सोमवार, 2 मार्च 2015

भारतीय चुनाव प्रणाली की विसंगतियां

भारतीय चुनाव प्रणाली की विसंगतियां

शैलेन्द्र चौहान
एक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व (जैसे अमेरिकी चुनावी प्रणाली), दूसरी- फ़र्स्ट-पास्ट-दि-पोस्ट (जैसे भारतीय चुनावी प्रणाली) के मुकाबले राजनीतिक भ्रष्टाचार के अंदेशों से ज़्यादा ग्रस्त होता है। इसके पीछे तर्क दिया गया कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से सांसद या विधायक चुनने वाली प्रणाली बहुत अधिक ताकतवर राजनीतिक दलों को प्रोत्साहन देती है। इन पार्टियों के नेता राष्ट्रपति के साथ, जिसके पास इस तरह की प्रणालियों में काफ़ी कार्यकारी अधिकार होते हैं, भ्रष्ट किस्म की सौदेबाज़ियाँ कर सकते हैं। इस विमर्श का दूसरा पक्ष यह मान कर चलता है कि अगर वोटरों को नेताओं केभ्रष्टाचार का पता लग गया तो वे अगले चुनाव में उन्हें सज़ा देंगे और ईमानदार प्रतिनिधियों को चुनेंगे। लेकिनऐसा अक्सर नहीं होता। वोटर केसामने एक तरफ़ सत्तारूढ़ भ्रष्ट और दूसरी तरफ़ विपक्ष में बैठे संदिग्ध चरित्र के नेता के बीच चुनाव करने का विकल्प होता है। तथ्यगत विश्लेषणकरने पर यह भी पता चलता है कि फ़ायदे के पदों से होने वाली कमायीविपक्ष की कमज़ोरी और पूँजी की शक्तियों के बीच गठजोड़ के कारणसार्वजनिक जीवन में एक ऐसा ढाँचा बनता है जिससे राजनीतिक क्षेत्र को भ्रष्टाचार से मुक्त करना तकरीबन असम्भव लगने लगता है। लेकिनदूसरी प्रणाली जहां कई स्तरों पर जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं और कई दल चुनावी समर में योद्धा बन कर उतरते हैं भ्रष्ट आचरण के मामलों में वह भीआनुपातिक प्रणाली से कमतर साबित नहीं हुई है। भारत में हर प्रकार के भ्रष्टाचार का मुख्य सूत्र भारत की राजनीतिक व्यवस्था के हाथ में है। यदिभ्रष्टाचार को समाप्त करने की कभी कोई भी सार्थक पहल हो तो अवश्य ही उसमें राजनीतिक व्यवस्था में व्यापक बदलाव एक मुख्य आधार होगा।भ्रष्टाचार (आचरणकी कई किस्में और डिग्रियाँ हो सकती हैंलेकिन समझा जाता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार समाज औरव्यवस्था को सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है। अगर उसे संयमित  किया जाए तो भ्रष्टाचार मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों के मानस का अंग बनसकता है। मान लिया जाता है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक सभी कोकिसी को कम तो किसी को ज़्यादालाभ पहुँचा रहा है। राजनीतिक औरप्रशासनिक भ्रष्टाचार एक-दूसरे से अलग  हो कर परस्पर गठजोड़ से पनपते हैं। इस भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्र और कॉरपोरेट पूँजी की भूमिका भीहोती है। बाज़ार की प्रक्रियाओं और शीर्ष राजनीतिकप्रशासनिक मुकामों पर लिए गये निर्णयों के बीच साठगाँठ के बिना यह भ्रष्टाचार इतना बड़ारूप नहीं ले सकता। आज़ादी के बाद भारत में भी राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की यह परिघटना तेज़ी से पनपी है। एक तरफ़ शक कियाजाता है कि बड़े-बड़े राजनेताओं का अवैध धन स्विस बैंकों के ख़ुफ़िया ख़ातों में जमा है और दूसरी तरफ़ तीसरी श्रेणी के क्लर्कों से लेकर आईएएसअफ़सरों के घरों पर पड़ने वाले छापों से करोड़ों-करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हुई है। राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को ठीक से समझने केलिए अध्येताओं ने उसे दो श्रेणियों में बाँटा