गर्भवती कर्मचारियों से क्यों होता है भेदभाव?
लेकिन टीवी कंपनी का कहना है कि पत्रकार को ख़राब काम की वजह से बाहर किया गया था.
महिला को श्रम मामलों से जुड़ी दो अदालतों से राहत मिल चुकी है. टीवी कंपनी ने कहा है कि वह इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करेगी.
हालांकि ये शायद पहला केस नहीं है जिसमें किसी महिला के श्रम अधिकारों का हनन हुआ है लेकिन इस मामले पर महिलाओं का कोर्ट जाना आम नहीं है.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ में प्रोफ़ेसर पद्मिनि स्वामीनाथन ने मेटर्निटी बेनेफ़िट्स क़ानून पर एक शोध में महिलाओं को मेटर्निटी की छुट्टी न दिए जाने के कारण ढूंढें.
उन्होंने पाया कि कभी महिलाओं को 'कैज़ुअल', 'डेली' या 'ऐडहॉक' नियुक्त किए जाने की वजह से, कभी 'एपॉइंटमेंट लेटर' में बदलाव कर और कभी वेतन का मासिक होने की बजाय एक-मुश्त दिए जाने की बिनाह पर मेटर्निटी लीव नहीं दी जाती है.
पद्मिनि ने पाया कि कुछ मामलों में तो छुट्टी की अर्ज़ी का जवाब बर्ख़ास्त करने की चिट्ठी से दिया गया, और जब ऐसे मामले अदालत तक ले जाए गए तो महिला के हक़ में फ़ैसला आया.
पद्मिनि कहती हैं, "क़ानून बहुत अच्छा है, लेकिन अक़्सर कंपनियां अपने नियमों को क़ानून के ऊपर रखकर इसका पालन नहीं करतीं."
वो कहती है कि एक छोटे बच्चे का पालन पोषण कर रही औरत के भीतर इस तरह की वित्तीय और मानसिक ताक़त नहीं होती कि वो सालों-साल चलने वाली अदालती कारवाई को झेल सके. इसलिए वो ख़ामोश रह जाती है.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "मेरे बेटे के जन्म के बाद जब मैं वापस लौटी तो मुझे नौकरी पर वापस भी नहीं रखा गया, पहले तो बहुत वादे किए गए थे और मुझे इतना भरोसा था कि मैंने लिखित में कोई आश्वासन नहीं लिया."
अंजलि भूषण जब गर्भवती हुईं तो दिल्ली की एक मल्टीनेशनल के एचआर विभाग में काम कर रही थीं.
बड़ी कंपनी में उन्हें मेटर्निटी की छुट्टी तो मिली पर तीन महीने ख़त्म होने के बाद जब उनके डॉक्टर ने कुछ दिन और छुट्टी पर रहने को कहा, उनकी कंपनी ने मना कर दिया.
अंजलि मानती हैं कि क़ानून 'मिनिमम' सुरक्षा देता है जबकि बच्चा पैदा होने के बाद एक कामकाजी महिला को अपनी कंपनी से और मदद और सहानुभूति की ज़रूरत होती है.
उनके मुताबिक, "इसके ठीक उलट जब मां बनने के बाद आप दफ़्तर जाती हैं, तो आपको कम ज़िम्मेदारी वाले काम दिए जाते हैं, क्योंकि आप देर शाम तक दफ़्तर में रुक नहीं सकतीं, आपको एक कमज़ोर कड़ी के रूप में देखा जाने लगता है."
अंजलि के मुताबिक इसकी जगह अगर कंपनी क्रेच की सुविधा दे या घर से काम करने का उपाय करे तो ये उन जैसी महिलाओं के करियर में मदद करेगा. लेकिन इस तरह के क़दम कुछ बड़ी कंपनियां ही उठा रही हैं.
अग्रवाल के मुताबिक़ अगर कोई महिला मां बनने वाली हो या हाल में मां बनी हो तो कुछ नौकरियों के लिए इसको ध्यान में रखा जाता है.
वह कहते हैं, "महिलाओं का ऐसा महसूस करना कि भेदभाव किया जा रहा है, ग़लत नहीं है. यह एक बड़ी चुनौती है, बड़ी कंपनियों में महिलाओं की ज़रूरतों के बारे में सोचा जाने लगा है लेकिन मध्य स्तर की कंपनियों की सोच ऐसी नहीं है और न ही उनके पास इस तरह की सुविधा देने के लिए वित्तीय क्षमता है."
राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाक़ों में 1,000 कामकाजी महिलाओं के साथ किए गए एक सर्वे में पाया गया कि बच्चा होने के बाद सिर्फ़ 18 से 34 प्रतिशत महिलाएं ही काम पर लौटीं.
वीवी गिरी लेबर इंस्टीट्यूट में प्रोफ़ेसर शशि बाला के इस शोध में कपड़ा और स्वास्थ्य क्षेत्र के साथ-साथ ज़्यादा प्रशिक्षण वाली इन्फरमेशन टेकनॉलॉजी के क्षेत्र में काम कर रहीं महिलाओं से बातें की गईं.
