महाराष्ट्र में आदिवासियों के कल्याण के नाम पर चल रही पाठशालाएं
भ्रष्टाचार, बच्चों की अकाल मौत और यौन शोषण के अड्डे के रूप में उभर रही
हैं.
जुलाई 2012 में गोंदिया जिले के मक्कड़घोड़ा क्षेत्र की एक आश्रमशाला में जमीन पर सो रहे छह बच्चों को सांप ने काट लिया. इनमें से दो बच्चों की मौत हो गई. शाला में पलंगों की कमी के चलते ये बच्चे जमीन पर सोने को मजबूर थे. इस आश्रमशाला की कुल क्षमता 384 है, इनमें से 150 बच्चे पलंगों के आभाव में जमीन पर सोते हैं.
दिसंबर 2012 में नासिक जिले की एक आश्रमशाला के प्रांगण में एक 18 वर्षीय आदिवासी बालिका के सामूहिक बलात्कार का मामला सामने आया था, जिसके बाद शाला में कार्यरत अधीक्षक समेत 15 लोगों को निलंबित कर दिया गया था. ये सभी 15 आरोपित कर्मचारी ड्यूटी के वक्त आश्रमशाला से नदारद थे, जबकि नियमों के अनुसार बच्चों की सुरक्षा के लिहाज से अधीक्षक को स्थायी रूप से आश्रमशाला में रहना चाहिए.
जनवरी 2009 में पालघर जिले के गोवडे नामक गांव की एक आश्रमशाला में 15 वर्षीय बालिका के गर्भवती होने का मामला उजागर हुआ था. बाद में पता चला कि शाला अधीक्षक ने आदिवासी छात्रा की पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने का लालच देकर उसका यौन शोषण किया था.
इन आश्रमशालाओं की वास्तविकता से रूबरू होने के लिए तहलका ने महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल नंदुरबार जिले का दौरा किया. आदिवासी जनसंख्या के हिसाब से नंदुरबार महाराष्ट्र का सबसे बड़ा जिला है, यहां की 70 फीसदी आबादी आदिवासी है, इस जिले में भील, तडवी और पावरा समुदाय के आदिवासियों की बहुलता है.
सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला के बीच स्थित अक्कलकुवा तहसील के दहेल गांव की एक आश्रमशाला का नजारा विचित्र था. 14 नवंबर की सुबह करीब साढ़े दस बजे 12 साल की दो लड़कियां उस झोपड़ीनुमा इमारत के एक कमरे के फर्श पर झाड़ू लगा रही थीं. लगभग 350 वर्ग फीट के कमरे के कोनों में लोहे के छोटे बक्से पड़े हुए थे, दीवारों पर दो ब्लैकबोर्ड लगे हुए थे. कमरे की बाहरी दीवार पर प्रदेश और जिले के नक्शे के साथ साथ हिन्दू देवी सरस्वती का धूमिल सा चित्र टंगा हुआ था, और कमरे के दरवाजे के ठीक ऊपर आदिवासी विकास विभाग का लोगों देखा जा सकता था. ठीक सामने की झोपड़ी के बाहर छोटी उम्र के कुछ लड़के फटे, मैले ,बदरंग कपड़ो में, जो कि स्कूल का यूनिफार्म था, बैठे हुए दिखते है. वे आपस में कुछ बातचीत कर रहे थे. पास ही की झोपड़ी में 5-6 नौजवान एक चारपायी पर बैठे हुए थे. निरक्षरता के मामले में पूरे महाराष्ट्र में अक्कलकुवा पहले स्थान पर है. चारपायी पर बैठे नौजवानों में से एक ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘मेरा नाम राम्या वसावे है. मैं यहां पर अस्थायी शिक्षक की हैसियत से काम करता हूं.’ वे आगे बताते हैं,’हम लोग प्रधानाध्यापक का इंतजार कर रहे हैं, उनके आने के बाद हम बाल दिवस मनायेंगे.’
वसावे बताते हैं कि दहेल आश्रमशाला में 340 आदिवासी छात्र रहते और पढ़ते हैं.यहां पहली से सातवीं तक की कक्षाएं लगती हैं. 340 विद्यार्थियों में से 280 विद्यार्थी यहीं रहते हैं और बाकी गांव में रहते हैं. उन्होंने बताया, ‘लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग रहने की व्यवस्था है, बच्चों के रहने के लिए यहां तीन भवन हैं. इनमें से 190 लड़कियां हैं जो दो भवनों में रहती हैं, बाकी बचे हुए एक भवन में 90 लड़के रहते हैं.’
