जानें किसानों के मुआवजे की पूरी हकीकत
पीयूष बबेले
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सर्दी थी कि वसंत को गुलजार ही न होने देती थी. खेतों में गेहूं,
चना, मटर, आलू और ऐसी ही कई फसलें पकने को तैयार थीं. किसान आस लगाए बैठा
था कि मौसम में गर्माहट आते ही उसकी मेहनत का फल उसे मिल जाएगा. लेकिन
मार्च की शुरुआत में ऐसी घटाएं छाईं कि पूरे मध्य और पश्चिम भारत में पहले
तो मूसलाधार बारिश हुई और उसके बाद गिरे ओलों ने जैसे सब कुछ खत्म कर दिया.
केंद्र सरकार के शुरुआती आकलन के मुताबिक देश में गेहूं की 40 फीसदी फसल
को नुक्सान हुआ है, जिसका न्यूनतम मूल्य 65,000 करोड़ रु. बैठता है. अगर इस
साल की पूरी रबी फसल की बात करें तो 30 फीसदी फसल चौपट हो चुकी है. हर साल
औसतन 12,000 किसान आत्महत्या की मूक गवाही देने वाले देश में किसान
आत्महत्या का मीटर तेजी से बढ़ने के लिए इतनी तबाही काफी थी. उसके बाद से
अकेले बुंदेलखंड में ही 18 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. स्थानीय अखबारों
के पन्ने किसानों के धरने, प्रदर्शन और ज्ञापन की खबरों से पटे हैं. अब
सबकीजुबान पर एक ही सवाल है-मुआवजा कितना और कब मिलेगा? और क्या फसल बीमा
की तमाम योजनाएं वाकई किसान के काम आएंगी?
जब केंद्रीय कृषि
मंत्री राधामोहन सिंह ने घोषणा की, ''राज्य सरकारें अपने आपदा कोष से
किसानों की मदद शुरू करें. आकलन सामने आने के बाद केंद्र राज्यों को पैसा
दे देगा.'' तब इन्हीं सवालों का जवाब लेने के लिए इंडिया टुडे ने अलग-अलग
राज्यों की पड़ताल की. सबसे पहले रुख किया उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल
का. इलाके में धंसने से पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की घोषणा पर ध्यान
दें, ''किसानों को केंद्र के स्वीकृत मुआवजे से दोगुना मुआवजा दिया जाए.
इसके लिए 200 करोड़ रु. तुरंत स्वीकृत किए जाते हैं.'' लेकिन इससे किसानों
को तुरंत राहत मिल जाएगी इसकी उम्मीद कम है. लगातार विरोध प्रदर्शन में
जुटे भारतीय किसान यूनियन के बुंदेलखंड अध्यक्ष शिवरानायण सिंह परिहार कहते
हैं, ''अभी तो किसानों को पिछले साल रबी सीजन में हुए नुक्सान के चैक ही आ
रहे हैं.'' ऐसे में अब हफ्ते-दस दिन में राहत राशि मिलने की उम्मीद जताना
सरकारी मशीनरी से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करने जैसा होगा. यही हाल मध्य
प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में भी है.
