब है कि अन्तरराष्ट्रीय तेल बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट के बावजूद पेट्रोल और डीज़ल के दाम उतने नहीं गिरे जितने गिरने चाहिए थे। पेट्रोल और डीज़ल पर आयात शुल्क के बढ़ने के बाद तो आम जनता को अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों के गिरने से जो थोड़ी-बहुत राहत मिलती दिख रही थी वह भी वापस ले ली गई। अपने कॉरपोरेट स्वामियों को खुश करने में दिलोजान से जुटी मोदी सरकार ने इस बजट में मध्यवर्ग, जिसने पिछले लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में भाजपा को वोट दिया था, को भी करों में कोई रियायत नहीं दी। किसानों के हितों की हिफ़ाजत करने का दावा करने वाली मोदी सरकार का यह बजट कृषि क्षेत्र के संकट के बारे में भी पूरी तरह से उदासीन रहा। किसानों को सहूलियत देने की बजाय उनको मिलने वाले कृषि ऋण में कटौती की गई। ज़ाहिर है कि नवउदारवाद की जिस गाड़ी को सरकार ने इस बजट के ज़रिये सरपट दौड़ाया है वह छोटे-मझौले किसानों और खेतिहर मज़दूरों को रौंदकर ही आगे बढ़ने वाली है।
कॉरपोरेट घरानों पर करों में छूट की भरपाई करने के लिए आम जनता पर करों का बोझ लादने के अलावा भी सरकार ने कई ऐसे कड़े क़दम उठाये जिनकी गाज आम मेहनतकश आबादी पर गिरेगी। इस बजट में सरकार ने कुल योजना ख़र्च में 20 प्रतिशत यानी 1.14 करोड़ रुपये की कटौती की जो खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, परिवार कल्याण, आवास, स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से भी हाथ खींचने में मोदी सरकार की नवउदारवादी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। सर्व शिक्षा अभियान, मिड-डे मील स्कीम, नेशनल हेल्थ मिशन जैसी स्कीमों के ज़रिये शासक वर्गों की जो थोड़ी-बहुत जूठन जनता तक पहुँचती है उसमें भी इस बजट में भारी कटौती की घोषणा की गई है। सर्वशिक्षा अभियान बजट में छह हज़ार करोड़ रुपये, मिड-डे मील में चार हज़़ार करोड़ रुपये, समेकित बाल-विकास कार्यक्रम में आठ हज़ार करोड़ रुपये और जेंडर बजट में बीस हज़ार करोड़ रुपये की भारी कटौती की गई है। इस बजट में जहाँ सरकार ने पूँजीपतियों को मिलने वाली सब्सिडी में भारी बढ़ोत्तरी की वहीं जनता को मिलने वाली कुल सब्सिडी को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 2.1 प्रतिशत से घटाकर 1.7 प्रतिशत कर दिया। स्वास्थ्य व परिवार कल्याण के मद में सरकारी ख़र्च को 35,163 करोड़ रुपये से घटाकर 29,653 करोड़ रुपये कर दिया। इसी तरह आवास व ग़रीबी उन्मूलन की स्कीमों में सरकारी ख़र्च को 6,008 करोड़ रुपये से घटाकर 5,634 करोड़ रुपये कर दिया गया। जहाँ जनता की बुनियादी ज़रूरतों में भारी कटौती की गई है, वहीं रक्षा क्षेत्र के बजट में हर साल की तरह इस बार भी बढोत्तरी की गई। अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाने व जनकल्याणकारी स्कीमों में भारी कटौती करने के अतिरिक्त सरकार ने आगामी वित्तीय वर्ष 2015-16 में सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश के ज़रिये 70,000 करोड़ रुपये इकट्ठा करने का लक्ष्य रखा है। इन सभी फैसलों से यह ज़ाहिर है कि कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य के बचे-खुचे चिथड़े को भी हवा में फेंककर सरकार ने नवउदारवाद को पूरी तरह गले लगाने की ठान ली है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इसका सीधा असर मज़दूर वर्ग की ज़ि‍न्दगी में बदहाली के रूप में सामने आयेगा।
देश में पूँजीवाद की गाड़ी को बुलेट ट्रेन की रफ्तार से दौड़ाने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर के मद में इस बजट में सरकार ने 70,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त निवेश करने का फैसला किया है। साथ ही सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के मॉडल की समीक्षा करने का फैसला किया है। सभी जानते हैं कि यह मॉडल मुनाफ़े को निजी हाथों में सौंपने और नुकसान को जनता के मत्थे मढ़ने के लिए ईज़ाद किया गया था। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में कहा कि चूँकि यह मॉडल ठीक से काम नहीं कर रहा है इसलिए सरकार को अब जोखिम का और बड़ा हिस्सा वहन करना होगा। यानी इस समीक्षा का मक़सद यह नहीं है कि किस प्रकार किसी प्रोजेक्ट में आने वाले जोखि़म को सिर्फ़ सरकार द्वारा नहीं बल्कि निजी हाथों को भी वहन करना हो बल्कि इसके ठीक उलट है यानी इस बात की नई तिकड़में तलाशने का है किस तरीके से पूरे का पूरा जोखि़म सरकार वहन करे । अरुण जेटली ने बिज़नेस करना आसान करने के मक़सद से दीवालियापन से जुड़े कानून में सुधार करने और विनियमन को ढीला करने की बात भी अपने बजट भाषण में कही। इन घोषणाओं से यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो जाता है कि सरकार ने लुटेरे पूँजीपतियों को इस बजट के माध्यम से यह संदेश दिया है कि आने वाले दिनों में उसका इरादा अपने इन लुटेरे स्वामियों को लूट की खुली छूट देने का है।
इस बजट के माध्यम से सरकार ने न सिर्फ़ देशी पूँजीपतियों को लूट की खुली छूट देने का संकेत दिया है बल्कि उसने विदेशी साम्राज्यवादी लुटेरे को भी स्पष्ट संकेत दिया है कि ’’अच्छे दिनों’’ में उनके भी वारे-न्यारे होने वाले हैं। बजट में सरकार ने विदेशी निवेशकों को रिझाने के लिए विदेशी निवेश में मामलों में टैक्स की चोरी रोकने से संबन्धित कानून जनरल एंटी अवाएडेंस रूल्स (गार) को 2017 तक मुल्तवी करने की घोषणा की। ग़ौरतलब है कि विदेशी निवेश के नाम पर देशी और विदेशी पूँजीपति अपना काला धन मॉरीशस जैसे देशों (जिनको टैक्स हैवेन कहा जाता है क्योंकि वहाँ करों की दर शून्य या न के बराबर है) के ज़रिये भारत में शेयर मार्केट में विदेशी संस्थागत निवेश (एफआईआई) के रूप में और विभिन्न कम्पनियों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के रूप में लाते हैं।  इस प्रक्रिया में वे काले धन को सफ़ेद धन में रूपांतरित तो करते ही हैं साथ ही मॉरीशस जैसे देशों के ज़रिये भारत में निवेश करने का एक और फ़ायदा यह होता है कि ऐसे निवेश से उन्हें कर भी नहीं देना पड़ता। पिछले कुछ समय से गार की कवायद इसी प्रकार के करों की चोरी को रोकने के लिए की जा रही है। लेकिन हर साल इसे कुछ और वर्षों के लिए टाल दिया जाता है। इस बजट में सरकार ने विदेशी निवेशकों को खुश करने के मक़सद से एफआईआई और एफडीआई के बीच के फ़र्क को भी समाप्त करने की घोषणा की। ग़ौरतलब है कि तुलनात्मक रूप से एफआईआई के माध्यम से आने वाली पूँजी कम भरोसेमन्द और अस्थिर मानी जाती है क्योंकि शेयर बाज़ार में लगी होने की बजह से विदेशी निवेशक इसे कभी भी वापस खींच सकते हैं। बजट में एफआईआई को कई और रियायतें देने की घोषणा की गई। अपने बजट भाषण में अरुण जेटली ने विदेशी निवेशकों को पूरा भरोसा दिलाते हुए कहा कि अदालतों में लंबित करों से जुड़े मामलों का जल्द से जल्द निपटारा किया जायेगा। स्पष्ट है कि विदेशी लुटेरों को भी लूट का खुला आमंत्रण दिया जा रहा है।
सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम के निर्देश में तैयार किये गये आर्थिक सर्वेक्षण, जिसे बजट के ठीक पहले जारी किया गया, में कहा गया था कि अब बिग बैंग (एक झटके में) सुधार की ज़मीन तैयार हो गई है। बजट की घोषणाओं के माध्यम से सरकार ने यह जताने की कोशिश की है कि वह तथाकथित आर्थिक सुधारों (जो वास्तव में मज़दूरों के लिए आर्थिक तानाशाही का दूसरा नाम है) को तेज़ी से लागू करने को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध है। मज़दूर वर्ग को आने वाले ख़तरनाक दिनों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2015

सोमवार, 30 मार्च 2015

10 राज्यों में क़ानूनन होती है गौ-हत्या

10 राज्यों में क़ानूनन होती है गौ-हत्या


गाय
भारत के 29 में से 10 राज्य ऐसे हैं जहां गाय, बछड़ा, बैल, सांड और भैंस को काटने और उनका गोश्त खाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है. बाक़ि 18 राज्यों में गौ-हत्या पर पूरी या आंशिक रोक है.
भारत की 80 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी हिंदू है जिनमें ज़्यादातर लोग गाय को पूजते हैं. लेकिन ये भी सच है कि दुनियाभर में ‘बीफ़’ का सबसे ज़्यादा निर्यातकरनेवाले देशों में से एक भारत है.
दरअसल ‘बीफ़’, बकरे, मुर्ग़े और मछली के गोश्त से सस्ता होता है. इसी वजह से ये ग़रीब तबक़ों में रोज़ के भोजन का हिस्सा है, ख़ास तौर पर कई मुस्लिम, ईसाई, दलित और आदिवासी जनजातियों के बीच.
इसी महीने हरियाणा और महाराष्ट्र के गौ-हत्या विरोधी क़ानून कड़े करने पर ‘बीफ़’ पर बहस फिर गरमा गई. यहां तक की भारत में ‘बैन’ की संस्कृति पर कई पैरोडी गाने भी बनाए गए.
इसीलिए बीबीसी हिन्दी ‘बीफ़’ की ख़रीद-फ़रोख़्त के अर्थव्यवस्था पर असर, उसके स्वास्थ्य से जुड़े फ़ायदे, गौ-हत्या पर रोक की मांग करनेवालों की राय, रोक पर राजनीति और उसके इतिहास पर विशेष रिपोर्ट्स लेकर आ रहा है.
गौ-हत्या पर कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है पर अलग राज्यों में अलग-अलग स्तर की रोक दशकों से लागू है. तो सबसे पहले ये जान लें कि देश के किन हिस्सों में ‘बीफ़’ परोसा जा सकता है.

पूरा प्रतिबंध

गौ-हत्या पर पूरे प्रतिबंध के मायने हैं कि गाय, बछड़ा, बैल और सांड की हत्या पर रोक.
ये रोक 11 राज्यों – भारत प्रशासित कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महराष्ट्र, छत्तीसगढ़, और दो केन्द्र प्रशासित राज्यों - दिल्ली, चंडीगढ़ में लागू है.
गौ-हत्या क़ानून के उल्लंघन पर सबसे कड़ी सज़ा भी इन्हीं राज्यों में तय की गई है. हरियाणा में सबसे ज़्यादा एक लाख रुपए का जुर्माना और 10 साल की जेल की सज़ा का प्रावधान है.
वहीं महाराष्ट्र में गौ-हत्या पर 10,000 रुपए का जुर्माना और पांच साल की जेल की सज़ा है.
हालांकि छत्तीसगढ़ के अलावा इन सभी राज्यों में भैंस के काटे जाने पर कोई रोक नहीं है.
हिन्दू धर्म में गाय को पूजनीय माना जाता है.