साल 2001 से 2013 के दौरान इन आश्रमशालाओं में 793 बच्चों की जान जा चुकी है, कुछ की मामूली तबीयत खराब होने से और कइयों की सांप-बिच्छू के काटने सेदहेल की इस आश्रमशाला के भूगोल को समझा जाए तो कुल चार झोपड़ियां नजर आती हैं. इनमें से तीन को स्कूल और बोर्डिंग दोनों के लिए इस्तेमाल किया जाता है और बची हुई एक झोपड़ी में विद्यार्थियों के लिए भोजन बनाया जाता है. सबसे बड़ी झोपड़ी में तीन कमरे हैं, इनमें से एक कमरे में कक्षाएं भी लगती है और विद्यार्थी भी रहते हैं और बाकी दो कमरों का उपयोग दफ्तर और भंडारगृह के रूप में होता है. गौरतलब है कि 280 बच्चों के लिए आश्रमशाला में 350 वर्ग फीट के पांच कमरे हैं, जिसका मतलब छह से 14 साल के करीबन 50-60 बच्चों को 350 वर्ग फीट के एक कमरे में रखा जाता है. यह हालत सिर्फ दहेल की आश्रमशाला की ही नहीं बल्कि प्रदेश भर की ज्यादातर आश्रमशालाओं की यही दुर्दशा है.
आदिवासी विकास विभाग के नियमों के अनुसार एक आश्रमशाला में भलीभांति निर्मित एक भवन होना चाहिए जिसका विद्यालय और विद्यार्थी आवास के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके. एक कंप्यूटर सेंटर होना चाहिए, एक प्रधानाध्यापक और अधीक्षक समेत विभिन्न विषयों के लिए विशेष शिक्षक होने चाहिए. बच्चों को नियमित रूप से अंडे, दूध, फल, सब्जी, रोटी, चावल, दाल युक्त पौष्टिक आहार मिलना चाहिए. स्वास्थ्य संबंधित सेवाएं मिलनी चाहिए, हर तीन महीने में चिकित्सकीय जांच होनी चाहिए. स्कूल यूनिफॉर्म, किताबें, सोने के लिए गद्दे, चादरें, छात्र-छात्राओं के रहने के लिए अलग-अलग आवासीय परिसर होना चाहिए. अलग शौचालय इत्यादि जैसी व्यवस्थाएं होना अनिवार्य हैं.
लेकिन दहेल की आश्रमशाला में बिजली और पानी जैसी बुनियादी व्यवस्था तक नहीं है, अलग शौचालय और कंप्यूटर सेंटर तो बहुत दूर की बात है. इस आश्रमशाला में अगर कुछ है तो वह कुछ अंधियारे कमरे जहां स्टील के बक्से पड़े हैं. इनमें यहां रहने वाले आदिवासी बच्चे अपना सामान रखते हैं, कुछ ब्लैक बोर्ड्स हैं और मुश्किल से तीन-चार फीट लम्बे रेक्सिन के कवर से बने कुछ तकियेनुमा गद्दे जिनका इस्तेमाल यहां के बच्चे बिस्तर के रूप में करते हैं.
आश्रमशालाएं बिजली-पानी की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं, अलग शौचालय और कंप्यूटर तो दूर की बात है. बच्चे सीलन भरे अंधियारे कमरों में रहने को मजबूर हैंजब यहां पढ़ने वाले बच्चों से बात की गई तो समझ में आया की इन बच्चों के भोजन पर जो लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं वह सिर्फ सरकारी फाइलों तक ही सीमित हैं, क्योंकि यहां रह रहे बच्चों को ढंग से तीन वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता है. 13 साल की कपिल (बदला हुआ नाम), जो की सातवीं कक्षा में पढ़ती हैं, झिझकते हुए कहती हैं, ‘हमें सुबह सात बजे नाश्ता मिलता है, दस बजे दोपहर का खाना और शाम को छह बजे रात का खाना मिलता है, इसके बाद हमें कुछ नहीं दिया जाता, तीनों समय हमें पोहा और खिचड़ी दिया जाता है.” जब उससे पूछा गया कि क्या उन्हें यहां दूध या चाय दी जाती है तो वह सीधे न में जवाब देती है.
