रविवार, 31 मार्च 2013

चीनः सांस्कृतिक क्रांति के गड़े मुर्दे उखाड़ने की तैयारी

 शनिवार, 30 मार्च, 2013 को 15:59 IST तक के समाचार

सांस्कृतिक क्रांति के दौरान हुए संघर्ष में सैकड़ों लोगों को जान गंवानी पड़ी
चीन का इतिहास सांस्कृतिक क्रांति की तकलीफ़देह यादों से भरा हुआ है, लेकिन पिछले दो दशकों की आर्थिक तेजी के शोर में यह मुद्दा अक्सर दबता रहा है.
कई युवाओं के लिए तो यह मुद्दा ज़रा भी भावनात्मक नहीं है क्योंकि इस पर सार्वजनिक रूप से बातचीत नहीं होती या इसके ज्ञात स्मारक चिन्हों के बारे में उन्हें पता नहीं है.
हालांकि सुधारवादी मीडिया सांस्कृतिक क्रांति की परतों को फिर खोल रहा है. लोगों को उम्मीद है कि सांस्कृतिक क्रांति के शिकार बने लोगों की अंतिम शरणस्थली को 'कब्र की सफ़ाई' के उत्सव से पहले लोगों के लिए खोला जा सकता है.
इस उत्सव के दौरान कई चीनी अपने पूर्वजों की कब्रों को एक हफ़्ते तक साफ़ करते हैं.
चाइना यूथ डेली के साथ ही कई अन्य मीडिया रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि चॉंगक्विंग के शेपिंग पार्क में स्थित चीनी सांस्कृतिक क्रांति के अवशेष एकमात्र कब्रिस्तान को आगामी 'कब्र की सफ़ाई' के उत्सव के दौरान खोला जाएगा.
लेकिन सदर्न मेट्रोपोलिस डेली के अनुसार पार्क प्रबंधन ने ऐसी ख़बरों को ग़लत बताया है. उसका कहना है कि “कई इलाकों में खतरे की आशंका” के चलते पार्क को आम लोगों के लिए नहीं खोला जाएगा.

क्यों ख़ास है यह कब्रिस्तान?

यह कब्रिस्तान चीन का अकेला कब्रिस्तान है जिसमें कब्र के पत्थरों पर “सांस्कृतिक क्रांति” लिखा गया है. यह ‘रेड गार्ड्स’ और आम लोगों की अंतिम शरण स्थली है. यह सांस्कृतिक क्रांति का ऐसा अकेला स्मारक है जिसे 2009 में सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता दी गई.
सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआती हिंसा में 1966 से 68 के बीच सौ से ज़्यादा ‘रेड गार्ड्स’ और प्रताड़ित स्कूली छात्र और फ़ैक्ट्री मज़दूर मारे गए थे, जिन्हें यहां दफ़न किया गया है. समान्यतः यहां सिर्फ़ मारे गए लोगों के परिजनों को ही आने की अनुमति दी जाती है.
‘रेड गार्ड’ माओत्से तुंग द्वारा संचालित युवाओं का अर्धसैनिक सामाजिक दल था. ‘उत्पात के दशक’ की शुरुआत में 1966-67 के दौरान माओ इस दल का इस्तेमाल अपने दुश्मनों और प्रतिक्रियावादी लगने वालों के उत्पीड़न के लिए करते थे.
रेड क्लासिक रेस्तरां के आगे रेड गार्ड के रूप में प्रदर्शन करती कलाकार
विप्लव के उस दौर में लाखों चीनियों, जिनमें वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग और कई अन्य नेता शामिल हैं, को प्रताड़ित किया गया.