आंशिक प्रतिबंध

गौ-हत्या पर पूरे प्रतिबंध के मायने हैं कि गाय और बछड़े की हत्या पर पूरा प्रतिबंध लेकिन बैल, सांड और भैंस को काटने और खाने की इजाज़त है.
इसके लिए ज़रूरी है कि पशू को ‘फ़िट फ़ॉर स्लॉटर सर्टिफ़िकेट’ मिला हो. सर्टिफ़िकेट पशु की उम्र, काम करने की क्षमता और बच्चे पैदा करने की क्षमता देखकर दिया जाता है.
इन सभी राज्यों में सज़ा और जुर्माने पर रुख़ भी कुछ नरम है. जेल की सज़ा छह महीने से दो साल के बीच है जबकि जुर्माने की अधितकम रक़म सिर्फ़ 1,000 रुपए है.
आंशिक प्रतिबंध आठ राज्यों – बिहार, झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा और चार केंद्र शासित राज्यों – दमन और दीव, दादर और नागर हवेली, पांडिचेरी, अंडमान ओर निकोबार द्वीप समूह में लागू है.
महाराष्ट्र में गौ-हत्या का क़ानून कड़ा किए जाने पर अभिनेता ऋषि कपूर की ट्विटर पर प्रतिक्रिया.

कोई प्रतिबंध नहीं

दस राज्यों - केरल, पश्चिम बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम और एक केंद्र शासित राज्य लक्षद्वीप में गौ-हत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है.
यहां गाय, बछड़ा, बैल, सांड और भैंस का मांस खुले तौर पर बाज़ार में बिकता है और खाया जाता है.
आठ राज्यों और लक्षद्वीप में तो गौ-हत्या पर किसी तरह को कोई क़ानून ही नहीं है. असम और पश्चिम बंगाल में जो क़ानून है उसके तहत उन्हीं पशुओं को काटा जा सकता है जिन्हें ‘फ़िट फॉर स्लॉटर सर्टिफ़िकेट’ मिला हो.
ये उन्हीं पशुओं को दिया जा सकता है जिनकी उम्र 14 साल से ज़्यादा हो, या जो प्रजनन या काम करने के क़ाबिल ना रहे हों.
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक़ इनमें से कई राज्यों में आदिवासी जनजातियों की तादाद 80 प्रतिशत से भी ज़्यादा है. इनमें से कई प्रदेशों में ईसाई धर्म मानने वालों की संख्या भी अधिक है.

रविवार, 29 मार्च 2015

फिर से सुलग रहा है भट्टा पारसौल

देशभर में मशहूर हो चुका भट्टा परसौल गांव इस बार भी सुलग रहा है. कुछ संशोधनों के बाद लोकसभा में भूमि अधिग्रहण बिल पास भी हो गया, लेकिन केंद्र की किसान विरोधी नीति के खिलाफ उत्तर प्रदेश के भट्टा परसौल गांव में किसान नेता व भारतीय प्रजा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनवीर तेवतिया का किसान-मजदूर सत्याग्रह 15 फरवरी से जारी है. तेवतिया 20 फरवरी से लगातार आमरण अनशन पर हैं, लेकिन अभी तक सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की गई है. तेवतिया ने ऐलान किया है कि अगर केंद्र ने किसानों की मांगों पर ध्यान नहीं दिया तो भारी तादाद में किसान दिल्ली कूच करेंगे. तेवतिया कहते हैं कि देश का किसान विकास का विरोधी नहीं है, लेकिन भ्रष्ट नेता नहीं चाहते कि कोई सुगम रास्ता निकले, क्योंकि इससे उनकी और नौकरशाहों की कमीशनखोरी बंद हो जाएगी. समय रहते इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया तो आनेवाले दिनों में इस क्षेत्र में तनाव ब़ढने से कोई नहीं रोक सकता. 
page-17केद्र सरकार की किसान विरोधी नीति के खिलाफ 15 फरवरी से जारी किसानों का आंदोलन व्यापक शक्ल लेने की तरफ बढ़ रहा है. इसमें उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों के किसान भी शरीक होने लगे हैं. हरियाणा के किसान भी साथ आने लगे हैं. तेवतिया ने ऐलान किया है कि भट्टा परसौल में किसानों का सत्याग्रह और उनका आमरण अनशन 62 दिन चलेगा और अगर केंद्र ने किसानों की मांगों पर ध्यान नहीं दिया तो भारी तादाद में किसान दिल्ली कूच करेंगे. भट्टा परसौल से शुरू हुए किसानों के इस आंदोलन में मथुरा, आगरा, बागपत, अलीगढ़, आजमगढ़, इलाहाबाद, लखनऊ के अलावा बड़ौत, पलवल और मेवात के किसान भी एकजुट हो रहे हैं. बिहार के कुछ इलाकों से भी किसानों के जुटने की खबर है.
कुछ संशोधनों के बाद लोकसभा में भूमि अधिग्रहण बिल पास भी हो गया, लेकिन केंद्र की किसान विरोधी नीति के खिलाफ उत्तर प्रदेश के भट्टा परसौल गांव में किसान नेता व भारतीय प्रजा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनवीर तेवतिया का किसान-मजदूर सत्याग्रह 15 फरवरी से जारी है. तेवतिया 20 फरवरी से लगातार आमरण अनशन पर हैं, लेकिन अभी तक सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की गई है. इस आंदोलन के समर्थन में अलीगढ़ में टप्पल और जिकरपुर में भी आंदोलन चल रहा है, जिसका नेतृत्व भारतीय प्रजा पार्टी के उत्तर प्रदेश महासचिव स्वामी राजपाल सिंह और संचालन शौबीर सिंह विद्यार्थी व शीशराम कर रहे हैं. आंदोलनकारी किसान भूमि अधिग्रहण नीति में संशोधन तो चाहते ही हैं, साथ ही उनकी यह भी मांग है कि किसानों की आधी जमीन ही अधिग्रहीत की जाए और शेष जमीन विकसित कर उन्हें वापस कर दी जाए. किसान मांग कर रहे हैं कि 25 प्रतिशत जमीन को नि:शुल्क मिक्स लैंडयूज बनाने की अनुमति दी जाए. इसके अलावा जिस रेट में सरकार जमीन बेचती है उसके औसत मूल्य का 60 प्रतिशत मुआवजे के रूप में किसानों को दिया जाए. तेवतिया का मानना है कि इस नीति से किसानों को फायदा होगा. दूसरी तरफ किसान भूमि अधिग्रहण का खुद ही विरोध नहीं करेंगे और उनकी सहमति की जरूरत समाप्त हो जाएगी. प्राधिकरण में रिश्‍वतखोरी बंद हो जाएगी. इससे स्मार्ट सिटी के साथ-साथ आदर्श गांव भी तैयार हो सकेगा. जो लोग गांवों में व्यवसाय कर रहे हैं, उनका धंधा तेजी से चल पड़ेगा, क्योंकि परियोजना में उन्हें कई प्रकार के काम मिल जाएंगे. लोगों को अच्छा दूध और ताज़ा सब्जी-फल प्राप्त होंगे और किसानों को अच्छा रेट मिल जाएगा.
मनवीर तेवतिया के नेतृत्व में शुरू हुए किसान आंदोलन का सबसे रोचक पहलू यह है कि इस बार कांग्रेस पार्टी ने भट्टा परसौल से किसानों का आंदोलन शुरू करने की घोषणा की थी. केंद्र में आई भाजपा सरकार के नए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ कांग्रेस उसी गांव से आंदोलन शुरू करने का मन बना चुकी थी, जिस गांव ने राहुल गांधी को काफी सुर्खियां दी थीं. तमाम प्रतिबंधों को पार करते हुए पिछली बार जब राहुल गांधी भट्टा परसौल गांव पहुंचे थे तो उसने देशभर के लोगों का ध्यान खींचा था, लेकिन कांग्रेस फिर बैकफुट पर चली गई. भू-अधिग्रहण विवाद को लेकर ही भट्टा परसौल पांच साल पहले चर्चा में आया था. मोदी सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून में किए गए बदलाव के विरोध में कांग्रेस ने केंद्र के खिलाफ इसी गांव से लड़ाई शुरू करने की जनवरी में घोषणा भी कर दी थी. पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश, आदित्य जैन, सांसद दीपेंद्र हुड्डा, दिग्विजय सिंह समेत कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं द्वारा आंदोलन शुरू करने और फिर दिल्ली से पदयात्रा कर राहुल गांधी के इस आंदोलन में कूद पड़ने की रूपरेखा भी तैयार हो गई थी, लेकिन इसमें कोई सियासी लोचा हो गया और राहुल भी अज्ञातवास पर चले गए. कांग्रेस ने इस मुद्दे पर राहुल गांधी की पदयात्रा के पहले हर ब्लॉक में नुक्क़ड सभाएं करने और माहौल बनाने की रणनीति भी तैयार कर ली थी. कांग्रेस ने भूमि अध्यादेश के मुद्दे पर व्यापक विरोध की तैयारी के लिए तीन सदस्यीय समूह का गठन भी कर दिया था, जिसमें जयराम रमेश के अलावा आनंद शर्मा और केवी थॉमस भी शामिल थे, लेकिन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ भट्टा परसौल गांव से हल्ला बोल अभियान शुरू करने की कांग्रेसी तैयारी का बिना पट पर आए ही पटाक्षेप हो गया.
उल्लेखनीय है कि जमीन अधिग्रहण के ही खिलाफ 2010 में भट्टा परसौल गांव से बड़ा आंदोलन शुरू हुआ था. पुलिस और किसानों के बीच जमकर खूनी संघर्ष हुआ था. इसमें दो किसान और पुलिस के जवानों की मौत हो गई थी. इसके बाद कांग्रेस ने इस मुद्दे को लपक लिया था. तब पार्टी महासचिव राहुल गांधी अचानक गांव पहुंच गए थे. उन्होंने अंग्रेजों के जमाने के अधिग्रहण कानून में बदलाव की आवाज उठाते हुए भट्टा परसौल से अलीगढ़ तक पैदल यात्रा की थी. मोदी ने केंद्र की सत्ता में आते ही प्रावधान किया कि जमीन अधिग्रहण के लिए किसानों की सहमति जरूरी नहीं, जबकि कांग्रेस की सरकार ने भूमि अधिग्रहण के लिए 70 फीसद किसानों की सहमति लेने का प्रावधान किया था.
आमरण अनशन के कारण किसान नेता की हालत खराब होती जा रही है. ग्रेटर नोएडा के एसडीएम सदर बच्चू सिंह के अलावा अनशन स्थल पर कोई अधिकारी नहीं आया. बच्चू सिंह भी एक दिन फ्लाइंग स्न्वैड की तरह आए और चले गए. सरकारी इंतजाम बस इतना हुआ कि एक सरकारी डॉक्टर तेवतिया की रोजाना मेडिकल जांच कर चला जाता है. तेवतिया अब खड़े नहीं हो पा रहे हैं. उनके स्वास्थ्य में गिरावट आ रही है. ब्लड प्रेशर तेजी से घट रहा है, वजन कम हो रहा है और शुगर लेवल में गिरावट आ रही है. तेवतिया कहते हैं कि देश का किसान विकास का विरोधी नहीं है, लेकिन भ्रष्ट नेता नहीं चाहते कि कोई सुगम रास्ता निकले, क्योंकि इससे उनकी और नौकरशाहों की कमीशनखोरी बंद हो जाएगी. हमारे द्वारा दिया गया प्रस्ताव निश्‍चित ही विकास की गति को रफ़्तार देगा. तेवतिया ने कहा कि जल्दी ही यह आंदोलन देश के अन्य हिस्सों से भी शुरू हो जाएगा. मोदी सरकार की भूमि अधिग्रहण नीति किसान विरोधी है. देश का किसान इससे आहत है, लेकिन सभी राजनीतिक पार्टियां सिर्फ दिखावा कर रही हैं. मांस के निर्यात पर रोक लगाने की मांग पर तेवतिया जोर देकर कहते हैं कि मांस के व्यापार के कारण देश का पशुधन नष्ट हो रहा है और दूध-दही की भारी किल्लत होने लगी है. इसके अलावा मांस की कीमत भी आसमान छूने लगी है. पशुधन काटने से पशुओं की कीमतें इतनी बढ़ती जा रही हैं कि अब पशु खरीदना किसानों के सामर्थ्य से बाहर होता जा रहा है.