छठवी कक्षा में पढ़ रहीं 12 वर्षीय सुनीता (बदला हुआ नाम) कहती हैं , ‘यहां स्नानघर और शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं हैं, हम सभी को नहाने या शौच के लिए नदी पर जाना पड़ता है.’ दहेल की इस आश्रमशाला में शौचालय के नाम पर बिना छत की , ईंट की दो दीवारें खड़ी हैं.
जब दोनों छात्राओं से पूछा गया कि क्या वे बाल दिवस मनाएंगी, तो दोनों ने गर्दन हिलाते हुए न में इशारा किया.
आश्रमशालाओं का सालाना बजट 300 करोड़ का है लेकिन इस बजट का एक-तिहाई हिस्सा ही इनकी देखरेख पर खर्च होता है, बाकी नई आश्रमशालाओं के निर्माण में खर्च हो रहा हैकुछ और बच्चों से बातचीत करने पर पता चलता है कि आश्रमशाला में स्वास्थ्य सुविधा जैसी को सुविधा उपलब्ध नहीं हैं. बच्चों की नियमित तौर पर होने वाली अनिवार्य चिकत्सकीय जांच भी कभी नहीं होती है. और इन सबसे हटकर जब विद्यालय के मुख्य मकसद यानी पढ़ाई-लिखाई पर बात की गई तो एक और कड़वी हकीकत से सामना हुआ. छात्रों ने बताया कि प्रधानाध्यापक पिछले एक महीने से आश्रमशाला नहीं आये हैं और अधीक्षक सुबह आकर शाम को अपने घर लौट जाते हैं. गौरतलब है कि, नियमों के अनुसार आश्रमशालाओं में कार्यरत अधीक्षक को आश्रमशाला में प्रवास करना चाहिए. बच्चों की देखभाल और उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी अधीक्षक पर होती है.
इस बात की पुष्टि वहां मौजूद कुछ दूसरे शिक्षकों से करने की कोशिश की गई तो उन्होंने दबी जुबान में स्वीकार किया, ‘यह बात सही है कि प्रधानाध्यापक नहीं आ रहे हैं और अधीक्षक अपने घर चले जाते हैं, लेकिन हम उन्हें कुछ नहीं बोल सकते. हम तो दैनिक वेतन पर हैं 56 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से हमें पैसे मिलते हैं. वे लोग तो स्थायी कर्मचारी हैं उनकी तनख्वाह 35,000 रुपये से ऊपर है. वे हमें कभी भी बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं.’
जब उनसे पूछा गया कि अधीक्षक की गैर मौजूदगी में रात को बच्चों का ध्यान कौन रखता है, तब एक शिक्षक ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा, ‘अधीक्षक ने मेहनताने पर एक चौकीदार रखा है जो रात को आश्रमशाला में रहता है.’
दहेल आश्रमशाला में बच्चों के लिए भोजन बनाने वाली आशा वलवी शिकायत करती हैं, ‘जून में हमारी नियुक्ति के बाद से ही हमें तनख्वाह नहीं मिली है, न ही हमें यह बताया गया कि कितने पैसे मिलेंगे, पता नहीं अब कब तनख्वाह मिलेगी.’
क्षेत्र की बाकी आश्रमशालाएं भी इसी तरह की दुर्दशा की शिकार हैं. सरी गांव की आश्रमशाला का जायजा लेते वक्त जब वहां के प्रधानाध्यापक केपी तड़वी से बातचीत करने की कोशिश की गई तो वे उत्तेजित होकर बोले, ‘न यहां पानी है, न बिजली है. पानी पीने के लिए भी बच्चों को एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. पहाड़ पर बनी सडकों की हालत भी जर्जर है. नेता भी यहां तभी आते हैं जब उन्हें आदिवासियों के वोटों की जरूरत पड़ती है. मैं खुद भी आदिवासी हूं, बचपन से यहीं हूं पर आज तक कुछ भी अच्छा नहीं हुआ ऊपर से हमारे ऊपर लांछन लगा दिया जाता है कि हम नक्सल हैं.’