उन्होंने पाया कि ज़्यादा समृद्ध वर्ग वाली महिलाएं जो क्रेच जैसी सुविधाओं पर ख़र्च कर सकती हैं, उनकी काम पर लौटने की दर ज़्यादा है, और सभी वर्गों में अब भी परिवार ही बच्चे की देखरेख का माध्यम है.
वर्ल्ड बैंक के मुताबिक भारत में 15 साल से ऊपर की जितनी महिलाएं काम करने योग्य हैं उनमें से सिर्फ़ 27 प्रतिशत काम कर रही हैं.
ब्रिक समूह के देशों, (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ़्रीका) में यह सबसे कम और चीन में सबसे ज़्यादा, 64 प्रतिशत है.
भारत की 2011 की जनगणना के मुताबिक़ महिलाओं के काम करने की यह दर भारत के शहरी इलाकों में सिर्फ़ 15 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण इलाकों में उससे दोगुनी 30 प्रतिशत.
महाराष्ट्र की एक अदालत ने एक टीवी चैनेल को आदेश दिया है कि 'गर्भवती
होने के बाद कंपनी की नौकरी से निकाली गईं' पत्रकार को वापस काम पर रखा जाए
और बक़ाया वेतन भी दिया जाए.
पत्रकार ने अदालत से गुहार की थी कि
उन्हें साल 2012 में गर्भवती होने के कुछ समय बाद ही कंपनी से निकाल दिया
गया था. उनका दावा था कि ऐसा उनके गर्भवती होने की वजह से हुआ.लेकिन टीवी कंपनी का कहना है कि पत्रकार को ख़राब काम की वजह से बाहर किया गया था.
महिला को श्रम मामलों से जुड़ी दो अदालतों से राहत मिल चुकी है. टीवी कंपनी ने कहा है कि वह इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करेगी.
हालांकि ये शायद पहला केस नहीं है जिसमें किसी महिला के श्रम अधिकारों का हनन हुआ है लेकिन इस मामले पर महिलाओं का कोर्ट जाना आम नहीं है.
क़ानून है, छुट्टी नहीं
श्रम मंत्रालय की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक साल 2012 में मेटर्निटी बेनिफिट क़ानून के तहत देशभर में 122 शिकायतें दर्ज की गईं, पांच की तहक़ीक़ात हुई और दो में संस्था या कंपनी को दोषी पाया गया.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ में प्रोफ़ेसर पद्मिनि स्वामीनाथन ने मेटर्निटी बेनेफ़िट्स क़ानून पर एक शोध में महिलाओं को मेटर्निटी की छुट्टी न दिए जाने के कारण ढूंढें.
उन्होंने पाया कि कभी महिलाओं को 'कैज़ुअल', 'डेली' या 'ऐडहॉक' नियुक्त किए जाने की वजह से, कभी 'एपॉइंटमेंट लेटर' में बदलाव कर और कभी वेतन का मासिक होने की बजाय एक-मुश्त दिए जाने की बिनाह पर मेटर्निटी लीव नहीं दी जाती है.
पद्मिनि ने पाया कि कुछ मामलों में तो छुट्टी की अर्ज़ी का जवाब बर्ख़ास्त करने की चिट्ठी से दिया गया, और जब ऐसे मामले अदालत तक ले जाए गए तो महिला के हक़ में फ़ैसला आया.
पद्मिनि कहती हैं, "क़ानून बहुत अच्छा है, लेकिन अक़्सर कंपनियां अपने नियमों को क़ानून के ऊपर रखकर इसका पालन नहीं करतीं."
वो कहती है कि एक छोटे बच्चे का पालन पोषण कर रही औरत के भीतर इस तरह की वित्तीय और मानसिक ताक़त नहीं होती कि वो सालों-साल चलने वाली अदालती कारवाई को झेल सके. इसलिए वो ख़ामोश रह जाती है.
क्या कहता है कानून
- मेटर्निटी बेनिफ़िट क़ानून गर्भवती महिला को तीन महीने के वेतन सहित छुट्टी का अधिकार देता है. शर्त यह कि छुट्टी पर जाने से पहले महिला ने 80 दिन तक उस जगह काम किया हो.
- क़ानून में महिला कर्मचारी के गर्भवती होने के दौरान नौकरी से निकाले जाने के बारे में भी कड़े प्रावधान हैं. इसके मुताबिक़ गर्भधारण की घोषणा के बाद नौकरी से निकाले जाने को सामान्य परिस्थिति नहीं माना जा सकता.
- यह क़ानून सरकारी और निजी क्षेत्र की नियमित और अस्थाई सभी महिला कर्मचारियों पर समान रूप से लागू होता है.
- मेटर्निटी बेनेफ़िट्स क़ानून महिला कर्मचारी को न्यूनतम सुविधा या सुरक्षा प्रदान करता है. इसके बाद सरकार, कंपनी या संस्था उसे और सुविधाएं देने के लिए स्वतंत्र है.