ताकि किसान खुद ही खेत छोड़ कर भाग जाएं
एक तरफ किसानों की जमीनें सरकार जब चाहे तब छीन लेगी, दूसरी तरफ किसानों की फसलों को लुटा कर सरकार पहले से ही किसानों को खेत छोड़ कर भागने पर मजबूर कर रही है. गेहूं, धान, गन्ना और आलू समेत अन्य फसलों की लागत का मूल्य भी उत्तर प्रदेश के किसानों को नहीं मिल पाता. किसानों का पैदा किया हुआ अनाज दलालों और बिचौलियों द्वारा औने-पौने भाव पर खरीदा जाता है. सरकारी खरीद केंद्र दलालों के भी दलाल का काम कर रहे हैं. गन्ना की फसलें चीनी मिलों द्वारा लूटी जा रही हैं. मौजूदा सरकार के अदूरदर्शी तौर-तरीकों के कारण गन्ना भी बिचौलिए ही खरीद रहे हैं. चीनी मिलों में गन्ना किसानों का करोड़ों का बकाया है और यह बढ़ता ही जा रहा है. अब तो चीनी मिलें गन्ना लेने के एवज में किसानों को पर्चियां तक नहीं दे रही हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है कि चीनी मिलें गन्ना मूल्य के भुगतान में भीषण कोताही बरत रही हैं. इस करतूत पर दर्जनों चीनी मिलों का गन्ना क्षेत्र डायवर्ट भी किया गया, लेकिन चीनी मिलों की हरकतें थमने का नाम नहीं ले रही हैं. गन्ना मूल्य भुगतान में लापरवाही बरतने वाली कुछ चीनी मिलों के खिलाफ गन्ना एवं चीनी आयुक्त सुभाषचंद्र शर्मा ने कार्रवाई भी शुरू की. इस क्रम में कुंदरकी, थाना भवन, मकसूदापुर, बरखेड़ा, करीमगंज और चांदपुर के कई गन्ना क्रय केन्द्रों को निकटवर्ती दूसरी चीनी मिलों को डायवर्ट किया गया. इसके बाद गोला, खम्बारखेड़ा, चिलवरिया, बिलारी एवं बेलवाड़ा चीनी मिलों के भी कई क्रय केन्द्रों को अन्य चीनी मिलों के लिए डायवर्ट किया गया. सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि पेराई सत्र 2014-15 का ही किसानों के बकाये का 3931.82 करोड़ रुपया चीनी मिलों ने भुगतान नहीं किया. पिछले बकायों की तो बात ही छोड़ दें. सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले पेराई सत्र का भी 640.24 करोड़ रुपया किसानों को नहीं दिया गया. इस तरह किसानों के बकाये की राशि बढ़ती चली जा रही है. किसानों के साथ हो रहे ऐसे सलूक के खिलाफ अब विधानसभा में भी उग्र विरोध हो रहा है. गन्ना किसानों के बकाया भुगतान को लेकर विधानसभा के मौजूदा सत्र में विपक्ष ने जोरदार हंगामा किया और बसपा को छोड़कर सम्पूर्ण विपक्ष ने सदन का बहिष्कार किया. विपक्ष ने आरोप लगाया कि चीनी मिलों ने पेराई सत्र 2013-14 के गन्ना मूल्य का ही किसानों को भुगतान नहीं किया तो 2014-15 के बकाये का भुगतान कैसे होगा. इस पर मंत्री रियाज अहमद ने कहा कि पेराई सत्र 2013-14 का 640.24 करोड़ रुपया बकाया रह गया है. मंत्री ने यह भी कहा कि निजी क्षेत्र की करीब दर्जनभर चीनी मिलों ने गन्ना मूल्य का भुगतान नहीं किया, जिनके खिलाफ वसूली प्रमाण पत्र जारी किए जा चुके हैं और पुलिस में प्राथमिकी दर्ज की जा चुकी है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि इन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. कांग्रेस विधायक अजय कुमार लल्लू ने देवरिया और कुशीनगर में 15 चीनी मिलों के घटकर छह रह जाने पर गहरी चिंता जाहिर की. वहां की चीनी मिलें गन्ना किसानों और मजदूरों का अरबों रुपया दबाए बैठी हैं. भाजपा के लोकेन्द्र सिंह ने कहा कि गन्ना किसानों की आजीविका पर संकट आ गया है. किसान अपने बच्चों की पढ़ाई और उनकी शादी नहीं कर पा रहे हैं. उन पर बैंकों के कर्ज का भीषण दबाव है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी मिल मालिक बकाये का भुगतान नहीं कर रहे हैं. सरकार चीनी मिल मालिकों को रियायतें और सुविधाएं देने में लगी रहती है. भाजपा के सतीश महाना ने कहा कि गन्ना किसानों के मामले में सरकार संवेदनहीन है. भाजपा के सुरेश खन्ना ने कहा कि सरकार और चीनी मिल मालिकों की साठगांठ है, इसलिए कोई कार्रवाई नहीं होती है. भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने चौथी दुनिया से कहा कि किसानों के पास खुद का हक पाने के लिए अब संघर्ष के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने पहले से गन्ने का बकाया, धान की खरीद नहीं होने, यूरिया की कालाबाजारी, सिंचाई की सुविधा नहीं होने जैसी समस्याएं खड़ी थीं, अब उनकी जमीनें छिनने का भी खतरा मंडराने लगा है. पूर्वांचल के किसान नेता शिवाजी राय कहते हैं कि किसानों पर सरकारों का दबाव इसलिए भी है कि वे खुद ब खुद अपनी जमीनें छोड़ कर भाग जाएं और वे जमीनें कॉरपोरेट घरानों को फार्मिंग के लिए दे दी जाएं. भारत की कृषि के कॉरपोरेटाइजेशन की साजिशें चल रही हैं.

किसानों की मांग
  • भूमि अधिग्रहण नीति में संशोधन हो (संशोधन के प्रस्ताव पीएमओ को पहले ही दिए जा चुके हैं).
  • किसानों की आधी जमीन का ही अधिग्रहण किया जाए और किसानों की शेष जमीन को विकसित कर वापस किया जाए.
  • किसानों की बची हुई आधी जमीन को विकसित कर उसके 25 प्रतिशत हिस्से को निःशुल्क मिक्स लैंड यूज के श्रेणी में रखने की व्यवस्था हो.
  • जिस रेट पर सरकार जमीन बेचती है, उसका औसत मूल्य (रेजिडेंशियल, कॉमर्शियल, इंडस्ट्रियल, इंस्टीट्यूशनल) का 60 प्रतिशत मुआवजे के रूप में किसानों को दिया जाए.
  • रेल, सड़क, बिजली (हाई टेंशन) के लिए ली जाने वाली जमीन किसानों से लीज पर ली जाए और किसानों को उसका आजीवन लीज रेंट दिया जाए, ताकि किसानों की स्थायी आय का स्रोत बना रहे.
  • भूमिहीन किसान-मज़दूर को निःशुल्क 200 वर्ग मीटर का प्लॉट मिक्स लैंड यूज की अनुमति के साथ मिले.
  • किसानों को सम्बद्ध परियोजना में 25 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा मिले. उनके लिए कोई अलग रेट नहीं, बल्कि जिस रेट पर प्राधिकरण जमीन बेच रहा हो, वही किसानों के लिए भी लागू हो.
  • किसानों की फसल की लागत समेत 20 प्रतिशत लाभ का मूल्य तय हो.
  • दूध की भारी किल्लत को देखते हुए मीट का अंधाधुंध निर्यात तत्काल बंद हो.