सरी स्थित आश्रमशाला में 400 आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं, यहां पहली से दसवी तक कक्षाएं लगती हैं. ये बच्चे भी बिना किसी सुविधा के इस आश्रमशाला के छोटे और गंदे कमरो में रहते हैं. सरी आश्रमशाला की अधीक्षक अनीता वसावे बताती हैं, ‘बरसात के समय यहां की स्थिति और भी खराब हो जाती है, छत से पानी टपकता रहता है, बिजली नहीं रहती. इसके चलते विद्यार्थियों और शिक्षकों को भारी मुसीबत का सामना करना पड़ता है. मानसून के बाद बिजली तो आती है लेकिन 15 दिन में एक बार.
आश्रमशालाओं में शौचालयों के अभाव के चलते जब लड़कियां नहाने के लिए नदियों पर जाती हैं तो गांव के मनचले उन्हें अक्सर परेशान करते हैंवे कहती हैं, ‘यहां बाथरूम-टॉयलेट कुछ नहीं है. लड़की-लड़के सभी को नहाने इत्यादि के लिए नदी पर जाना पड़ता है. यह बेहद असुरक्षित तरीका है लेकिन क्या कर सकते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है.’
पिछले आठ वर्षों से यहां काम कर रहे एक अस्थायी कर्मचारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘मोटी तनख्वाह मिलने के बावजूद भी स्थायी कर्मचारी ड्यूटी पर नहीं आते, कानूनन उन्हें तीन साल तक एक आश्रमशाला में काम करना पड़ता है, लेकिन वह एक-डेढ़ साल काम करके यहां से निकल जाते हैं. इन शिक्षकों का इस तरह का रवैया बच्चों की पढ़ाई के लिए बहुत नुकसानदेह है.’
गौरतलब है कि आश्रमशाला में कार्यरत स्थायी शिक्षकों को 35,000 से 56,000 रुपये प्रति माह तक वेतन मिलता है, वहीं दूसरी ओर अस्थायी शिक्षकों को एक दिहाड़ी मजदूर की तरह घंटे के हिसाब से वेतन दिया जाता है, इन शिक्षकों को 56 रुपये प्रति घंटे के
हिसाब से पैसे मिलते हैं और आम तौर पर ये अस्थायी शिक्षक पांच घण्टे काम करते हैं.
मोलगी गांव की पश्चिम खानदेश भील सेवा मंडल प्राथमिक व माध्यमिक आश्रमशाला का दफ्तर तो अच्छा नजर आता है, यहां पर बच्चों की संख्या 504 है, एक कंप्यूटर सेंटर भी है लेकिन बच्चों के रहने की व्यवस्था यहां भी दहेल और सरी की तरह ही दयनीय है. सरकारी सहायता प्राप्त यह आश्रमशाला इलाके के प्रभावशाली नेता सुहास नटावडकर के निजी ट्रस्ट द्वारा संचालित होती है. यहां के प्रधानाध्यापक वीएच चौधरी ने बताया कि उन्हें सरकार से सालाना 33 लाख रुपये की आर्थिक मदद मिलती है, यह बेहद कम है. वे कहते हैं, ‘आश्रमशाला को सुचारु रूप से चलाने के लिए और पैसे की जरुरत है.’ जब उनसे आश्रमशाला की दयनीय अवस्था के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘नए भवन का निर्माण करने की योजना चल रही है लेकिन कुछ कानूनी कारणों से काम शुरू नहीं हो पा रहा है.’
स्थायी शिक्षकों को 35,000 से 56,000 रुपये प्रति माह वेतन मिलता है, जबकि अस्थायी शिक्षकों को दिहाड़ी मजदूर की तरह 56 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से पैसा मिलता हैनंदुरबार की शहादा तहसील की शासकीय आश्रमशाला भी मोलगी गांव की आश्रमशाला से मेल खाती है, फर्क इतना भर है कि इसके अगल बगल का माहौल थोड़ा शहरी है. शाला की रसोई के पास कूड़े का ढेर और गंदगी का साम्राज्य नजर आता है. पढ़ाई का आलम यह है कि यहां दसवीं कक्षा के बच्चे अंग्रेजी के मामूली शब्द जैसे शुगर और एलीफेंट जैसे सामान्य शब्द भी नहीं पढ़ सकते. यह तब है जबकि अंग्रेजी भाषा आश्रमशालाओं के पाठ्यक्रम का हिस्सा है. यहां के प्रधान अध्यापक आरओ भरारी कहते हैं, ‘हमारी आश्रमशाला निर्माणाधीन है इसलिए अभी आश्रमशाला किराये की इमारत में चल रही है. इसी वजह से यहां की हालत ऐसी है, पैसों की कमी के चलते हम पिछले छह महीनों से किराया भी नहीं दे पाये हैं.’