है। सरकारी पद पर रहते हुए उसका दुरुपयोग करने के ज़रिये किया गया भ्रष्टाचार और राजनीतिक याप्रशासनिक हैसियत को बनाये रखने के लिए किया जाने वाला भ्रष्टाचार। पहली श्रेणी में निजी क्षेत्र को दिये गये ठेकों और लाइसेंसों के बदले लियागया कमीशनहथियारों की ख़रीद-बिक्री में लिया गया कमीशनफ़र्जीवाड़े और अन्य आर्थिक अपराधों द्वारा जमा की गयी रकमटैक्स-चोरी मेंमदद और प्रोत्साहन से हासिल की गयी रकमराजनीतिक रुतबे का इस्तेमाल करके धन की उगाहीसरकारी प्रभाव का इस्तेमाल करके किसीकम्पनी को लाभ पहुँचाने और उसके बदले रकम वसूलने और फ़ायदे वाली नियुक्तियों के बदले वरिष्ठ नौकरशाहों और नेताओं द्वारा वसूले जानेवाले अवैध धन जैसी गतिविधियाँ पहली श्रेणी में आती हैं। दूसरी श्रेणी में चुनाव लड़ने के लिए पार्टी-फ़ण्ड के नाम पर उगाही जाने वाली रकमें,वोटरों को ख़रीदने की कार्रवाईबहुमत प्राप्त करने के लिए विधायकों और सांसदों को ख़रीदने में ख़र्च किया जाने वाला धनसंसद-अदालतों,सरकारी संस्थाओनागर समाज की संस्थाओं और मीडिया से अपने पक्ष में फ़ैसले लेने या उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए ख़र्च किये जाने वालेसंसाधन और सरकारी संसाधनों के आबंटन में किया जाने वाला पक्षपात आता है। चुनावों के बाद नेताओं की संपत्ति बुलेट ट्रेन की रफ्तार से बढ़नेलगती है। वे लखपती से अरबपती तक हो जाते हैं। जाहिर है नेतागीरी अंधाधुंध पैसे का व्यवसाय है। ये पैसा कहां से आता है इसपर सभी दल मौनसाधे रहते हैं। अगर बड़े नेताओं को छोड़ भी दिया जाये जो अगाध संपत्ति के मालिक बन चुके हैं और महज छुटभैयों की बात की जाए तो सिर्फदिल्ली विधान सभा क्षेत्र के विधायकों का क्या रंगारंग हाल है बीबीसी की एक रपट से यह उजागर हो जाता हैहारुन यूसुफ़ जब 2003 में चुनावलड़े थे तो वो सिर्फ आठ लाख रुपये की माली हैसियत रखते थेलेकिन राजनीतिक हैसियत बढ़ने के साथ-साथ उनकी आर्थिक स्थिति भी मज़बूतहोती गई। 12 साल बाद हारुन यूसुफ़ की संपत्ति 3.73 करोड़ रुपए है। 2003 में चौधरी मतीन ने अपनी कुल संपत्ति 12 लाख रुपए बताई थी,जबकि अब वो 62.38 लाख रुपए की संपत्ति के मालिक हैं। शोएब इक़बाल की संपत्ति 2003 में 13 लाख रुपए की थीजो अब 94.83 लाख रुपएहो चुकी है। जगदीश मुखी 2003 में 18 लाख रुपए के मालिक थेलेकिन अगले ही पांच साल में वो 1.93 करोड़ रुपए के मालिक बन गए। इतना हीनहीं 2013 में उनकी आर्थिक हैसियत बढ़कर 4.64 करोड़ रुपए हो गई। इस बार चुनाव आयोग को दिए गए हलफ़नामे में उन्होंने अपनी संपत्ति4.80 करोड़ बताई है। यह तो हुई विधायकों की स्थिति सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों की स्थिति तो सरकार ने छह माह बाद बताई थी जहां सभी मंत्रीमालामाल थे। किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। भारत में राजनीतिक दलों की व्यवस्था चुनावआयोग के कितने नियंत्रण में है इसका आकलन जन प्रतिनिधित्व कानून की केवल एक धारा-29 से लगाया जा सकता है। इस धारा-29 में नयाराजनीतिक दल गठित करने के लिए चुनाव आयोग को पूर्ण विवरण सहित एक आवेदन दिया जाता है जिसमें मुख्य कार्यालय तथा पदाधिकारियोंऔर सदस्यों की संख्या का विवरण दिया जाना होता है। इसी धारा में यह प्रावधान है कि कोई भी राजनीतिक दल व्यक्तिगत नागरिकों याकम्पनियों से दान स्वीकार कर सकता है। इसी धारा में यह प्रावधान है कि हर राजनीतिक दल का कोषाध्यक्ष चुनाव आयोग को अपने दल