देश का सबसे बड़ा ऊर्जा घोटाला : जज ने लांघी क़ानून की हद

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ऊर्जा घोटाले में पुलिस की फाइनल रिपोर्ट को क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर संज्ञान लेने और तीन सालों तक रिपोर्ट दबाए रखने वाले जज के ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट के विजिलेंस ब्यूरो ने कार्रवाई शुरू कर दी है. जज के ख़िलाफ़ शिकायत यह भी है कि उन्होंने न्याय विभाग में प्रमुख सचिव रहते हुए संवेदनशील तथ्य छिपाकर एक विवादास्पद सरकारी वकील के जज बनने में मदद की थी. यह प्रकरण सामने आते ही उत्तर प्रदेश के ऊर्जा सेक्टर में हुए अरबों के घोटाले की लीपापोती में लगे जजों, नौकरशाहों और विभागीय अफसरों के साथ-साथ सीबीआई के भी क़ानून के शिकंजे में आने की संभावना बढ़ गई है. उत्तर प्रदेश का ऊर्जा घोटाला देश का सबसे बड़ा घोटाला साबित होने वाला है, जिसमें न केवल नेता और नौकरशाह, बल्कि जज और सीबीआई के अधिकारी भी लिप्त हैं. यह रोचक और रोमांचक ही है कि अरबों के ऊर्जा घोटाले की सीबीआई जांच का औपचारिक आदेश हो जाने के बाद भी उसे अदालत में दबाए रखा गया और आख़िरकार सीबीआई ने ही जांच करने से मना कर दिया. ऊर्जा घोटाले में सीबीआई भी अभियुक्त है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट प्रशासन ने लखनऊ के तत्कालीन ज़िला जज केके शर्मा के ख़िलाफ़ गंभीर शिकायतों को संज्ञान में लेते हुए शिकायतकर्ता नंदलाल जायसवाल को हलफनामा दाखिल करने और संबंधित दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का आदेश दिया है. केके शर्मा अभी एटा में ज़िला जज के पद पर तैनात हैं. उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम लिमिटेड में हुए सैकड़ों करोड़ के घोटाले में सीजेएम अदालत के निर्देश पर 23 जनवरी, 2008 को ही हजरतगंज थाने में प्रदेश के तत्कालीन ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय, आठ आईएएस अफसरों आरबी भास्कर, वीरेश कुमार, अशोक खुराना, राजकमल गुप्ता, जीबी पटनायक, कुंअर फतेह बहादुर सिंह, महेश गुप्ता, आलोक टंडन और उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम लिमिटेड के 19 अधिकारियों के ख़िलाफ़ एफआईआर (संख्या- 72/2008) दर्ज की गई थी. इनके ख़िलाफ़ भारतीय दंड विधान की धारा 193, 409, 420, 465, 471, 471-ए, 120-बी और प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया था, लेकिन पुलिस ने इसमें कोई कार्रवाई नहीं की. राजनीतिक दबाव और पुलिस की शिथिलता पर 20 जनवरी, 2009 को हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की गई. इस पर अदालत ने पुलिस को निर्देश दिया कि वह त्वरित कार्रवाई करे, लेकिन पुलिस ने तब भी कोई कार्रवाई नहीं की. विडंबना यह है कि इस बीच 19 विवेचना अधिकारी (आईओ) बदल भी दिए गए.
इसके पहले से ही पानी सिर के ऊपर से बह रहा था. सरकार ने विधानसभा में यह मान लिया था कि जल विद्युत निगम में महाप्रबंधक से लेकर अभियंताओं एवं सहायक अभियंताओं तक की फर्जी तरक्कियां और अन्य अनियमितताएं की गईं. इस पर गृह विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव ने लखनऊ पुलिस को एफआईआर भी दर्ज करने को कहा, लेकिन पुलिस ने यह कह दिया कि भ्रष्टाचार और अनियमितता नहीं पाई गई. इस पर सरकार ने तत्कालीन ऊर्जा सचिव हरिराज किशोर को जांच का आदेश दिया. ऊर्जा सचिव ने 28 नवंबर, 2006 को प्रमुख सचिव ऊर्जा को पेश की गई अपनी जांच रिपोर्ट में भ्रष्टाचार के सभी मामले सही पाए और निदेशक (वित्त) को आवश्यक कार्रवाई के लिए लिखा. वह रिपोर्ट 29 नवंबर, 2006 को आवश्यक कार्रवाई के लिए नियुक्ति विभाग भी भेजी गई. 28 दिसंबर, 2006 को लोकसभा में पूछे गए सवाल पर उत्तर प्रदेश सरकार ने जवाब भी दिया कि जांच के आधार पर कार्रवाई की जा रही है. लेकिन हुआ कुछ भी नहीं. फिर सत्ता बदली और सपा की जगह बसपा की सरकार आ गई. बसपा सरकार के ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय ने सारी फाइलें अपने पास मंगवा लीं और उन्हें 2012 (बसपा सरकार के कार्यकाल) तक अपने पास दबाए रखा. इससे सपा और बसपा दोनों के कार्यकाल के घोटाले दबे रह गए. बसपा सरकार के समय तीस हज़ार करोड़ रुपये का बिजली घोटाला हुआ था. बसपा सरकार ने उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन और निजी कंपनियों के साथ बिजली खरीद करार करके इस घोटाले को अंजाम दिया था. इस घोटाले के कई सबूत और दस्तावेज़ी प्रमाण भी लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा को सौंपे गए थे. लोकायुक्त ने शिकायत को संज्ञान में ले लिया था, लेकिन कार्यवाही आगे नहीं बढ़ पाई. उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन ने पांच निजी पावर ट्रेडिंग कंपनियों के साथ द्विपक्षीय समझौता किया था. इसमें पावर कॉरपोरेशन ने इन कंपनियों से महंगी दर से पांच हज़ार करोड़ यूनिट बिजली खरीदने का समझौता किया था. समझौते की शर्त यह थी कि पावर कॉरपोरेशन को उस दौरान सस्ती बिजली मिलने पर भी उसे अन्य कहीं से खरीद का अधिकार नहीं होगा, चाहे वह केंद्रीय ग्रिड की एनटीपीसी और दूसरी कंपनियों से मिलने वाली सस्ती बिजली ही क्यों न हो. राज्य सरकार ने जिस तरह से बिजली खरीदी, उससे सरकारी खज़ाने को भीषण नुक़सान पहुंचा. बसपा सरकार से पहले सपा के शासनकाल में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना में 1600 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ था. उस मामले में भी केवल जांच ही चलती रही, नतीजा शून्य रहा.
मायावती के कार्यकाल के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने कई सार्वजनिक बयानों में कहा कि ऊर्जा क्षेत्र में मायावती सरकार 25 हज़ार करोड़ रुपये का घाटा छोड़कर गई है, लेकिन इस घाटे की वजह जानने की अखिलेश सरकार ने कभी कोशिश नहीं की. अकेले जेपी समूह को फ़ायदा पहुंचाने के लिए ही प्रदेश सरकार को 30 हज़ार करोड़ रुपये की चपत लगाई जा चुकी है. इसके लिए राज्य विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष राजेश अवस्थी को निष्कासित भी होना पड़ा, लेकिन घोटाले को लेकर कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की गई. उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम में भी 750 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ, लेकिन इस घोटाले में लिप्त तत्कालीन सीएमडी आईएएस आलोक टंडन समेत अन्य अधिकारियों एवं अभियंताओं का कुछ नहीं बिगड़ा. सपा के मौजूदा शासनकाल में बिजली बिलों में फर्जीवाड़ा कर हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला किए जाने का मामला सामने आया. यूपी पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा अधिकृत बिलिंग कंपनी की मिलीभगत के ज़रिये इस घोटाले को अंजाम दिया गया है.
मायावती के कार्यकाल के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने कई सार्वजनिक बयानों में कहा कि ऊर्जा क्षेत्र में मायावती सरकार 25 हज़ार करोड़ रुपये का घाटा छोड़कर गई है, लेकिन इस घाटे की वजह जानने की अखिलेश सरकार ने कभी कोशिश नहीं की. अकेले जेपी समूह को फ़ायदा पहुंचाने के लिए ही प्रदेश सरकार को 30 हज़ार करोड़ रुपये की चपत लगाई जा चुकी है.
बहरहाल, इन घोटालों की लीपापोती में अभी तक नेताओं-नौकरशाहों का खेल चल रहा था, इसके बाद अदालतों का खेल भी सामने आया. 16 अप्रैल, 2013 को नंदलाल जायसवाल की तरफ़ से दाखिल जनहित याचिका की सुनवाई के दरम्यान 18 अप्रैल को अपर महाधिवक्ता बुलबुल गोदियाल ने प्रमुख सचिव गृह का हवाला देते हुए बताया कि इस मामले में चार अक्टूबर, 2012 को ही फाइनल रिपोर्ट (संख्या 5/12) सीजेएम अदालत में दाखिल हो चुकी है. लिहाजा शिकायतकर्ता अपनी आपत्ति वहीं दाखिल करे. हालांकि, याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया भी कि यह तथ्य ग़लत है, लेकिन कोर्ट ने नहीं माना और सीजेएम कोर्ट में ही आपत्ति दाखिल करने को कहा. 29 अप्रैल, 2013 को सीजीएम कोर्ट ने बताया कि फाइनल रिपोर्ट उस अदालत में है ही नहीं. इस पर हाईकोर्ट ने चार दिसंबर, 2013 को सीजेएम लखनऊ को पुलिस की फाइनल रिपोर्ट के साथ अदालत में हाजिर होने को कहा. वह रिपोर्ट न तो सीजेएम कोर्ट में थी और न प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत विशेष न्यायाधीश की कोर्ट में थी. सीजेएम लखनऊ ने बताया कि फाइनल रिपोर्ट लखनऊ के सत्र न्यायाधीश की अदालत में है. तब 19 दिसंबर, 2013 को हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता को सत्र न्यायाधीश (सेशन जज) की अदालत में आपत्ति दाखिल करने का आदेश दिया. अदालती औपचारिकताएं और पेचीदगियां चल ही रही थीं कि 29 जनवरी, 2014 को आधिकारिक तौर पर यह सामने आया कि फाइनल रिपोर्ट लखनऊ के ज़िला (सेशन) जज केके शर्मा की अदालत में ही पड़ी थी. इसके बाद भी ज़िला जज ने याचिकाकर्ता को फाइनल रिपोर्ट की कॉपी नहीं दी. उसे कोर्ट में ही पढ़ लेने की ताकीद की. हज़ार पन्नों की फाइनल रिपोर्ट कोर्ट में कुछ समय में पढ़ लेना नामुमकिन था. बहरहाल, कोर्ट ने यह भी कहा कि यह फाइनल रिपोर्ट 10 अप्रैल, 2013 को अदालत में आई है. जबकि तथ्य यह है कि चार अक्टूबर, 2012 को ही फाइनल रिपोर्ट ज़िला जज के यहां आ चुकी थी. लेकिन इस बारे में याचिकाकर्ता को कोई औपचारिक सूचना नहीं दी गई. कोर्ट के क्षेत्राधिकार का सवाल भी उठा और कोर्ट को बताया गया कि भ्रष्टाचार का उक्त मामला प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत विशेष न्यायाधीश के क्षेत्राधिकार में आता है. ज़िला जज केके शर्मा इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर उन्होंने पुलिस की फाइनल रिपोर्ट को संज्ञान में कैसे और क्यों लिया और लंबे अर्से तक उसे दबाए क्यों रखा?
कोर्ट का संदेहास्पद रवैया देखते हुए लखनऊ के तत्कालीन ज़िला जज केके शर्मा के ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट के प्रशासनिक जज के यहां 19 मार्च, 2014 को शिकायत दाखिल की गई. इसके बाद ही छह मई, 2014 को केके शर्मा का एटा तबादला कर दिया गया. उनकी जगह पर लखनऊ के ज़िला जज बनकर आए वीके श्रीवास्तव ने पदभार ग्रहण करते ही संदर्भित मामले को प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत का मामला माना और उसे फौरन विशेष जज के सुपुर्द कर दिया. इस तरह यह साफ़ हो गया कि तत्कालीन ज़िला जज केके शर्मा ने क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर फाइनल रिपोर्ट को अपनी अदालत में दबाए रखा था. दक्षिण कोरिया की कंपनी मेसर्स हुंडई इंजीनियरिंग कंस्ट्रक्शंस द्वारा 220 करोड़ रुपये का फर्जी भुगतान ले लिए जाने के मामले में भी केके शर्मा हुंडई कंपनी के पक्ष में फैसला देकर विवादों में आ चुके हैं. उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड के भ्रष्ट अधिकारियों ने हुंडई के साथ मिलीभगत करके उसे फर्जी भुगतान दे दिया था.
याचिकाकर्ता नंदलाल जायसवाल ने हाईकोर्ट प्रशासन से यह भी शिकायत की है कि केके शर्मा जब न्याय विभाग के प्रमुख सचिव थे, तब उन्होंने सरकार के मुख्य स्थायी अधिवक्ता (चीफ स्टैंडिंग काउंसिल) देवेंद्र कुमार उपाध्याय पर दर्ज आपराधिक मुकदमे का तथ्य छिपा लिया था. उपाध्याय के जज बनाए जाने की फाइल क़ानूनी सलाह के लिए प्रमुख सचिव रहे केके शर्मा के पास भेजी गई थी. उपाध्याय नवंबर 2011 में जज बने, जबकि आपराधिक मुकदमा चलने के बारे में केंद्रीय क़ानून मंत्रालय ने 29 जून, 2011 को ही प्रदेश सरकार से जवाब मांगा था, लेकिन प्रदेश सरकार ने केंद्र को कोई जवाब नहीं भेजा. आपराधिक मुकदमे वाली पृष्ठभूमि के व्यक्ति को जज बनाए जाने के ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से भी शिकायत की गई थी, लेकिन वहां से कहा गया कि इस बारे में बार काउंसिल से शिकायत करें. बार काउंसिल ने शिकायत दबाए रखी और तीन अगस्त, 2012 को लिखा कि जज बनने के कारण बार काउंसिल देवेंद्र कुमार उपाध्याय के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर सकती. उल्लेखनीय है कि लखनऊ के वजीरगंज थाने में देवेंद्र कुमार उपाध्याय समेत छह लोगों पर भारतीय दंड विधान की धारा 147 (बलवा करना), 323 (मारपीट कर जख्मी करना), 504 (लोक शांति भंग करना) और 506 (आपराधिक अभित्रास) का मुकदमा (संख्या 186/08) दर्ज हुआ था. इस मामले में पुलिस ने फाइनल रिपोर्ट लगा दी थी, जिसके ख़िलाफ़ एसीजेएम सीबीआई (एपी) की अदालत में प्रोटेस्ट दाखिल किया गया था. यह मामला उपाध्याय के जज बनने के साल भर बाद तक चलता रहा. खूबी यह है कि अदालत में बाकायदा इसकी तारीखें पड़ती रहीं, प्रक्रिया चलती रही, लेकिन इसे सूचना को डिस्प्ले नहीं किया जाता रहा. सरकार के मुख्य स्थायी अधिवक्ता देवेंद्र कुमार उपाध्याय और प्रदेश के अपर महाधिवक्ता जेएन माथुर पर ऊर्जा विभाग से लाखों रुपये के फर्जी भुगतान प्राप्त करने के भी गंभीर आरोप पहले से लग रहे थे.

लीपापोती में लगे रहे दर्जन भर जज
केके शर्मा अकेले जज नहीं हैं, जिन्होंने ऊर्जा घोटाले की लीपापोती में संदेहास्पद भूमिका अदा की. विदेशी कंपनी के साथ मिलीभगत कर उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा पांच हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला किए जाने के मामले में सीबीआई से जांच कराने की सरकारी अधिसूचना जारी हो जाने के बाद भी जांच नहीं करने दी गई. इस षड्यंत्र में सीबीआई के अधिकारी भी शरीक रहे. विचित्र, किंतु सत्य यह है कि पावर कॉरपोरेशन की विजिलेंस शाखा ने घोटाले की सीबीआई जांच की सिफारिश की और स्टेट विजिलेंस ने भी कहा कि पूरा प्रकरण गंभीर जांच की अपेक्षा करता है, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के तत्कालीन जज स्वनामधन्य जगदीश भल्ला और कमल किशोर ने विजिलेंस की सिफारिश को तकनीकी पड़ताल के लिए उन्हीं लोगों के सुपुर्द कर दिया, जो अरबों रुपये के घोटाले में लिप्त थे. हाईकोर्ट के तत्कालीन जज एसएचए रजा और आरडी शुक्ला की बेंच ने सीबीआई जांच के अपने ही पूर्व के फैसले का ऑपरेटिव पोर्शन बदल डाला. जज डीके त्रिवेदी और नसीमुद्दीन की बेंच ने क़ानूनी पेचोखम में उलझा कर मामले को आगे बढ़ने नहीं दिया. जज वीरेंद्र शरण और आरडी शुक्ला की बेंच ने एसएचए रजा वाली बेंच का विरोधाभासी फैसला ही पकड़े रखा तथा जज रितुराज अवस्थी और अनिल कुमार शिकायतकर्ता का पक्ष सुने बगैर तारीख पर तारीख देते रहे. इन सारे जजों की संदेहास्पद भूमिका के बारे में राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी जाती रही, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के जज रहे इम्तियाज मुर्तजा और विनय कुमार माथुर ने तो हद ही कर दी. उन्होंने याचिकाकर्ता नंदलाल जायसवाल को अंधेरे में रखकर उनकी जनहित याचिका खारिज कर दी. जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश शिवकीर्ति सिंह और जज श्रीनारायण शुक्ला की बेंच ने याचिकाकर्ता को शपथपत्र दाखिल करने का आदेश दे रखा था. शपथ पत्र दाखिल करने के बाद नंदलाल जायसवाल सुनवाई की तारीख का इंतज़ार ही करते रह गए और उधर उनकी याचिका खारिज कर दी गई. जज इम्तियाज मुर्तजा और विनय माथुर के बेजा ़फैसले की शिकायत पर वह जनहित याचिका फिर से री-स्टोर हुई. हाईकोर्ट प्रशासन द्वारा उस जनहित याचिका को वापस क़ानूनी प्रक्रिया में लाने का निर्णय उन जजों और मौजूदा न्यायिक व्यवस्था पर करारे तमाचे की तरह साबित हुआ.