लोक संघर्ष मोर्चा की महासचिव प्रतिभा शिंदे पिछले 21 वर्षों से नंदुरबार जिले में आदिवासियों के विकास और उनके हक की लड़ाई लड़ रही हैं. वे बताती हैं, ‘सरकारी आश्रमशालाओं का कोई बुनियादी ढांचा नहीं है. शिक्षक सिर्फ नाम के लिए यहां पढ़ाने आते हैं और स्थायी शिक्षक जिनकी मोटी तनख्वाह है वह तो ड्यूटी से अक्सर नदारद ही रहते हैं.’ वे आगे बताती हैं, ‘सरकारी सहायता प्राप्त आश्रमशालाएं अधिकतर नेताओं और उनके रिश्तेदारों की जागीर बन चुकी है. ये नेता सभी पार्टियों से आते हैं. इनके लिए आश्रमशालाएं एक व्यवसाय हैं. शालाओं में जितने बच्चे होते उससे ज्यादा बच्चे इनके रजिस्टर में दर्ज होते हैं. ये गलत आंकड़े दिखाकर सरकार से पैसा ऐंठते हैं.’
शिंदे के मुताबिक बच्चों की सुरक्षा इन आश्रमशालाओं की प्राथमिकता में कहीं नहीं आता. कई बार तो ऐसा होता है कि रात को अधीक्षक बच्चों को बाहर से बंद करके अपने घर चले जाते हैं, छोटे बच्चे जिनको रात को शौच जाना होता है बाहर नहीं जा पाते और कमरों में शौच कर देते हैं और अगले दिन जब अधीक्षक आता है तो ना सिर्फ वह बच्चों को मारता-पीटता है बल्कि उन्हीं से सफाई भी करवाता है. आश्रमशालाओं में शौचालयों के अभाव के चलते जब लड़कियां नहाने के लिए नदियों पर जाती हैं तो अक्सर गांव के मनचले उन्हें परेशान करते हैं.
लोक संघर्ष मोर्चा के एक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए शिंदे बताती हैं कि तलोदा, अक्कलकुवा, धाडगांव और शहादा, नंदुरबार जिले की चार तहसीलें हैं. इनमें से शहादा को छोड़कर बाकी तीन कुपोषित इलाकों की श्रेणी में आती हैं. हर साल इन तहसीलों के गांवों की 70 प्रतिशत आबादी (बच्चों सहित ) काम और भोजन की तलाश में दूसरे शहरों में जाती है. ये लोग छह से सात महीने दूसरे शहरों में रहते हैं. जब इतने लम्बे समय के लिए इतनी बड़ी आबादी बाहर रहती है तो फिर कैसे इन आश्रमशालाओं में 400-500 बच्चे पूरा-पूरा साल पढ़ रहे हैं. इन शालाओं के अधिकारी और नेता बच्चों के गलत आंकड़े दिखाकर सरकार से अनुदान ले रहे हैं. वे कहती हैं, ‘इन शालाओं में भ्रष्टाचार चरम पर है, उत्तर महाराष्ट्र की सभी आश्रमशालाओं को बंद कराने के लिए जल्द ही हम एक आंदोलन करने वाले हैं.’
एक स्थानीय आदिवासी कार्यकर्ता सुमित्रा वसावे ने बताती हैं कि पिछले साल धड़गांव तहसील के रोशमाल गांव की एक आश्रमशाला का दसवीं कक्षा का परिणाम शून्य प्रतिशत आया था, सभी विद्यार्थी फेल हो गए थे. उन्होंने बताया कि इस आश्रमशाला के अगल बगल शराब की बहुत सारी भट्टियां हैं और शिक्षक भी शाला में शराब पीकर पहुंच जाते थे.