सच को सामने आने दो

कितने लोग उस दौरान संघर्ष में या जेलों में मारे गए, आज तक इसकी सही संख्या नहीं पता चल सकी है.
चाइना यूथ डेली के टिप्पणीकार वांग झूजिन कहते हैं कि कब्रिस्तान को खोलने से लोगों को सामूहिक हत्याओं और उत्पीड़न के बारे में सच जानने का मौका मिलेगा.
वह कहते हैं, “सच के बिना माफ़ी नहीं मिल सकती, माफ़ी के बिना मिलाप संभव नहीं और मिलाप के बिना कोई भविष्य नहीं है.”
वांग कहते हैं, “सांस्कृतिक क्रांति की विरासत पर बात करते हुए हमें दक्षिण अफ्रीका के सच-माफ़ी-मेल के रास्ते पर बढ़ना चाहिए.”
साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में माओ के पूंजीपतियों को हटाने के आह्वान पर सभी वर्गों के युवा आगे आए लेकिन इसके परिणामों को शायद ही कोई याद करना चाहता है.
माओ की छोटी किताब पढ़ते हाई स्कूल छात्र रेड गार्ड
अधिकतर लोग क्रांति से उपजी हिंसा और उससे होने वाली मौतों के बारे में बात नहीं करते. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि कब्रिस्तान को खोलने से यह सब बदलेगा.

स्वीकार करना ज़रूरी

रिटायर शिक्षक और शौकिया इतिहासकार ज़ेंग ज़ॉंग ने पिछले पांच साल इस कब्रिस्तान के अध्ययन में लगाए हैं.
वह कहते हैं, “लोग उस समय के बारे में बात करना लंबे समय से टालते रहे हैं. कब्रिस्तान को सांस्कृतिक पहचान देना अपने दुखद अतीत की ओर देखने की दिशा में एक छोटा कदम है.”
जॉंग कहते हैं कि सांस्कृतिक क्रांति भले की एक पुरानी याद हो, लेकिन उसके ज़ख्मों को भरा जाना ज़रूरी है. वह कहते हैं कि इन्हीं ज़ख्मों की वजह से वह शेपिंग पार्क पर जाने से 40 साल तक बचते रहे.
चॉंगक्विंग में रहने वाले 62 वर्षीय ही शू सांस्कृतिक क्रांति पर शोध कर रहे हैं. वह कहते हैं,"कब्रिस्तान को धरोहर के रूप में पहचान मिलना न सिर्फ़ उन लोगों को राहत देता है जो उस दौर से बच गए हैं बल्कि यह आगे इस तरह की हिंसा को रोकने में मददगार भी साबित हो सकता है."
वो कहते हैं, “कुछ लोगों को डर लगता है कि अतीत से शांति को ख़तरा हो सकता है. लेकिन हरीकत यह है कि अतीत का सामना करना और पीड़ितों को सांत्वना देना ही सामाजिक स्थायित्व की दिशा में सही कदम है.”
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एक अमरीकी फ़ौजी की दर्दभरी दास्तां

 रविवार, 31 मार्च, 2013 को 10:13 IST तक के समाचार

इराक युद्ध
इराक युद्ध में शामिल होने वाले थोमस यंग अब शारीरिक कष्ट झेलने के लिए तैयार नहीं हैं
“मैं 9/11 हमले के दो दिन बाद ही सेना से जुड़ गया. मैं सेना से इसलिए जुड़ा क्योंकि हमारे देश पर हमला किया गया था. मैं यह चाहता था कि जिन्होंने मेरे देश के 3,000 नागरिकों को मारा है, उन पर पलट कर हमला करूं. मैंने इराक़ जाने के लिए सेना को नहीं चुना था क्योंकि 2001 के सितंबर में हुए हमले में इराक़ की कोई भूमिका नहीं थी और उसने अमरीका तो छोड़िए अपने पड़ोसियों के लिए भी कोई बड़ा ख़तरा नहीं पैदा किया था....इराक़ युद्ध अमरीका के इतिहास की सबसे बड़ी रणनीतिक ग़लती थी.””
ये शब्द उस पत्र के कुछ अंश है जिसे इराक़ युद्ध में गए एक अमरीकी सैनिक ने पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और पूर्व उपराष्ट्रपति डिके चेनी को लिखा हैं.
इराक़ युद्ध में गए टॉमस यंग नाम के उस अमरीकी सैनिक की ज़िदगी तबाह हो गई. उनका शरीर निस्पंद हो रहा है और उनकी टांग भी अब काम नहीं करती.
अपने पत्र में टॉमस यंग ने बुश और डिक चेनी को अपने साथ हुए हुए सभी हादसों और इराक़ में मारे गए तथा घायल हुए सभी लोगों के लिए दोषी ठहराया है.