कीवाॢषक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा जिसमें उन व्यक्तियों या कम्पनियों के नाम शामिल करने आवश्यक होंगे जिन्होंने क्रमश: 20,000 और 25,000 रुपएसे अधिक दान विगत वर्ष में दिया हो। इस धारा-29 में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जिसमें राजनीतिक दल द्वारा वित्त के संबंध में अनियमितताबरते जाने पर सजा या जुर्माने आदि की कोई आपराधिक व्यवस्था हो। इसी कमी का लाभ उठाते हुए भारत के सभी राजनीतिक दल पूरी तरह सेगुप्त रहकर कार्य करने में सफल हो जाते हैं जिससे कि उनके वित्तीय लेन-देन जनता के सामने   पाएं। अभी हाल ही में राजनीतिक दलों कीकार्यप्रणाली को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाने की आवाज उठी तो सभी राजनीतिक दल अपने सारे मतभेद भुलाकर इस बात परएकजुट हो गए कि ऐसा नहीं होना चाहिए। स्पष्ट था कि राजनीतिक दल अपनी कार्यप्रणाली को विशेष रूप से वित्तीय लेन-देन को जनता के समक्षनहीं लाने देना चाहते थे। जर्मनी में राजनीतिक दलों को अपनी सम्पत्तियांआय के सभी स्रोत तथा खर्चों का विवरण राष्ट्रपति को प्रस्तुत करनाहोता है। यह सारा विवरण चार्टेड अकाऊंटैंट से अनुमोदित होना चाहिए। यदि राष्ट्रपति आवश्यक समझे तो इन खातों की जांच दोबारा भी किसीअन्य चार्टेड अकाऊंटैंट से करवा सकता है। इस प्रकार अन्तिम रूप से खातों की जांच रिपोर्ट जनता के लिए प्रकाशित की जाती है। जर्मनी में कोई भीराजनीतिक दल किसी कम्पनी आदि से दान नहीं स्वीकार कर सकता। नकद दान स्वीकार करने की सीमा भी 1000 यूरो तक की है। इससे अधिकराशि का दान केवल चैक से ही स्वीकार किया जा सकता है। 500 यूरो तक की राशि का दान किसी गुमनाम व्यक्ति से स्वीकार किया जा सकता हैइससे अधिक नहीं। इंगलैंड में भी भारत की तरह चुनाव आयोग विद्यमान है जो प्रत्येक राजनीतिक दल के वित्तीय ढांचे पर पूर्ण नियंत्रण काअधिकार रखता है जिसमें नियमित रूप से प्रतिवर्ष खातों को चार्टर्ड अकाऊंटैंट से अनुमोदित करवाकर चुनाव आयोग के समक्ष प्रस्तुत करनाअनिवार्य है।  अमरीका में भी राजनीतिक दलों के लिए वित्तीय खातों को चुनाव आयोग के समक्ष प्रस्तुत करना और उन्हें अपनी वैबसाइट परप्रदॢशत करना अनिवार्य है। फ्रांस के कानून के अनुसार कोई राजनीतिक दल यदि किसी कम्पनी से दान वसूल करता है तो उसे सरकारी खर्च कीसहायता प्राप्त नहीं होगी। ऐसी सजा का डर राजनीतिक दलों को खुलेआम अपमानजनक परिस्थिति का सामना करने की धमकी है। इन सबउदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि भारत में चुनावी भ्रष्टाचार समाप्त करने का एक सरल उपाय यही हो सकता है कि प्रत्येक राजनीतिक दल केवित्तीय खातों पर निर्वाचन आयोग का नियंत्रण कड़ा किया जाना चाहिए। यह कार्य स्वयं राजनीतिक दल तो कदापि नहीं करेंगेअतसर्वोच्चन्यायालय को ही इस प्रकार की व्यवस्था सुनिश्चित कराने के लिए पहल करनी होगी अन्यथा भारतीय राजनीतिक दलों को मिलने वाला गुप्त दानकभी भी चुनावी भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होने देगा। राजनीतिक दलों पर अंकुश लगाने का एक बहुत साधारण उपाय है कि इनके वित्तीय लेन-देन कोचुनाव आयोग के समक्ष प्रत्येक तिमाही अथवा छमाही अवधि के बाद प्रस्तुत करना अनिवार्य बना दिया जाए और ऐसा  करने वाले राजनीतिकदलों के मुख्य पदाधिकारियों पर दंडात्मक कार्रवाई की जाए। राजनीतिक दलों पर कार्यवाई के लिए भी चुनाव आयोग को ऐसे अधिकार दिए जानेचाहिए।

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