जब तहलका ने आदिवासी विकास विभाग प्रकल्प अधिकारी शुक्राचार्य दुधाड़ से उनके तलोदा स्थित दफ्तर में बात की तो उन्होंने बताया, ‘तलोदा में 62 आश्रमशालाएं हैं, जिसमें से 40 सरकारी हैं और बाकी सरकारी सहायता प्राप्त (निजी संस्थाओं द्वारा संचालित ). औसतन एक आश्रमशाला पर सालाना एक करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं. आदिवासी विकास विभाग आश्रमशालाओं को बेहतर बनाने का प्रयास कर रहा हैं. बाकी प्रदेशों के मुकाबले हमारा काम अच्छा है.’
महाराष्ट्र में आदिवासी विकास विभाग के 24 प्रकल्प हैं, जिनमे से 11 प्रकल्पों को संवेदनशील बताया गया है. इन संवेदनशील प्रकल्पों में तलोदा, जवाहर, पांढरकवड़ा, अहेरी, गढ़चिरोली, भामरागढ़, नासिक, कलवन, डहाणु, धारणी और किनवट का नाम आता है. विभाग के नियमों के अनुसार इन इलाकों में प्रकल्प अधिकारी आईएएस दर्जे का होना चाहिए और उसका कार्यकाल कम से कम तीन वर्ष का होना चाहिए. लेकिन प्लानिंग कमीशन के पूर्व सदस्य जयंत पाटिल की समिति की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1982 से लेकर अब तक इन संवेदनशील क्षेत्रों में सिर्फ पांच आईएएस अधिकारियों की पोस्टिंग हुई और इन पांचों का कुल कार्यकाल मिलाकर भी तीन वर्षों से कम रहा है. जयंत पाटिल समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में छह से 14 वर्ष की आयुवर्ग में 19 प्रतिशत आदिवासी बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं, इनमें से सात प्रतिशत बच्चे महाराष्ट्र से हैं.
प्रदेश में आश्रमशालाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इनको बंद कराने की मांग कर रहे हैं. नागपुर में सक्रिय विदर्भ जन आंदोलन समिति के नेता किशोर तिवारी उनमें से एक हैं. साल 2012 में तिवारी द्वारा मुंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एमएस शाह को प्रदेश में आश्रमशालाओं की जर्जर स्थिति पर लिखा गया पत्र जनहित याचिका में तब्दील हो गया था. इसके आधार पर कोर्ट ने तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार को आश्रमशालाओं की स्थिति पर हलफनामा पेश करने का नोटिस जारी कर दिया था.
तिवारी कहते है, ‘आश्रमशालाओं के नाम पर राजनेता करोड़ों रुपये खा रहे हैं, जबकि बच्चों का कुछ भला नहीं हो रहा है इसलिए इन आश्रमशालाओं को बंद कर देना चाहिए. इसकी बजाय सरकार को आधुनिक सुविधाओं से लैस हॉस्टल इन आदिवासी बच्चों के लिए हर तहसील में खोलने चाहिए. इन आदिवासी बच्चों को दूसरे बच्चों के साथ अच्छे स्कूलों में तालीम मिलनी चाहिए जिससे इनका भविष्य सुरक्षित हो सके.’ तिवारी के अनुसार इस समस्या का मूल कारण है आदिवासी विकास के लिए घोषित निधि का दूसरे विभागों में बंट जाना.
इस पूरे गड़बड़झाले पर तहलका ने आदिवासी विकास विभाग आयुक्त संजीव कुमार से बात की तो उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र में कुल 1108 आश्रमशालाएं हैं. इनमें से 552 सरकारी हैं और बाकी सरकारी सहायता प्राप्त हैं. कुमार कहते हैं, ‘हमें पता है कि आश्रमशालाओं की हालत खराब है लेकिन हम इसे ठीक करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं. शालाओं में शिक्षकों की कमी है इसलिए हम 647 नए शिक्षकों की भर्ती कर रहे हैं जो कि अगले एक-दो हफ्ते में प्रदेश भर की आश्रमशालाओं में नियुक्त कर दिए जाएंगे.’
