मंगलवार, 3 मार्च 2015

रिकॉर्ड अनाज उत्पादन के बावजूद देश का हर चौथा आदमी भूखा क्यों है?

रिकॉर्ड अनाज उत्पादन के बावजूद देश का हर चौथा आदमी भूखा क्यों है?

जय पुष्प
कागज पर छपे हुए बड़े-बड़े आँकड़ों से अगर पेट भर सकता तो यह देश के हर भूखे नागरिक के लिए ख़ुशी का समय होता। कृषि मन्त्री शरद पवार ने हाल ही में बताया कि इस वर्ष (2011-12 के दौरान) देश में 2500 लाख टन का रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन होने वाला है। पर बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है। सच्चाई यह है कि पिछले पाँच वर्षों के दौरान देश में खाद्यान्न का उत्पादन नित नयी ऊचाइयाँ छूता गया है। आज़ादी के तुरन्त बाद 1950 में जहाँ देश में 500 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था वहीं 1990 में देश में खाद्यान्न का उत्पादन 1750 लाख टन पहुँच गया और 2011-12 में तो खाद्यान्न का उत्पादन इतना बढ़ जाने का अनुमान है (2500 लाख टन) कि इस भण्डार को रखने के लिए गोदामों की सख्त कमी महसूस हो रही है।
मगर अफ़सोस कि आँकड़ों से पेट नहीं भरता, वरना देश का हर चौथा नागरिक भूखे पेट क्यों सोता! बड़ी अजीब स्थिति है कि एक तरफ देश में खाद्यान्न का उत्पादन रिकॉर्ड स्तरों को छू रहा है वहीं दूसरी तरफ देश की एक चौथाई आबादी को पेट भर भोजन नहीं मिल पा रहा है और लगभग आधी आबादी कुपोषण का शिकार है, हर तीसरी औरत में ख़ून की कमी है और हर दूसरे बच्चे का वज़न सामान्य से कम है। पर इससे भी अधिक हैरत की बात यह है कि बिल्कुल उसी दौरान (1990 से 2012 तक) जबकि देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ता गया है, देश के नागरिकों को खाद्यान्न की उपलब्धता घटती गयी है। कहने को आज हर शहर के गली-चौराहे में पिज्ज़ा-बर्गर-मोमो की दूकानें खुल गयी हैं लेकिन 20 साल पहले की तुलना में आज देश के एक औसत नागरिक की थाली छोटी हो गयी है। 1990 में जहाँ देश के एक औसत नागरिक को 480.3 ग्राम भोजन मिलता था वहीं 2010 में उसे सिर्फ़ 440.4 ग्राम भोजन नसीब हो पा रहा है।
(देखें तालिका)
प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता के पंचवर्षीय आँकड़े
आर्थिक सुधारों के पहले
वर्ष                    खाद्यान्न उपलब्धता
1972-76             433.7 ग्राम
1977-81             460.8 ग्राम
1982-86             460.8 ग्राम
1987-91             480.3 ग्राम
आर्थिक सुधारों के बाद
1982-96             474.9 ग्राम
1997-2001                     457.3 ग्राम
2002-06             452.4 ग्राम
2007-10*                       440.4 ग्राम
* 2010 तक के आँकड़े ही उपलब्ध हैं।
‘द हिन्दू’ (13 अप्रैल 2012) के सौजन्य से
fci_godown Child searches for valuables in a garbage dump in New Delhi
खाद्यान्न की उपलब्धता की स्थिति की गम्भीरता सिर्फ इसी में निहित नहीं है कि खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में कमी आयी है। ज्यादा गम्भीर बात यह है कि 1990 में उदारीकरण की नीतियों के लागू किये जाने के बाद से हर पाँच साल में खाद्यान्न की उपलब्धता लगातार घटती चली गयी है। 1976 से 1990 के पाँच वर्षों में (जबकि उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई थी) देश में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 480.3 ग्राम थी। 1992 से 1996 के चार वर्षों में यह घटकर 474.9 ग्राम हो गयी, 1997-2011 में 457.3 ग्राम, 2002-06 में 452.4 ग्राम और 2007-2010 में और भी घटकर 440.4 ग्राम हो गयी। ये आँकड़े एक रुझान बताते हैं कि जबसे उदारीकरण की नीतियाँ लागू होनी शुरू हुई हैं तबसे लोगों के पेट पर लात पड़ती जा रही है और समय बीतने के साथ इसकी मार और भी तगड़ी होती जा रही है।
इस स्थिति की तुलना अगर उदारीकरण के पहले की स्थिति से करें तो इसकी गम्भीरता का अहसास और भी गहराई से किया जा सकता है। 1990 में आर्थिक सुधारों से पहले के बीस वर्षों की अवधि पर नजर डालें तो देखा जा सकता है कि 1972 से 1991 के बीच हर पाँच साल में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता लगातार बढ़ती जा रही थी। 1972-76 के बीच जहाँ प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता 433.7 ग्राम थी, वहीं 1977-81 के दौरान 447.9 ग्राम, 1982-86 के दौरान 460.8, ग्राम और 1987-91 के दौरान 480.3 ग्राम थी। यानी कि उदारीकरण से पहले जहाँ हर पाँच में लोगों को खाद्यान्न की उपलब्धता में इजाफा होता गया था वहीं उदारीकरण के 20 वर्षों में यह कम से कमतर होता चला गया है और आज अपने निम्नतम स्तर पर पहुँच गया है।