सुप्रीम कोर्ट के जज कम दागदार नहीं
तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 30 जनवरी, 2003 को मामले की सीबीआई जांच कराने का बाकायदा शासनादेश जारी किया था. इस पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वाईके सबरवाल एवं बीएन अग्रवाल की बेंच ने 13 जुलाई, 2003 को केंद्र, सीबीआई और यूपी पावर कॉरपोरेशन को अंतिम मा़ैका देते हुए प्रति-शपथपत्र दाखिल करने का आदेश दिया, लेकिन ऐसा नहीं किया गया. केंद्र सरकार, सीबीआई और यूपी पावर
कॉरपोरेशन की इस खुली नाफरमानी पर सख्त संज्ञान लेने के बजाय सुप्रीम कोर्ट की इसी बेंच ने मामले को ही खारिज कर दिया. वही सबरवाल बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने.

व्हिसिल ब्लोअर ने बड़ी क़ीमतें चुकाईं
उत्तर प्रदेश के ऊर्जा घोटालों को उजागर करने वाले नंदलाल जायसवाल ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बिगुल फूंकने की बड़ी क़ीमतें चुकाईं.जायसवाल विद्युत विभाग के ही कर्मचारी थे. उन्होंने ऊर्जा सेक्टर में फैले भ्रष्टाचार को अपने शीर्ष अधिकारियों के समक्ष उजागर करना शुरू किया, लेकिन शीर्ष अधिकारियों ने उनका ही उत्पीड़न शुरू कर दिया. धीरे-धीरे शीर्ष अधिकारियों के भ्रष्टाचार की परतें खुलती गईं और नंदलाल जायसवाल के ख़िलाफ़ साजिशें बढ़ती गईं. उनके ख़िलाफ़ आपराधिक षड्यंत्र तक हुए. फर्जी मुकदमे दर्ज कराए गए, कातिलाना हमला हुआ, फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार कर जेल भेजा गया और नौकरी से निकाल बाहर किया गया. अदालत ने भी पाया कि जायसवाल पर फर्जी मुकदमे लादे गए. अदालत के हस्तक्षेप पर वर्षों बाद उन्हें पेंशन मिलनी शुरू हुई. इस बीच उनके घर के सारे जेवर बिक गए और जायसवाल काला कोट पहन कर वकील के रूप में ऊर्जा सेक्टर के भ्रष्टाचारियों के ख़िलाफ़ क़ानूनी लड़ाई में उतर गए. ऊर्जा सेक्टर में अरबों रुपये के घोटाले उजागर करने वाले व्हिसिल ब्लोअर को संरक्षण और सुरक्षा देने के बजाय नेता, नौकरशाह एवं कुछ जज तक उनका मुंह बंद करने की साजिशों में लगे रहे और देश के सबसे बड़े घोटाले को निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुंचने दिया गया. फिर भी लड़ाई जारी है…

अधिसूचना को सीबीआई ने दिखाया ठेंगा
पांच हज़ार करोड़ रुपये के ऊर्जा घोटाले की सीबीआई जांच कराने की अधिसूचना जारी होने के बावजूद सीबीआई ने जांच करने से मना कर दिया. यह हैरतअंगेज हुकुमउदूली सीबीआई ने की और केंद्र एवं राज्य सरकार चुप बैठी रह गई. घोटाले की रकम इतनी बड़ी थी कि उसने राज्य एवं केंद्र सरकार में बैठे सियासतदानों, नौकरशाहों और सीबीआई के अधिकारियों तक को अपने प्रभाव में ले लिया. तभी सीबीआई ने सरकार की अधिसूचना तक को ताख पर रखकर यह कह दिया कि यह मामला जांच के उपयुक्त नहीं है. सीबीआई के अधिकारियों की इस अराजकता के ख़िलाफ़ कोई सुगबुगाहट भी नहीं हुई. सीबीआई के अधिकारियों ने जांच से मना करते हुए इसे पुराना मामला बताया, फिर कहा कि घोटाले से संबंधित जानकारियां नहीं दी जा रही हैं. फिर कहा कि उसके पास जांच की तकनीकी क्षमता नहीं है, फिर यह भी कहा कि इस घोटाले का कोई अंतरराष्ट्रीय प्रसार नहीं है. जबकि सीबीआई के सारे तर्क आधारहीन पाए गए. पांच हज़ार करोड़ रुपये का यह ऊर्जा घोटाला दरअसल विदेशी कंपनी के साथ यूपी पावर कॉरपोरेशन के अधिकारियों की मिलीभगत से ही अंजाम दिया गया था.

भूमि अधिग्रहण बिल किसानों के साथ अन्याय है

भारत में खेती किसानों की जीवनशैली का अटूट हिस्सा है. लहलहाती हुई फसलों में किसान अपना जीवन देखता है, लेकिन मोदी सरकार किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण कर उनके जीवन की डोर बीच में ही तो़डने पर आमादा है. सरकार किसानों को मुआवजा चाहे जितना भी दे दे, लेकिन किसान को तो उसकी ज़मीन चाहिए. क्या ये संशोधन किसान परिवारों के युवा लोगों की आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप हैं? भूमि अधिग्रहण संशोधन किसानों के सामाजिक लक्ष्य की पूर्ति और अधिग्रहीत भूमि के मालिकों के हितों की रक्षा कर सकते हैं? ये ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब मोदी सरकार के पास नहीं है. भूमि अधिग्रहण के बहाने विकास की कोरी कल्पना से भला मोदी सरकार के अच्छे दिन आने से रहे. कहना ग़लत नहीं होगा कि आने वाले दिनों में मोदी सरकार का यह बिल किसानों पर वज्रपात की तरह गिरेगा, जिसकी मार सहन कर पाना उनके वश की बात नहीं.
page-7भूमि अधिग्रहण बिल लोकसभा में पास हो गया है, लेकिन राज्यसभा में कब पास होगा, पास होगा भी या नहीं या फिर इस बिल को अध्यादेश के माध्यम से लागू किया जाएगा, यह देखने वाली बात होगी. इस बिल को लेकर मोदी सरकार पर यह आरोप लगता रहा है कि यह बिल किसान विरोधी और पूंजीपतियों का हितैषी है. पहली नज़र में यह साफ मालूम होता है कि सरकार इस बिल को शहरीकरण, औद्योगिकीकरण एवं बुनियादी ढांचे के विकास के नाम पर ज़मीन अधिग्रहण को बढ़ावा देने का काम करने जा रही है. मतलब अधिग्रहण तो हो, पर विवाद कम से कम हो. यही कारण है कि किसानों को अभी से ही लगने लगा है कि गैर कृषि क्षेत्र को होने वाला कोई भी लाभ चाहे वह स्कूल जाने वाले बच्चे हों, अस्पताल की तलाश कर रहे मरीज हों, सस्ते मकान की प्रतीक्षा कर रहे आम जन हों, छोटे कारोबारी या बड़े उद्यमी हों, यह सब हासिल होगा उनकी अधिग्रहित ज़मीन के बल पर.
बेहतर मुआवज़े तथा पुनर्वास व पुनर्स्थापना के सुझावों का किसानों को लालच देकर येन केन प्रकारेण उन्हें इस अधिग्रहण पर सहमत कराने का सरकार भरसक प्रयास कर रही है. अब तक लागू होते रहे भूमि अधिग्रहण कानून और अब उसके नए मसौदों से भी ये बात साफ़ है कि सरकार चाहे भाजपा की हो या किसी अन्य पार्टी या मोर्चे की, चाहे वह केंद्र की सरकार हो या फिर प्रांत की सरकार हो, वह कृषि भूमि अधिग्रहण पर अंकुश लगाने वाली नहीं है. पिछले 20 सालों से लागू हो रही इन्हीं नीतियों के तहत पूंजीपतियों के अधिकारों को बढ़ाया जा रहा है. किसान के पक्ष में हिमायती दिखने वाला किसी भी तरह का मसौदा क्यों ना आ जाए, सरकार उसके जरिए व किसानों से जमीन का मालिकाना हक छुड़ाने, छीनने से बाज़ नहीं आ सकती. सरकार यह भूल जाती है कि वो अपने मसौदे या संशोधनों के जरिये किसानों की जमीनोंे का अधिग्रहण ही करती है, उनकी जमीन उनके पास नहीं रहने देती. और यही किसानों की सबसे ब़डी चिंता है. किसान कहते हैं कि हमारी ज़मीन हमसे भला कोई जबरदस्ती कैसे ले सकता है? क्या सरकार के पास किसानों के इस सवाल का कोई जवाब है कि अगर उनकी ज़मीन अधिग्रहण में चली जाएगी, तो वे किस ज़मीन पर खेती करेंगे, वे क्या खाएंगे? आप मुआवज़े चाहे जितना दे दें, लेकिन क्या किसानों की ज़मीन उन्हें वापस मिल पाएगी? जब सरकार सार्वजनिक कंपनियों को निजी हाथों में सौंपती जा रही है तो इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले समय में सार्वजनिक हित के नाम पर किया जा रहा भूमि अधिग्रहण धनाढ्य कंपनियों के हित में नहीं किया जाएगा? निजी कंपनियों का कोई सामाजिक सरोकार या लोक कल्याणकारी कार्यक्रम नहीं होता है. उनका उद्देश्य अधिक से अधिक निजी हित को साधते हुए मैक्सिमम प्रॉफिट होता है. इसलिए इस दौर में सार्वजनिक हित के नाम पर शहरीकरण औद्योगिकीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास में ऊपर से थोड़ा बहुत सार्वजनिक हित भले ही दिखाई पड़ जाए, लेकिन उसके भीतर धनाढ्य कंपनियों का हित व मालिकाना अधिकार ही छिपा हुआ है. ज़रूरी है कि आम किसान व अन्य ग्रामीण इस बिल के झांसे में न आकर भूमि अधिग्रहण का निरंतर विरोध जारी रखें.
सवाल, जो बेहद अहम हैं
प्रस्तावित संशोधनों का आंकलन करते समय सरकार से यह सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि क्या ये संशोधन किसान परिवारों के युवा लोगों की आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप हैं और क्या जिस परियोजना के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है, उसके सामाजिक लक्ष्य की पूर्ति और अधिग्रहीत भूमि के मालिकों के हितों की रक्षा इन संशोधनों में शामिल है.
सरकार की नीयत में खोट
हर किसी का सपना है कि शहर में उसका एक मकान हो. उसके बच्चे भी कॉन्वेंट में प़ढें. उन्हें बेहतर इलाज की सुविधा मिले, अच्छी नौकरी मिले, अगर ये सारी सुविधाएं उनके गांवों में या गांवों के आसपास मिलने लगे, तो इसमें कोई दो राय नहीं कि ग्रामीणों का शहरों की तरफ पलायन रुक जाएगा. आखिर क्यों नहीं सरकार इस दिशा में प्रयास कर रही है. ताकि ग्रामीणों को सारी सुविधाएं उनके गांवों के आसपास ही मिलेंे. अगर ये सुविधाएं किसानों या उनके बच्चों को पास में ही मिलती हैं तो वे भला क्यों शहरों में बसने जाएंगे. कहीं सरकार गांवों का विकास इसी उद्देश्य से तो नहीं करना चाहती कि किसानों की भूमि के अधिग्रहण जैसे मौके उसके हाथ से निकल जाएंगे. किसान स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल की सुविधाएं जरूर चाहता है, लेकिन अपनी ज़मीन के अधिग्रहण की शर्त पर नहीं.
हर तरफ विरोध के स्वर 
सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे हों या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल या फिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, सभी नये भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में हैं. उत्तर प्रदेश के नोएडा से महाराष्ट्र के रायगढ़ तक, पंजाब के लुधियाना से तमिलनाडु के तिरुवल्लूर तक हाल के वर्षों में भूमि अधिग्रहण का विरोध जमकर होता रहा है. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इस संशोधन को किसान विरोधी करार देते हुए कहा था कि ज़मीन का मुद्दा दिल्ली में केंद्र के अधीन आता है, लेकिन फिर भी दिल्ली सरकार किसी की भी ज़मीन को जबरन अधिग्रहित नहीं होने देगी. हालांकि केजरीवाल यहां सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं, क्योंकि दिल्ली में खेती की जमीन है ही नहीं, लेकिन दूसरे राज्यों के मामले में केजरीवाल या अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों का बयान तर्कसंगत है. कोई वजह नहीं दिखती कि नया क़ानून इन विरोधों को ध्वस्त कर देगा.
इसके विपरीत आशंका ये है कि ज़मीन मालिकों की सहमति की अनिवार्यता ख़त्म कर देने से विरोध और प्रबल होगा. ये क़ानून 2013 के उस क़ानून को रद्द करता है, जिसमें भूमि अधिग्रहण के लिए ज़मीन मालिकों की सहमति अनिवार्य की गई थी.
सत्ता पक्ष का दावा
मोदी सरकार इस विधेयक से बहुत उम्मीद लगाए हुए है. उसका कहना है कि यह विधेयक भूमि अधिग्रहण को आसान बनाएगा. इससे औद्योगिक विस्तार को मदद मिलेगी और देश में ताबड़तोड़ कारखाने खुलने लगेंगे. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने ऐलान किया था कि वे भारत को चीन की तर्ज पर एक विशाल औद्योगिक मुल्क बनाएंगे. मोदी सरकार कहती है कि ये विधेयक ज़मीन के मालिकों को पहले से अधिक मुआवज़े का हक़ देता है. हालांकि विपक्ष के अलावा मोदी के कुछ सहयोगी दल भी इस विधेयक को जनविरोधी बता रहे हैं और आंदोलन छेड़ने की धमकी दे रहे हैं. दूसरी तरफ कम से कम दो दशकों का अनुभव भूमि अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक के प्रति अधिक उत्साह पैदा नहीं करता है. सरकार कहती है कि संशोधन इन कमियों को दूर करने का उद्देश्य रखता है. यह सरकार को समुचित अधिकार देता है कि वह पीपीपी और लोकहित में चलाई जा रही निजी परियोजनाओं को सहमति और सामाजिक प्रभाव आंकलन जैसे प्रावधानों से छूट मुहैया कराये. यह सुविधा भी पांच अहम क्षेत्रों यानी राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा, ग्रामीण बुनियादी ढांचा और विद्युतीकरण, सस्ते मकान, औद्योगिक कॉरिडोर और पीपीपी आधारित बुनियादी तथा सामाजिक ढांचा योजनाएं, जिनमें भूमि का स्वामित्व सरकार के पास ही रहना है, के लिए ही दी गई है. अन्य प्रमुख संशोधन में प्रस्ताव रखा गया है कि वर्ष 2013 के अधिनियम के तहत हर्जाने और पुनर्वास के प्रावधानों के क्षेत्रों का विस्तार किया जाए, ताकि अधिकाधिक किसान और प्रभावित परिवार इसके दायरे में शामिल हो सकें. ये परिवार फिलहाल इस दायरे से बाहर हैं.
अधर में प्रोजेक्ट!
मोदी सरकार दावा करती रही है कि यूपीए के इस कानून के कारण कई प्रोजेक्ट फंस गए हैं. सवाल यह उठता है कि क्या वाकई भूमि अधिग्रहण के कारण विकास की योजनाएं अटकी पड़ी हैं. उनके पास ज़मीन नहीं है, लेकिन मीडिया में आई ख़बरों पर यकीन करें तो 67 ऐसे प्रोजेक्ट हैं, जिसमें से सिर्फ सात प्रोजेक्ट ही भूमि अधिग्रहण के कारण रुके पड़े हैं. इनकी साझा लागत 53,677 करोड़ ही है. सितंबर 2013 में भूमि विवाद के कारण सिर्फ 12 प्रोजेक्ट में ही बाधा आई थी. जो सात प्रोजक्ट रुके पड़े हैं, उनमें से छह सड़क परियोजनाएं हैं. 60 प्रोजेक्ट पूंजी की कमी से लेकर कई अन्य कारणों के कारण अटके हुए हैं.
कॉरपोरेट लॉबी बिल की समर्थक
कॉरपोरेट लॉबी इस बिल के समर्थन में हां में हां मिला रही है, लेकिन कॉरपोरेट जगत यह भूल जाता है कि ज़मीन आसानी से मिलने भी लगे तो भी देश भर में कारखाने लगाने के लिए बहुत बड़ी पूंजी चाहिए और भारत के पास उतनी पूंजी है नहीं. दूसरी तरफ 2008-09 के बाद अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की माली हालत के कारण विकसित देश निवेश की हालत में नहीं हैं. यानी कुल मिलाकर भूमि अधिग्रहण के बाद भी विकास कार्यों में गति धीमी रहने के आसार हैं.
चार अप्रैल तक इस संशोधित बिल का कानून बनाया जाना ज़रूरी है. अन्यथा अध्यादेश रद्द हो जाएगा. अब राज्यसभा में विपक्ष ने अगर बिल का विरोध जारी रखा तो सरकार को संयुक्त सत्र बुलाना होगा. और वहां बहुमत होने की वजह से सरकार आसानी से अपना काम कर लेगी. उधर, एक और ब़डी समस्या यह है कि किसान संगठन दिल्ली में होने वाली किसान पंचायत की तैयारी में जुटे हैं. सरकार संसद में विपक्ष से तो निपट लेगी, लेकिन किसानों से निपटना आसान नहीं होगा. कुल मिलाकर कहा जाए तो आनेवाले दिनों में सरकार के लिए यह बिल लोहे के चने चबाने के समान है.