एक रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र से 1794 कंप्यूटर, 299 प्रिंटर और 299 टेबलों के लिए दस करोड़ रुपये की मंजूरी के बावजूद सिर्फ 166 कंप्यूटर ही आश्रमशालाओं के लिए खरीदे गएआश्रमशालाओं के लिए सरकार ने लगभग 300 करोड़ रुपये का सालाना बजट तय किया है. कुमार मानते हैं कि यह बजट पर्याप्त है लेकिन इस बजट का दो-तिहाई हिस्सा नई आश्रमशालाओं के निर्माण में खर्च किया जा रहा है जिसकी वजह से पुरानी शालाओं के संचालन में रुराकवटें आ रही हैं. आदिवासी विकास विभाग के मुताबिक आदिवासियों के विकास के लिए आदिवासी उप योजना के तहत 4968 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान है. इसमें से छह प्रतिशत हिस्सा आश्रमशालाओं के लिए निर्धारित है.
फरवरी 2014 में हेमानंद बिस्वाल के नेतृत्व में स्टैंडिंग कमिटी ऑन सोशल जस्टिस एंड एम्पावरमेंट ने लोकसभा में अपनी एक रिपोर्ट पेश की थी. इस रिपोर्ट के तहत साल 2001 से 2013 के दौरान महाराष्ट्र में चल रही आश्रमशालाओं में 793 बच्चों की सांप-बिच्छू के काटने और मामूली बिमारियों के चलते मौत हुई थी. नासिक संभाग में सबसे ज्यादा 393 मौतों का मामला सामने आया था. इनमें से 116 बच्चों की मौत नंदुरबार जिले की तलोदा तहसील में हुई थी.
आश्रमशाला योजना के नियमों के अनुसार मृत बच्चों के परिजनों को मुआवजे के तौर पर 15,000 रुपये मिलने चाहिए, लेकिन कमेटी के अनुसार 340 परिवारों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र में आश्रमशालाओं के निरीक्षण में कमियां थी और ऑडिट रिपोर्ट में भी इन खामियों की तरफ इशारा किया गया था. इसके पूर्व 2005 में बनी परफॉरमेंस ऑडिट की रिपोर्ट में कहा गया है कि महाराष्ट्र सरकार ने 1953-54 में शुरू हुई आश्रमशाला योजना का कभी कोई मूल्यांकन नहीं किया. 2005 में आई इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि 1999 से 2004 तक किसी भी आश्रमशाला में बच्चों की चिकित्सकीय जांच भी नहीं हुई. जबकि नियमानुसार एक साल में ऐसी चार जांचें होनी चाहिए थीं. रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र से 1794 कंप्यूटर, 299 प्रिंटर और 299 टेबलों के लिए दस करोड़ रुपये की मंजूरी के बावजूद 166 कंप्यूटर ही आश्रमशालाओं के लिए खरीदे गए.
गढ़चिरोली जिले में आदिवासियों के हित की लड़ाई लड़नेवाले लालसू सोमा कहते हैं, ‘शिक्षक इस इलाके की आश्रमशालाओं में आदिवासी बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते. आश्रमशालाओं में बुनियादी ढांचा भी नहीं है, एक ही शिक्षक सारे विषय पढ़ाता है, यह किस तरह की पाठशाला है.’ सोमा बिनागुंडा गांव (महाराष्ट्र की सीमा से लगे अबूझमाड़ इलाके का एक गांव ) का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘इस इलाके के बच्चे आश्रमशाला में सिर्फ दो रोटी खाने के लिए जाते हैं, क्योंकि यहां कुपोषण बड़ी समस्या है.’
जब तहलका ने महाराष्ट्र के आदिवासी विकास मंत्री विष्णु सावरा से इन तमाम मुद्दों पर चर्चा की तो वे बोले, ‘मुझे आश्रमशाला की समस्याओं का अंदाजा है. अगले हफ्ते मैं इसका पूरा जायजा लूंगा और इससे संबंधित समस्याओं को सुलझाने के लिए ठोस कदम उठाऊंगा.’ आदिवासी विकास मंत्री के रूप में यह सावरा का दूसरा कार्यकाल है, इसके पूर्व वे सेना-भाजपा सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं.
(Published in Tehelkahindi Magazine, Volume 6 Issue 23, Dated 15 December 2014)
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