आँकड़ों द्वारा प्रस्तुत सच्चाई की तस्वीर का एक दूसरा पहलू यह है कि आज देश के औसत नागरिक को उतना भी खाने को नहीं मिल रहा है जितना पचास साल पहले मिलता था। जबकि उस समय देश में हरित क्रान्ति की शुरुआत भी नहीं हुई थी। 1960 में जहाँ खाद्यान्न उपलब्धता का औसत 446.9 ग्राम था वह आज सिर्फ 440.4 ग्राम रह गया है। एक तरफ तो देश आर्थिक महाशक्ति बनकर उभर रहा है और आणविक हथियार ढोने की क्षमता वाली मिसाइलें दाग रहा है वहीं दूसरी तरफ भुखमरी और कुपोषण के मामले में हमारा स्थान दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में शुमार होता है। यहाँ तक कि पाकिस्तान और बंगलादेश तो छोड़िये अफ्रीकी महाद्वीप के कई देश भी अपने लोगों को हमसे बेहतर और ज्यादा भोजन मयस्सर करा पा रहे हैं।
आँकड़ों से पेट तो नहीं भर सकता, लेकिन आँकड़ों से हमें वह सच्चाई दिखती है जिसे छिपाने की तमाम कोशिशों में पूँजीवादी सरकारें लगी रहती हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब योजना आयोग के उपाध्यक्ष और प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के ख़ासमख़ास मोण्टेक सिंह अहलुवालिया ने बहुत ज़ोर देकर कहा था कि देश की स्थिति चाहे जैसी भी हो लेकिन यह एक अटल सत्य है कि देश में ग़रीबी कम हुई है। लेकिन ऊपर बताये गये आँकड़े जो सरकार के ही एक प्रकाशन (आर्थिक सर्वेक्षण 2011-12) से लिये गये हैं मोण्टेक सिंह के झूठ को तार-तार कर देते हैं। किसी को बहुत बड़ा गणितज्ञ होने की जरूरत नहीं है, इन आँकड़ों को देखकर कोई साधरण आदमी भी देश के ग़रीब लोगों की दुर्दशा का अन्दाज़ा लगा सकता है।
1990 से देश में लागू आर्थिक सुधारों की नीतियों ने एक तरफ जहाँ गरीबों के मुँह का निवाला छीन लिया है वहीं दूसरी तरफ ख़ुशहाल मध्य और उच्च मध्यवर्ग का एक छोटा तबका भी अस्तित्व में आया है जो जितना खाता है उससे ज्यादा बर्बाद करता है। फाइव स्टार होटलों से लेकर मैक्डोनाल्ड और पित्जा हट तक दुनिया के सभी नामचीन ब्राण्ड आज भारत के इस छोटे से अमीर तबके की सेवा में दिन-रात खुले रहते हैं। एक तरफ देश के आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं वहीं दूसरी तरफ यह अमीर तबका और इस तबके के बच्चे मोटापे से परेशान है। पहले तो ये लोग ठूँस-ठूँस कर खाते हैं और फिर वज़न घटाने के लिए कभी जिम की ओर भागते हैं तो कभी डॉक्टर की ओर तो कभी योग गुरुओं की ओर। आज हमारे समाज में ये दो विरोधी स्थितियाँ एकसाथ मौजूद हैं। एक तरफ बदहाली और तंगहाली का सागर है तो दूसरी तरफ विलासिता और अश्लील-अराजक भोगवाद की मीनारें हैं।
देश में खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन हो रहा है लेकिन फिर भी लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। देश में हर साल बहुत सारा अनाज बर्बाद हो जाता है। जब उच्चतम न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि अनाज को बर्बाद करने के बजाय वह उसे गरीबों में बाँट दे तो हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यह बात बहुत नागवार गुज़री थी। उनका कहना था कि अनाज मुफ्त बाँटने से अनाज उत्पादक हतोत्साहित हो जायेंगे। अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री को भूख से मरने वाले लोगों की नहीं बल्कि अनाज पैदा करने वाले बड़े पूँजीपति किसानों की ज्यादा चिन्ता थी। आज भी देश में खाद्यान्न के भण्डारण की समुचित व्यवस्था नहीं है और लगभग आधा अनाज आज भी खुले में रखा जाता है जहाँ कुछ हिस्सा सड़-गल जाता है तो कुछ चूहों के पेट में चला जाता है। सरकार मानती है कि देश में हर साल कुल उत्पादन का 10 प्रतिशत हिस्सा बेकार हो जाता है। यानी कि लगभग 58000 करोड़ रुपये की खाद्य सामग्री उचित भण्डारण सुविधा न होने के कारण बर्बाद हो जाती है।
एक कवि ने कहा है कि ‘गर थाली आपकी खाली है तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे?’ आज बहुत चिन्ता के साथ इस विषय पर सोचा जाना चाहिए कि गोदामों में अनाज ठूँसा हुआ है और फिर भी लोग भूख से मर रहे हैं तो इसका ज़िम्मेदार कौन है? यह भी सोचना चाहिए कि उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से जबकि देश में अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है तो देश का हर चौथा आदमी भूखा क्यों है और देश का हर दूसरा बच्चा कुपोषित क्यों है? उसी कविता में कवि ने यह भी कहा है कि ‘ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उल्टा’।
शहीदे आजम भगतसिंह ने भी तो यही सन्देश दिया है, ‘अगर कोई सरकार जनता को उसके बुनियादी अधिकारों से वंचित करती है तो उस देश के नौजवानों का हक़ ही नहीं बल्कि कर्तव्य बन जाता है कि ऐसी सरकार को पलट दें या तबाह कर दें’।

मज़दूर बिगुलमई 2012

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