भूमि अधिग्रहण पर बवाल
  • वर्ष 2007-08 में पश्‍चिम बंगाल में भूमि अधिग्रहण विरोधी हिंसा में कई लोगों की मौत हो गई थी.
  • टाटा कंपनी को कार कारख़ाना लगाने की योजना रद्द करनी पड़ी थी.
  • इंडोनेशिया के एक बड़े औद्योगिक समूह की योजनाओं पर भी अमल नहीं हो पाया था.
  • जनविरोधों के चलते ही कई वर्षों से दक्षिण कोरियाई कंपनी पॉस्को ओडिशा में दुनिया का सबसे बड़ा स्टील कारख़ाना शुरू नहीं कर पाई है.
  • नक्सली हिंसा की वजह से छत्तीसगढ़ में टाटा और एस्सार कंपनियों की योजनाएं भी अटकी हुई हैं.

मुख्य संशोधन
  • मोदी सरकार बहुफसली भूमि का अधिग्रहण नहीं करेगी. इस प्रावधान से खेती योग्य ज़मीन अधिग्रहण के दायरे में नहीं आएगी. जबकि पहले खेती योग्य जमीन के अधिग्रहण करने की भी बात थी.
  • इंडस्ट्रियल कॉरीडोर के लिए सीमित जमीन लिए जाने का फैसला किया गया है.
  • लोकसभा में पास किए गए बिल के मुताबिक सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए होने वाले अधिग्रहण में किसानों की मंजूरी भी जरूरी होगी.
  • आदिवासी क्षेत्रों में अधिग्रहण के लिए पंचायत की सहमति जरूरी होगी.
  • किसान अधिग्रहण के किसी भी मामले में अपील कर सकेंगे.
  • पहले चले आ रहे भूमि अधिग्रहण कानून में प्रभावित किसानों को मुआवज़ा देने का प्रावधान था, लेकिन किसी को नौकरी नहीं दी जाती थी. संशोधन के बाद लोकसभा में पास हुए बिल में प्रभावित परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी दिए जाने का प्रावधान किया गया है.
  • सरकार ने फैसला कर लिया है कि इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के लिए अब रेलवे ट्रैक और हाईवे के दोनों तरफ एक किलोमीटर तक की जमीन का अधिग्रहण किया जा सकता है. संशोधित भूमि अधिग्रहण बिल के मुताबिक बंज़र ज़मीनों के लिए अलग से रिकॉर्ड रखा जाएगा.

58 दिन,135 खुदकुशी
एक तरफ भूमि अधिग्रहणबिल और दूसरी तरफ प्रकृति की मार झेल रहे किसानों की खुदकुशी के आंकड़े देश में किसानों की दयनीय हालत की कहानी बयां कर रहे हैं. महाराष्ट्र के औरंगाबाद में इस साल के शुरुआती 58 दिनों के भीतर ही 135 किसानों ने खुदकुशी कर ली है. यह जानकारी राज्यसभा में केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री मोहनभाई कुंदरिया ने एक सवाल का जवाब देते हुए दी. पिछले तीन साल (2012, 2013, 2014) में ऐसे 662 किसानों ने आत्महत्या की, जो सरकारी नीति के मुताबिक एक लाख रुपये के मुआवजे के हकदार थे. नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, साल 2012 में किसानी के जरिये जीवन-यापन कर रहे 13,754 और वर्ष 2013 में 11,772 लोगों ने आत्महत्या की. शर्म आनी चाहिए सरकार को कि जिस देश में अधिकांश लोग खेती पर निर्भर हैं, उस देश में किसानों को आत्महत्याएं करनी प़ड रही हैं.

एनटीपीसी के सीएमडी की करतूतें दबाए बैठा है ऊर्जा मंत्रालय : घोटालों का कॉरपोरेशन..!