दरअसल देश
में मुआवजा बांटने की प्रक्रिया ही इतनी पुरानी और सुस्त है कि किसान
कितना भी धरना-प्रदर्शन कर लें, मुआवजा मिलने में लगेंगे कई महीने. मिसाल
के तौर पर झांसी जिले को लें. यहां कोई 600 राजस्व गांव हैं. जिले में 2.5
लाख किसानों पर करीब 200 लेखपाल तैनात हैं. यानी एक लेखपाल के पास औसतन 3
राजस्व गांव और डेढ़ से दो हजार खाते हैं. इस बार की जमीनी स्थिति यह है कि
ओलावृष्टि के बाद जब गांव-गांव में किसानों का प्रदर्शन होने लगा तो
ओलावृष्टि के 10 से 15 दिन बाद प्रदेश के बाकी जिलों की तरह यहां भी फसल के
नुक्सान के सर्वे का काम शुरू हुआ. नियम के मुताबिक लेखपाल को एक-एक खेत
में जाकर वहां हुए नुक्सान का सर्वे करना है. ऐसे में हफ्ते भर के अंदर अगर
कोई लेखपाल हर खेत में हुए नुक्सान का द ब्रयोरा दर्ज कर देता है तो
निश्चित तौर पर उसके पास हनुमान जी की तरह वायुमार्ग से उडऩे की क्षमता और
गणेशजी जैसी लेखनी है. बहरहाल सारे पटवारी अपनी रिपोर्ट कई कार्यालयों से
होते हुए डीएम के पास भेजते हैं, जहां से डीएम इसे लखनऊ भेज देता है. यहां
से हर किसान के लिए मुआवजा तय होता है. इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी
सैटेलाइट चित्रों या ड्रोन विमान से खेतों का मुआयना करने का जिक्र नहीं
है. बहरहाल, झांसी के डीएम अनुराग यादव ने दावा किया, ''मुख्यमंत्री के
आदेश के तहत किसानों को जल्दी से जल्दी मुआवजा बांटने का काम किया जा रहा
है.''
वैसे
यह मुआवजा भी नाम का ही होता है. पूरे देश में आपदा से खेती को होने वाले
नुक्सान के लिए मुआवजा राष्ट्रीय आपदा राहत कोष के तय नियमों के तहत बंटता
है. इसमें बाढ़ और ओलावृष्टि से फसल को नुक्सान होने पर मुआवजे का प्रावधान
है, लेकिन भारी बारिश या आग लगने पर मुआवजे की व्यवस्था नहीं है. अगर फसल
को 50 फीसदी से कम नुक्सान होता है तो किसान को कोई मुआवजा नहीं मिलेगा.
वर्तमान व्यवस्था में असिंचित जमीन के लिए प्रति हेक्टेयर 4,500 रु.,
सिंचित जमीन के लिए 9,000 रु. और बहुफसली जमीन के लिए 12,000 रु. मुआवजा
देने का प्रावधान है. भले ही चने की कीमत गेहूं से ज्यादा हो और दालों की
कीमत इससे भी कहीं अधिक हो. दैवीय आपदा से किसान की मौत पर केंद्र की ओर से
1.5 लाख रु. और यूपी सरकार की ओर से 3.5 लाख रु. का प्रावधान किया है.
मध्य
प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य अभी फसल को हुए नुक्सान का आकलन कर रहे
हैं. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ग्रामीण इलाकों में
फसल को हुए नुक्सान का जायजा लेने के बाद कहा, ''मेरे रहते किसानों के आंसू
निकलें तो मेरे सीएम रहने का क्या फायदा?'' उन्होंने 50 फीसदी से ज्यादा
के मुआवजे को 100 फीसदी मानने की घोषणा की है. राज्य में मुआवजा राशि
बढ़ाकर 15,000 रु. प्रति हेक्टेयर कर दी गई है. साथ ही उन्होंने पीड़ित
किसानों की बेटी की शादी में 25,000 रु. की सरकारी मदद देने की घोषणा की
है. यानी सरकार खैरात तो दे सकती है, लेकिन किसान की बुनियादी समस्याएं
नहीं निबटा सकती. वहीं, महाराष्ट्र में पहले ही केंद्र सरकार किसानों के
लिए 2,000 करोड़ रु. का पैकेज घोषित कर चुकी है. अगर गेहूं को ही मानक
मानें तो किसान 46,500 रु. प्रति हेक्टेयर फसल उगाने वाली जमीन पर 9,000
रु. हेक्टेयर मुआवजा पाने के लिए पूरी ताकत, यहां तक कि जान दांव पर लगा
रहा है.