'नई मां – कमज़ोर कड़ी'
स्वागतिका दास दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में 'ऐडहॉक' शिक्षिका के पद पर काम कर रही थीं और इसी वजह से गर्भवती होने के बाद उन्हें वेतन सहित तीन महीने की छुट्टी नहीं दी गई.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "मेरे बेटे के जन्म के बाद जब मैं वापस लौटी तो मुझे नौकरी पर वापस भी नहीं रखा गया, पहले तो बहुत वादे किए गए थे और मुझे इतना भरोसा था कि मैंने लिखित में कोई आश्वासन नहीं लिया."
अंजलि भूषण जब गर्भवती हुईं तो दिल्ली की एक मल्टीनेशनल के एचआर विभाग में काम कर रही थीं.
बड़ी कंपनी में उन्हें मेटर्निटी की छुट्टी तो मिली पर तीन महीने ख़त्म होने के बाद जब उनके डॉक्टर ने कुछ दिन और छुट्टी पर रहने को कहा, उनकी कंपनी ने मना कर दिया.
अंजलि मानती हैं कि क़ानून 'मिनिमम' सुरक्षा देता है जबकि बच्चा पैदा होने के बाद एक कामकाजी महिला को अपनी कंपनी से और मदद और सहानुभूति की ज़रूरत होती है.
उनके मुताबिक, "इसके ठीक उलट जब मां बनने के बाद आप दफ़्तर जाती हैं, तो आपको कम ज़िम्मेदारी वाले काम दिए जाते हैं, क्योंकि आप देर शाम तक दफ़्तर में रुक नहीं सकतीं, आपको एक कमज़ोर कड़ी के रूप में देखा जाने लगता है."
अंजलि के मुताबिक इसकी जगह अगर कंपनी क्रेच की सुविधा दे या घर से काम करने का उपाय करे तो ये उन जैसी महिलाओं के करियर में मदद करेगा. लेकिन इस तरह के क़दम कुछ बड़ी कंपनियां ही उठा रही हैं.
कैसे होती है प्लेसमेंट?
भारत की सबसे बड़ी प्लेसमेंट एजंसियों में से एक 'एबीसी कनसलटेंट्स' के मैनेजिंग डायरेक्टर शिव अग्रवाल बताते हैं कि विदेश से अलग भारत में इंटरव्यू के स्तर पर महिलाओं से उनके परिवार और शादी के बारे में जानकारी मांगी जाती है.अग्रवाल के मुताबिक़ अगर कोई महिला मां बनने वाली हो या हाल में मां बनी हो तो कुछ नौकरियों के लिए इसको ध्यान में रखा जाता है.
वह कहते हैं, "महिलाओं का ऐसा महसूस करना कि भेदभाव किया जा रहा है, ग़लत नहीं है. यह एक बड़ी चुनौती है, बड़ी कंपनियों में महिलाओं की ज़रूरतों के बारे में सोचा जाने लगा है लेकिन मध्य स्तर की कंपनियों की सोच ऐसी नहीं है और न ही उनके पास इस तरह की सुविधा देने के लिए वित्तीय क्षमता है."
राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाक़ों में 1,000 कामकाजी महिलाओं के साथ किए गए एक सर्वे में पाया गया कि बच्चा होने के बाद सिर्फ़ 18 से 34 प्रतिशत महिलाएं ही काम पर लौटीं.
वीवी गिरी लेबर इंस्टीट्यूट में प्रोफ़ेसर शशि बाला के इस शोध में कपड़ा और स्वास्थ्य क्षेत्र के साथ-साथ ज़्यादा प्रशिक्षण वाली इन्फरमेशन टेकनॉलॉजी के क्षेत्र में काम कर रहीं महिलाओं से बातें की गईं.
उन्होंने पाया कि ज़्यादा समृद्ध वर्ग वाली महिलाएं जो क्रेच जैसी सुविधाओं पर ख़र्च कर सकती हैं, उनकी काम पर लौटने की दर ज़्यादा है, और सभी वर्गों में अब भी परिवार ही बच्चे की देखरेख का माध्यम है.
भारत में कम कामकाजी महिलाएं
अंजलि कहती हैं कि शहरों में बदलते रहन-सहन के साथ अब परिवार का सहारा भी कम होता जा रहा है. ऐसे में कंपनियों की ओर से इस क्षेत्र में पहल और भी ज़रूरी है वर्ना कामकाजी महिलाओं की संख्या और गिरती जाएगी.
वर्ल्ड बैंक के मुताबिक भारत में 15 साल से ऊपर की जितनी महिलाएं काम करने योग्य हैं उनमें से सिर्फ़ 27 प्रतिशत काम कर रही हैं.
ब्रिक समूह के देशों, (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ़्रीका) में यह सबसे कम और चीन में सबसे ज़्यादा, 64 प्रतिशत है.
भारत की 2011 की जनगणना के मुताबिक़ महिलाओं के काम करने की यह दर भारत के शहरी इलाकों में सिर्फ़ 15 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण इलाकों में उससे दोगुनी 30 प्रतिशत.
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