मर्ज़ी नहीं थी मेरी

यंग के अनुसार 2001 में 9/11 हमले के बाद ग्राउंड ज़ीरो के मलबे के पास आकर जब तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने इस हमले के ज़िम्मेदार लोगों को सबक़ सिखाने की गुहार लगाई तब करीब 22 साल के यंग ने सेना में शामिल होने का फ़ैसला किया.
"ऐसा नहीं है कि वह मरना चाहते हैं बल्कि वह अब इससे ज्यादा कष्ट नहीं सहना चाहते"
थॉमस यंग की पत्नी क्लॉडिया क्यूलर
लेकिन उन्हें चरमपंथी संगठन अल-क़ायदा और इसके सहयोगियों से लड़ने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के बजाय 2004 में इराक़ भेज दिया गया जहां गठबंधन सेना ने सद्दाम हुसैन को क़ब्ज़े में ले लिया.
इराक़ में तैनाती के पांचवे दिन ही यंग की सैन्य टुकड़ी का सामना बग़दाद में विद्रोहियों की गोलीबारी से हुआ. उन्हें भी गोली लगी और रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट आई.
अमरीका वापस आने के बाद उन्होंने व्हीलचेयर पर बैठकर ही इस युद्ध के ख़िलाफ़ अपना अभियान छेड़ दिया और वर्ष 2007 में वह ‘बॉडी ऑफ़ वॉर’ नाम की एक डॉक्यूमेंटरी का हिस्सा बने.

अब नहीं जीना

यंग की हालत इतनी नाज़ुक हो गई है कि वह अब जीना नहीं चाहते हैं. उन्हें बात करने में भी काफ़ी मुश्किल होती है और वह थक जाते हैं.
उनकी पत्नी क्लॉडिया क्यूलर ने बीबीसी वर्ल्ड सर्विस को बताया, “उन्हें यह महसूस होता है कि उनका शरीर अब जीने लायक़ नहीं है. वह इच्छा मृत्यु के लिए तैयार हैं.”
उनका कहना है, “हमने एक निश्चित स्तर तक कष्ट को स्वीकार कर लिया है. लेकिन पिछले साल से उन्हें शारीरिक तौर पर काफ़ी कष्ट हो रहा है, उन्हें संक्रमण और दूसरी बीमारियों के इलाज के लिए बार-बार अस्पताल जाना पड़ता है. वह अब और किसी ऑपरेशन या इलाज की प्रक्रिया से नहीं गुज़रना चाहते हैं.”
उनकी बातों में अपने पति को खो देने की वेदना साफ़तौर पर झलकती है.
अमरीका
9/11हमले के बाद अमरीका ने इराक में अपनी सेना भेज युद्ध छेड़ दिया था
यंग की पत्नी ने अपनी और यंग की पीड़ा बयान करते हुए कहा, “मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने उन्हें भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक तौर पर खो दिया. एक-एक दिन बिताना जैसे बेहद मुश्किल है. हमारी बातचीत...” उनका वाक्य अधूरा रह जाता है.
वह कहती हैं, “मैं समझ सकती हूं कि उन्हें कितना कष्ट हो रहा है. मैं नहीं चाहती कि वह सिर्फ़ मेरे लिए इतने कष्ट के साथ जीते रहें. यह सही नहीं है.”
क्यूलर कहती हैं, “ऐसा नहीं है कि वह मरना चाहते हैं बल्कि वह अब इससे ज़्यादा कष्ट नहीं सहना चाहते.”
वह अब ठोस खाद्य पदार्थ नहीं खा सकते हैं उनके शरीर की त्वचा फट रही है जिससे उनके शरीर का मांस और हड्डी दिखने लगी है.
यंग का कहना है कि उन्होंने इराक़ में मारे गए और घायल हुए सैनिकों और उनके रिश्तेदारों की ओर से बुश और चेनी को पत्र लिखा है.
वह कहते हैं, “नैतिक, सामरिक, रणनीतिक और आर्थिक हर स्तर पर इराक़ अभियान एक विफलता थी. बुश और चेनी आपने ही इस युद्ध को शुरू किया और आपको ही इसके नतीजे भुगतने चाहिए.”