इसके अलावा किसान के पास दूसरी आस है फसल
बीमा की. देश में इस समय मुख्य रूप से तीन तरह की फसल बीमा योजनाएं लागू
हैं. राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (एनएआइएस), उच्चीकृत एनएआइएस और मौसम
आधारित फसल बीमा योजना (डब्ल्यूबीसीआइएस). ये सारी योजनाएं मिलकर भी किसी
राज्य में अब तक सभी किसानों को अपने दायरे में नहीं ला सकी हैं. देश के 50
जिलों में लागू उच्चीकृत एनएआइएस में फसल को हुए नुक्सान के आकलन के लिए
बीमा कंपनी सैटेलाइट इमेज का इस्तेमाल कर सकती है. इसमें बीमा क्लेम की
मोटे तौर पर तीन सूरत हैं. पहली—अगर बरसात न होने के कारण फसल बोई ही ना जा
सके तो राज्य सरकार बीमा कंपनी को फसल को होने वाले अनुमानित नुक्सान का
द्ब्रयोरा भेजेगी. इसके बाद बीमा कंपनी किसान को तुरंत बीमा क्लेम की 25
फीसदी तक रकम देगी. इस मामले में किसानों को अपनी तरफ से कार्रवाई नहीं
करनी है. दूसरी स्थिति वह है जब खड़ी फसल के दौरान प्राकृतिक आपदा आए. ऐसे
में अगर 50 फीसदी से ज्यादा फसल नष्टï होने का आकलन राज्य सरकार पेश करती
है तभी बीमा कंपनी 25 फीसदी तक क्लेम की रकम देगी. तीसरी स्थिति यह है कि
अगर फसल कटने के बाद नष्ट होती है तो किसान को 48 घंटे के भीतर संबंधित
बीमा कंपनी या बैंक को फसल के नुक्सान की जानकारी देनी है. इसके बाद बीमा
कंपनी क्लेम का भुगतान करेगी.
लेकिन जमीन पर
बहुत घालमेल है, तभी तो ओला वृष्टि के 25 दिन बाद भी किसी किसान को बीमा की
फूटी कौड़ी नहीं मिली है. झांसी जिले के एक लेखपाल बताते हैं, ''अगर कोई
किसान बैंक का डिफाल्टर है तो उसे बीमा का लाभ नहीं मिलेगा.'' वहीं बिहार
के एक द्ब्रलॉक में तैनात बीडीओ फसल बीमा में फैले भ्रष्टाचार की तरफ इशारा
करते हैं, ''यहां बीमा का काम प्राथमिक कृषि समिति (पीएसी) के माध्यम से
होता है. तजुर्बा यह है कि तीन गांव के प्रधान जितना कमाते हैं, एक पीएसी
का प्रमुख अकेले कमा लेता है.'' मोतीहारी में ऐसे कई मामले सामने आए जहां
पीएसी ने बड़े पैमाने पर किसानों के बीमे की रकम खुर्द-बुर्द कर दी. नवादा
के गुरम्हा के किसान रामनरेश सिंह कहते हैं, ''एक एकड़ रबी या खरीफ की फसल
का बीमा 20,000 रु. का होता है. किसान को साढ़े चार फीसदी प्रीमियम देना
होता है. पर जब क्लेम मिलना होता है तो बीमा कंपनी अपने हिसाब से देती है.
बीमा का गणित समझ से बाहर है.''
यानी फसल चौपट होने के बाद राहत
घोषणाओं के दशकों से चले आ रहे ढर्रे को बदलने की जरूरत है. मुआवजा तय करने
की प्रक्रिया का आधुनिकीकरण और बीमा व्यवस्था को वाकई में किसान हितैषी
बनाने की दिशाओं में नीति नियंताओं को सोचना होगा. भगत सिंह, सुखदेव और
राजगुरु के शहीदी दिवस पर किसानों के लिए पेंशन योजना की घोषणा करने वाले
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस दिशा में भी सोचना होगा कि नौजवान किसानों
की शहादत को कैसे रोका जाए. क्योंकि किसानों पर कुदरत का ये कहर न तो पहला
है और न आखिरी. अप्रैल में फिर ओलावृष्टि का पूर्वानुमान है.
( —साथ में रोहित परिहार, संतोष पाठक, अशोक कुमार प्रियदर्शी, समीर गर्ग और शुरैह नियाजी)
और भी... http://aajtak.intoday.in/story/is-compensation-is-enough-for-farmers-1-805512.html
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