NTPC
नेशनल थर्मल पाड (एनटीपीसी) ने सरकारी परियोजना के लिए अधिग्रहीत की गई ज़मीन गुपचुप तरीके से बोफोर्स-फेम हिंदुजा समूह को दे दी. सरकार की सिमाद्री परियोजना की सैकड़ों एकड़ ज़मीन हिंदुजा समूह को दे दिए जाने के मामले में ऊर्जा मंत्रालय संदेहास्पद तरीके से चुप्पी साधे बैठा है, जबकि केंद्रीय सतर्कता आयोग ने आवश्यक कार्रवाई के लिए इसे ऊर्जा मंत्रालय को अग्रसारित कर दिया था. यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक को इसकी जानकारी है. एनटीपीसी के चेयरमैन सह प्रबंध निदेशक अरूप रॉय चौधरी ने आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम स्थित सिमाद्री परियोजना की अधिग्रहीत ज़मीन हिंदुजा समूह को देकर क़ानून की तो धज्जियां उड़ाईं ही, एनटीपीसी और देश को भीषण आर्थिक एवं व्यापारिक नुक़सान भी पहुंचाया. 19 जून, 2014 को एनटीपीसी बोर्ड की बैठक में प्रस्ताव पारित कर हिंदुजा समूह को ज़मीन दे दी गई थी.
एनटीपीसी की सिमाद्री परियोजना के लिए क़रीब 3400 एकड़ ज़मीन अधिग्रहीत की गई थी. उसी ज़मीन का बड़ा हिस्सा बिना किसी पूर्व अनुमति के हिंदुजा समूह को दे दिया गया. स्वाभाविक है कि यह काम लाभ-प्रभाव में ही किया गया होगा. एनटीपीसी के सीएमडी अरूप रॉय चौधरी जब नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कॉरपोरेशन (एनबीसीसी) के सीएमडी थे, तब उन्होंने मेसर्स एअरकॉन इंजीनियरिंग सर्विसेज समेत कई अन्य ठेकेदारों से मिलीभगत करके भारत-पाक सीमा पर तारबंदी (फेंसिंग) जैसे संवेदनशील काम में भी घपला किया था. इस आरोप की भी शिकायत सीवीसी और पीएमओ को है. देश की ऊर्जा ज़रूरतों के लिए भारत सरकार अमेरिका के साथ परमाणु करार कर रही है, लेकिन ऊर्जा उत्पादन करने वाला देश का सबसे बड़ा प्रतिष्ठान नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (एनटीपीसी) बिखरने की हालत में है. इस ओर केंद्र सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया गया है. भ्रष्टाचार और अराजकता में घिरा एनटीपीसी बंद न हो जाए, इसके लिए एनटीपीसी के अधिकारियों ने ही भ्रष्ट प्रबंधन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है.
एनटीपीसी के सीएमडी अरूप रॉय चौधरी जब नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कॉरपोरेशन (एनबीसीसी) के सीएमडी थे, तब उन्होंने मेसर्स एअरकॉन इंजीनियरिंग सर्विसेज समेत कई अन्य ठेकेदारों से मिलीभगत करके भारत-पाक सीमा पर तारबंदी (फेंसिंग) जैसे संवेदनशील काम में भी घपला किया था. इस आरोप की भी शिकायत सीवीसी और पीएमओ को भेजी गई है.
एनटीपीसी के चेयरमैन सह प्रबंध निदेशक अरूप रॉय चौधरी के कुप्रबंधन के कारण प्रतिष्ठान को हो रहे नुक़सान के ख़िलाफ़ एनटीपीसी एक्जीक्यूटिव्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (नेफी) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर उनसे सीधे हस्तक्षेप करने की अपील की है. नेफी का कहना है कि एनटीपीसी को बचाने के लिए कंपनी के शीर्ष नेतृत्व में आपातकालीन बदलाव की ज़रूरत है. नेफी एनटीपीसी के एक्जीक्यूटिव अफसरों का अकेला सर्वोच्च प्रतिनिधि संगठन है. नेफी ने प्रधानमंत्री से कहा है कि एनटीपीसी अध्यक्ष सह प्रबंध निदेशक अरूप रॉय चौधरी ने संस्था की बेहतरीन कार्य संस्कृति को नष्ट करके रख दिया है. संस्था के प्रतिबद्ध कार्यपालक अधिकारियों के प्रयासों को अनदेखा किया जा रहा है और पिछले 39 सालों में ऊर्जा उत्पादन के बड़े-बड़े कीर्तिमान स्थापित करने वाले उन अधिकारियों को कंपनी पर एक बोझ की तरह दिखाया जा रहा है. पिछले चार सालों में एनटीपीसी के शीर्ष प्रबंधन ने नेफी को पंगु करने की सारी कोशिशें की हैं और 24 अक्टूबर, 2013 के बाद से तो कोई बैठक भी नहीं बुलाई गई. वह बैठक भी काफी जद्दोजहद के परिणामस्वरूप 33 महीने के बाद हुई थी. इसके पीछे शीर्ष प्रबंधन का इरादा भ्रष्टाचार, अपनी कमजोरियों एवं नाकामियों पर पर्दा डालना है. इस वजह से एनटीपीसी के सारे एक्जीक्यूटिव अफसर खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं और नीतिगत निर्णयों में उन्हें कोई भागीदारी नहीं दी जा रही है.
पिछले चार सालों में एनटीपीसी का जो लाभ आंकड़ों में दिखाया जाता है, वह फर्जी है. उत्पादन में कंपनी लाभ पर नहीं रही, तो अतिरिक्त क्षमता बढ़ाकर उसे लाभ के आंकड़ों में जोड़ दिया गया है. जबकि क्षमता के अनुरूप विद्युत उत्पादन में एनटीपीसी नाकाम हो रहा है. अब देश की प्रथम दस परियोजनाओं में एनटीपीसी का नाम कहीं भी शुमार नहीं है. कोयला घोटाले के गंभीर आरोपों में घिरे एनटीपीसी के पास अब केवल एक ही कोल ब्लॉक पकरी-बरवाडीह है, लेकिन औपचारिक मंजूरियों के बावजूद प्रबंधकीय अकर्मण्यता की वजह से वहां खनन कार्य नहीं हो रहा. देश में खनन के क्षेत्र में बेहतरीन तकनीकी विकास के लिए आस्ट्रेलिया की कंपनी थीस प्राइवेट लिमिटेड से संबद्ध संस्था थीस इंडिया से 30 नवंबर, 2010 को एक करार हुआ था, लेकिन विडंबना यह है कि एनटीपीसी के शीर्ष प्रबंधन ने अनुबंध को एकतरफ़ा समाप्त कर दिया. इस पर केंद्र सरकार ने कोई कार्रवाई भी नहीं की. एनटीपीसी स्वीकृत कोल ब्लॉक से कोयले का खनन नहीं कर रहा, जबकि कोयले की कमी के कारण ही एनटीपीसी की कई महत्वपूर्ण इकाइयां लचर हालत में पहुंच गई हैं और उत्पादन लगातार गिर रहा है. एनटीपीसी का बिहार का कहलगांव बिजलीघर हो या पश्‍चिम बंगाल का फरक्का बिजलीघर या फिर छत्तीसगढ़ के कोरबा, सीपत या बिलासपुर जैसे कई अन्य संयंत्र अपनी उत्पादन क्षमता में लगातार आ रही कमी के कारण चर्चा में हैं.
केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) के आंकड़े भी बताते हैं कि एनटीपीसी के 20 हज़ार मेगावाट क्षमता के बिजली घरों समेत कई अन्य ताप विद्युत घरों के समक्ष उत्पादन में हृास का भारी संकट है. पिछले वित्तीय वर्ष में एनटीपीसी ने 2675 मेगावाट बिजली उत्पादन (कॉमर्शियल) का लक्ष्य रखा था, लेकिन केवल 2003 मेगावाट विद्युत का ही उत्पादन हो सका. वाणिज्यिक बिजली के उत्पादन में लगी इकाइयां अपनी पूर्ण क्षमता से काम नहीं कर रहीं, लेकिन सीएमडी अरूप रॉय चौधरी देश भर में घूम-घूम कर प्रायोजित मेडल और सम्मान बटोरने में मस्त हैं. इसका खामियाजा आख़िरकार देश को ही भुगतना पड़ रहा है. वर्ष 2011-12 के अंत तक विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में निजी कंपनियों की भागीदारी जहां 16 प्रतिशत से बढ़कर 23.4 प्रतिशत हुई थी, वहीं एनटीपीसी की भागीदारी 25.32 प्रतिशत से बढ़कर मात्र 26 प्रतिशत तक पहुंची. इससे प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में एनटीपीसी की अधोगति का आकलन किया जा सकता है. ग़ैर पेशेवर (अन-प्रोफेशनल) रवैये के कारण एक नवंबर, 2014 को जब सेंसेक्स 20,450 पर था, तब एनटीपीसी के शेयर की क़ीमत 219 रुपये थी. दिसंबर 2014 में सेंसेक्स 38 प्रतिशत बढ़कर 27,371 तक पहुंच गया, लेकिन एनटीपीसी का शेयर 38 प्रतिशत कम होकर 135 रुपये पर गिर गया. इससे न केवल कंपनी एवं निवेशकों को आर्थिक क्षति पहुंची, बल्कि शेयर मार्केट में एनटीपीसी की साख को भी ऩुकसान पहुंचा. विडंबना यह भी है कि पिछले चार वर्षों में शुरू की गई किसी भी परियोजना के विस्तारण का काम समय पर नहीं हुआ. यहां तक कि कई साझा परियोजनाएं भी लंबित पड़ी हुई हैं.
पिछले चार सालों में एनटीपीसी का जो लाभ आंकड़ों में दिखाया जाता है, वह फर्जी है. उत्पादन में कंपनी लाभ पर नहीं रही, तो अतिरिक्त क्षमता बढ़ाकर उसे लाभ के आंकड़ों में जोड़ दिया गया है. जबकि क्षमता के अनुरूप विद्युत उत्पादन में एनटीपीसी नाकाम हो रहा है. अब देश की प्रथम दस परियोजनाओं में एनटीपीसी का नाम कहीं भी शुमार नहीं है. कोयला घोटाले के गंभीर आरोपों में घिरे एनटीपीसी के पास अब केवल एक ही कोल ब्लॉक  पकरी-बरवाडीह है, लेकिन औपचारिक मंजूरियों के बावजूद प्रबंधकीय अकर्मण्यता की वजह से वहां खनन कार्य नहीं हो रहा.
नेफी ने प्रधानमंत्री को आगाह करते हुए लिखा है कि वर्ष 2017 तक 43,128 मेगावाट से 75,000 मेगावाट का उत्पादन लक्ष्य पाने के लिए एनटीपीसी को खास ध्यान देना होगा, क्योंकि ज़मीनी हालत यह है कि एनटीपीसी की 30,351 परियोजनाएं 25 साल या उससे भी अधिक पुरानी हैं. एनटीपीसी में नई परियोजनाओं के क्रियान्वयन की ज़रूरत है, लेकिन शीर्ष प्रबंधन का इस पर ध्यान ही नहीं है. लिहाजा इस मामले में प्रधानमंत्री का हस्तक्षेप ज़रूरी हो गया है. प्रबंधकीय अराजकता का यह हाल है कि शीर्ष प्रबंधन के स्तर पर लिए गए फैसलों में कोई स्थायित्व नहीं रहता और अराजकतापूर्ण तरीके से फैसले लिए और खारिज किए जाते हैं. पहली बार अपर महाप्रबंधक (स्थापना) का पद सृजित किया गया, फिर छह महीने बाद ही उसे समाप्त कर दिया गया. प्रबंधन ने अपने अधिकारियों एवं कर्मचारियों को सस्ते मकान देने का वादा किया था. इसके लिए कई भर्तियां कर ली गईं, लेकिन प्रबंधन की तरफ़ से निजी बिल्डरों के बने फ्लैट बाज़ार की क़ीमत पर उपलब्ध कराए जाने लगे. हालत इतनी बदतर हो गई कि बिल्डरों के साथ करार पर एनटीपीसी ने ही होम लोन देने से इंकार कर दिया.
नेफी ने काफी विरोध करके इस योजना पर रोक लगवाई और सदस्यों को अपनी सदस्यता वापस लेने का विकल्प दिलवाया. इसके अलावा ईंधन सुरक्षा (कोल एवं गैस) के संवेदनशील मामले के निपटारे में भी प्रबंधन को घोर विफलता हासिल हो रही है. केंद्रीय इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेशन समिति (सीईआरसी) की 2014-19 के कठोर टैरिफ मानदंडों की नीतिगत वकालत में शीर्ष प्रबंधन की तरफ़ से कमजोरी बरती गई. इसकी वजह से एनटीपीसी को घोर आर्थिक क्षति पहुंच रही है. प्रबंधन मनमाने तरीके से अधिकारियों एवं कर्मचारियों के तबादले कर रहा है, इससे घोर निराशा का माहौल बन गया है. नेफी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राकेश पांडेय ने कहा कि न्याय के सारे रास्ते बंद होने के कारण ही उन्हें प्रधानमंत्री को सीधे पत्र लिखने के लिए विवश होना पड़ा है. एनटीपीसी जैसे महत्वपूर्ण एवं सुविख्यात संस्थान और उसके कार्यपालकों (एक्जीक्यूटिव्स) की स्थिति अत्यंत ही दयनीय हो चुकी है. पांडेय ने कहा कि इस उच्च पेशेवर संस्था में घटिया राजनीति रोपने की कोशिशें हो रही हैं, जिसके तार सीधे सीएमडी कार्यालय से जुड़े पाए गए हैं, जिसे कंपनी के हित में तुरंत रोका जाना चाहिए.

कांग्रेस के चुनाव प्रचार में एनटीपीसी का हेलिकॉप्टर!
कोयला घोटाले का प्रमुख अभियुक्त सरकारी उपक्रम एनटीपीसी पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रचार-प्रसार में जी-जान से जुटा था. सीएमडी के आदेश पर एनटीपीसी के हेलिकॉप्टर सोनिया गांधी के चुनाव प्रचार अभियान में जोर-शोर से लगे हुए थे. गहरा सवाल है कि कोयला घोटाले में फंसे प्रतिष्ठान के हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल सोनिया गांधी क्यों कर रही थीं? एनटीपीसी के हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन से अधिक गंभीर है और यह बड़े घोटाले से जुड़े होने का सूत्र है. लेकिन, विडंबना यह है कि इसकी सूचना होने के बावजूद चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की. एनटीपीसी से भी चुनाव आयोग ने यह नहीं पूछा कि सरकारी उपक्रम होते हुए उसने अपने हेलिकॉप्टर राजनीतिक इस्तेमाल के लिए कैसे दे दिए? एनटीपीसी ने आदर्श चुनाव आचार संहिता का ध्यान रखते हुए इसके लिए आयोग से इजाजत क्यों नहीं ली थी या किसके आदेश से एनटीपीसी प्रबंधन ने अपने हेलिकॉप्टर कांग्रेस को चुनाव प्रचार के लिए दे दिए थे?

जांच जारी थी, फिर कैसे हुआ चयन!
एनटीपीसी के सीएमडी अरूप रॉय चौधरी के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की लंबी फेहरिस्त थी, तो सीएमडी के पद पर उनका चयन कैसे हो गया? प्रमुख समाजसेवी एवं आरटीआई योद्धा महेंद्र अग्रवाल का यह सवाल अब तक अनुत्तरित है. एनटीपीसी के सीएमडी पद के लिए 17 सितंबर, 2009 को जारी विज्ञप्ति द्वारा आवेदन आमंत्रित किए गए थे. इस पद के लिए कुल 25 आवेदन पत्र प्राप्त हुए थे, जिनमें एनटीपीसी में कार्यरत निदेशक (कॉमर्शियल) आईजे कपूर, अधिशासी निदेशक विश्‍वरूप और निदेशक (वित्त) एके सिंघल के साथ-साथ एनबीसीसी के सीएमडी अरूप रॉय चौधरी भी शामिल थे. पूरी मशीनरी अरूप रॉय चौधरी को एनटीपीसी का सीएमडी बनाने पर आमादा थी. इसलिए योग्यता का मापदंड ताख पर रख दिया गया और 25 आवेदकों में से एके सिंघल और अरूप रॉय चौधरी का नाम ही तत्कालीन ऊर्जा मंत्री की स्वीकृति के लिए भेजा गया. रॉय चौधरी की नियुक्ति वैसे ही हुई, जैसे पीजे थॉमस की नियुक्ति केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर हुई थी. आश्‍चर्य यह है कि सीएमडी पद पर चयनित व्यक्ति की पृष्ठभूमि की जांच भी नहीं की गई. रॉय चौधरी जब एनबीसीसी के चेयरमैन थे, तो उसका टर्नओवर लगभग 3,000 करोड़ रुपये था, जबकि एनटीपीसी का टर्नओवर 50 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक था. अरूप रॉय चौधरी के नाम पर मंजूरी की मुहर लगाने वाले तत्कालीन ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे के साथ-साथ शहरी विकास मंत्रालय और एनबीसीसी के सीवीओ संदेह के घेरे में हैं. भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में विजिलेंस क्लियरेंस दिया जाना पूरी तरह संदेहास्पद है. एनटीपीसी के सीएमडी पद के लिए चयन के समय रॉय चौधरी पर भ्रष्टाचार के दो गंभीर मामलों की जांच लंबित थी. एक जांच एनबीसीसी के सतर्कता विभाग के एके कपूर कर रहे थे, जो रॉय चौधरी की आय से अधिक संपति के मामले की थी. दूसरी जांच शहरी विकास मंत्रालय के सीवीओ द्वारा की जा रही थी. इन विभागों से मंजूरी मिलना मिलीभगत की सनद है. एनबीसीसी के सीवीओ रवनीश कुमार एवं शहरी विकास मंत्रालय के सीवीओ आरसी मिश्रा ने कैसे और किस तरह विजिलेंस क्लियरेंस दे दी, यह गहराई से जांच का विषय है. केंद्रीय सतर्कता आयोग भी कहता है कि रॉय चौधरी के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के दो मामले लंबित हैं. रॉय चौधरी पर पुष्प बिहार प्लाजा भवन और एनबीसीसी के गेस्ट हाउस को अवैध तरीके से आवास के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप है. सीवीसी ने एनबीसीसी के सीवीओ से रिपोर्ट भी मांगी थी, लेकिन सीवीओ रवनीश कुमार ने बहाना बनाकर टाल दिया.

भ्रष्टाचार के आरोपों की लंबी फेहरिस्त
समाजसेवी महेंद्र अग्रवाल कहते हैं कि अरूप रॉय चौधरी पर भ्रष्टाचार के आरोपों की लंबी फेहरिस्त है…
1. अरूप रॉय चौधरी ने हावड़ा के मेसर्स आरके मिलन के साथ मिलकर ज़मीन खरीद में एनबीसीसी को 12.12 करोड़ रुपये का नुक़सान पहुंचाया.
2. हरियाणा के गुड़गांव और खेखड़ा, लोनी बॉर्डर पर दो-दो भूमि खंड प्राइवेट पार्टियों से बाज़ार भाव से बहुत महंगे में खरीद कर एनबीसीसी को करोड़ों रुपये का नुक़सान पहुंचाया.
3. मेसर्स एअरकॉन इंजीनियरिंग सर्विसेज और अन्य ठेकेदारों से मिलीभगत कर भारत-पाक सीमा पर हुए बॉर्डर फेंसिंग के काम में घपला किया.
4. विबग्योर टावर प्रोजेक्ट, कोलकाता और नेताजी नगर प्रोजेक्ट में ठेकेदारों को ग़लत तरीके से भुगतान कर कंपनी को भारी नुक़सान पहुंचाया.
5. नॉर्थ-ईस्ट में मेसर्स एसके बिल्डर्स (मिजोरम), मेसर्स जादुमनी सिंह (मिजोरम), मेसर्स वीएमजी (मिजोरम), मेसर्स जीएस अग्रवाल (मिजोरम), मेसर्स जेसी कॉरपोरेशन (मेघालय एवं मिजोरम) के साथ मिलीभगत कर करोड़ों रुपये का ग़लत भुगतान कर उन कंपनियों को रॉय चौधरी ने बेजा फ़ायदा पहुंचाया.
6. एनबीसीसी गेस्ट हाउस 15-ए, सेक्टर 30, नोएडा को ग़लत तरीके से आवास के रूप में इस्तेमाल किया गया, जिस पर 2,11,902 रुपये की रिकवरी बनी थी, लेकिन दबाव डालकर उसे वेव-ऑफ (मा़फ ) करा लिया गया. सीवीसी की जांच चल रही थी.
7. बिहार में पटना के कंकड़बाग प्रोजेक्ट में भी काफी घोटाला किया गया. इस वजह से बिहार सरकार ने पांच सौ करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट एनबीसीसी से वापस ले लिया था. प्रोजेक्ट में डेनेज निर्माण आदि का काम था. घटिया निर्माण और घटिया सामग्री के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने स्थलीय निरीक्षण कर रिपोर्ट दर्ज कराने का आदेश दिया था. अनीसाबाद-फुलवारी शरीफ मुख्य मार्ग, पत्रकार नगर थाना क्षेत्र के मलाही पकड़ी में ड्रेनेज निर्माण, सड़क, सीवरेज, जलापूर्ति, कचरा प्रबंधन के नेहरू मिशन प्रोजेक्ट के 500 करोड़ रुपये का काम एनबीसीसी से वापस ले लिया गया था.
8. दिल्ली के साकेत (पुष्प विहार) में सामाजिक कार्यों मसलन, पोस्ट ऑफिस, समाज सदन आदि के निर्माण के लिए शहरी विकास मंत्रालय ने एनबीसीसी को ज़मीन दी थी. रॉय चौधरी ने उस ज़मीन पर कार्यालय और व्यवसायिक केंद्र का निर्माण कराकर आयकर और कस्टम एक्साइज विभाग को बेच दिया.
9. नेताजी नगर, चाणक्यपुरी दिल्ली में शहरी विकास मंत्रालय की ज़मीन लीला होटल्स को ग़लत ढंग से बेचने और मोटी रकम बतौर कमीशन खाने का आरोप.
10. रांची, कोलकाता, फरीदाबाद, बसंतकुंज, बसंत विहार, डिफेंस कालोनी एवं चितरंजन पार्क सहित अनेक स्थानों पर बेनामी संपतियां. विदेशों में भी कई बेनामी संपतियों के अलावा अरबों का निवेश.
11. उत्तर प्रदेश के अमेठी संसदीय क्षेत्र में जगदीशपुर स्थित स्टील अथॉरिटी आफ इंडिया की मालविका स्टील फैक्ट्री बंद कराकर बिना किसी प्रस्ताव के तापीय परियोजना का राहुल गांधी से शिलान्यास कराने के लिए करोड़ों रुपये बर्बाद करने का आरोप.
12. सिंगरौली विद्युत गृह की ऐश पॉन्ड में जमा राख को एनसीएल की खाली पड़ी कोयला खदानों में भरने के लिए ढुलाई के टेंडर के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपये खाने का आरोप.
13. कंपनी के उत्तरी क्षेत्र मुख्यालय में महाप्रबंधक- कार्मिक उज्ज्वल बनर्जी, सिंगरौली परियोजना के एसके राय एवं दिनेश राय जैसे अनेक भ्रष्ट अधिकारियों को खुला संरक्षण देने का आरोप.
महेंद्र अग्रवाल कहते हैं कि रॉय चौधरी पर नियुक्तियों में भी घपला करने के कई आरोप हैं और ठेके देने में भी भारी अनियमितताएं करने की शिकायतें हैं. लिहाजा रॉय चौधरी और उनकी चौकड़ी में शामिल अधिकारियों के कारनामों की शीघ्र जांच कराकर देश के सबसे बड़े प्रतिष्ठान को भ्रष्टाचार के दलदल से बाहर निकालना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्राथमिक दायित्व होना चाहिए.

कोयला नहीं, कई घोटालों में लिप्त है एनटीपीसी
कोयला घोटाले में एनटीपीसी और उसकी सखा-संस्था एनएसपीसीएल के ख़िलाफ़ सीबीआई ने मुकदमा दर्ज कर रखा है. कोल ब्लॉक का आवंटन होने के बावजूद एनटीपीसी विदेशों से घटिया कोयला महंगे आयातित दर पर खरीद रहा था. सीबीआई ने इस मामले में एनटीपीसी के सीएमडी को अभियुक्त नहीं बनाया. जिन दो अधिकारियों को मुख्य अभियुक्त बनाया गया, वे दोनों सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली के ऊंचाहार स्थित एनटीपीसी प्रतिष्ठान के शीर्ष अधिकारी रहे हैं. इनमें से एक एके श्रीवास्तव ऊंचाहार स्थित प्रतिष्ठान के प्रमुख रहे हैं, तो दूसरे उमा शंकर वर्मा उसी प्रतिष्ठान में डिप्टी मैनेजर. ये दोनों अधिकारी इंदौर, कोलकाता एवं इंडोनेशिया की कंपनियों के साथ आपराधिक साठगांठ करके घटिया कोयले का आयात कर रहे थे. सीबीआई ने दूसरा मुकदमा भी एनटीपीसी की सहायक संस्था एनटीपीसी सेल पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (एनएसपीसीएल) के शीर्ष अफसरों और कुछ कंपनियों पर ठोंका है. दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों से घटिया कोयला भी सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र स्थित ऊंचाहार एनटीपीसी में ही गिर रहा था. मात्र दो साल की अवधि में 116 करोड़ सात लाख 94 हज़ार 162 रुपये का घपला हुआ. समझा जा सकता है कि शीर्ष अधिकारियों की मिलीभगत के बगैर इतना बड़ा घपला नहीं हो सकता. घोटालों और भ्रष्टाचार के अन्य मामलों में भी एनटीपीसी बुरी तरह घिरा हुआ है. अभी कुछ ही दिनों पहले छत्तीसगढ़ में एनटीपीसी के बिजलीघर के लिए ज़मीनों की अवैध खरीद-बिक्री का मामला उजागर हुआ था.  छत्तीसगढ़ के पुसौर ब्लॉक में लगने वाले एनटीपीसी के चार हज़ार मेगावाट पावर प्लांट के नाम पर ज़मीनों की अवैध खरीद-बिक्री का धंधा हुआ. लारा सहित आधा दर्जन से अधिक गांवों में हुई रजिस्ट्रियों की जांच से सात हज़ार से भी अधिक ऐसे खाते सामने आए हैं, जिनमें पांच सौ करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि फर्जी मुआवजे के रूप में बांट दी गई. इस घोटाले में एनटीपीसी के अधिकारी से लेकर दलाल तक शामिल थे. ज़मीन की खरीद-बिक्री में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड एवं मध्य प्रदेश तक के लोग शामिल हैं. जांच में क़रीब 15 सौ फर्जी रजिस्ट्रियां पकड़ी गईं. जांच में यह तथ्य सामने आया कि ज़मीन घोटाले में एनटीपीसी के अधिकारी भी शामिल हैं. एनटीपीसी ज़मीन घोटाले की सीबीआई भी जांच कर रही है. एनटीपीसी में सैकड़ों करोड़ रुपये का पीएफ घोटाला भी सुर्खियों में आ चुका है.

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