जहाँ तरबूज़ किसानों की जान बचा रहा है

 रविवार, 31 मार्च, 2013 को 07:26 IST तक के समाचार

गर्मी के मौसम का लोकप्रिय फल तरबूज़ अब आंध्र प्रदेश के सूखे से पीड़ित इलाक़ों के परेशान किसानों के लिए आशा की एक नई किरण बन गया है.
महबूबनगर ज़िले के उन गाँवों में तरबूज़ की फ़सल ने एक नई जान डाल दी है जहां बिजली-पानी की कमी, दूसरी फ़सलों के नष्ट हो जाने, ठीक मूल्य न मिलने और क़र्ज़ के बोझ से परेशान क्लिक करें किसान आत्महत्याएं कर रहे थे.
महबूबनगर से राइचुर जाने वाली सड़क पर स्थित गोर्वकोंडा गाँव के एक किसान लक्ष्म्या ने बताया की क्लिक करें अधिकतर किसान तरबूज़ की खेती करने लगे हैं और इसका सबसे बड़ा कारण पानी है.
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आसान है खेती

एक किसान लक्ष्म्या कहते हैं, "जहाँ प्याज़ और धान जैसी फ़सलों के लिए बहुत पानी चाहिए वहीं तरबूज़ के लिए थोड़ा सा पानी भी काफ़ी हो जाता है. हमारे इलाक़े में पानी की बहुत क़िल्लत है और बिजली बहुत कम रहती है. ऐसे में अगर एक एकड़ फ़सल को एक घंटा पानी भी मिल जाए तो यह काफ़ी हो जाता है".
क्लिक करें गोर्वंकोंडा गाँव ने ही कुछ वर्ष पहले इस इलाक़े में तरबूज़ की फ़सल शुरू की थी और उस की सफलता अब महबूबनगर ज़िले के सभी किसानों के लिए एक प्रेरणा बन गई है.
"जहाँ प्याज और धान जैसी फसलों के लिए बहुत पानी चाहिए वहीं तरबूज के लिए थोडा सा पानी भी काफी हो जाता है. हमारे इलाके में पानी की बहुत किल्लत है और बिजली बहुत कम रहती है. ऐसे में अगर एक एकड़ फसल को एक घंटा पानी भी मिल जाए तो यह काफी हो जाता है"
लक्ष्म्या, एक किसान
तरबूज़ की खेती करने की दूसरी बड़ी वजह बाज़ार में मिलने वाली अच्छी क़ीमत है. एक ऐसे समय में जब धान जैसी फ़सल की क़ीमत भी संदेहजनक रहती है तरबूज़ की काश्त पर इस इलाक़े के किसानों को प्रति एकड़ पच्चीस से पचास हज़ार रूपए का मुनाफ़ा मिल रहा है.

अच्छी क़ीमत

गोर्वकोंडा के ही एक और किसान पी देवेन्द्र का कहना है की अगर एक एकड़ पर 12 टन तरबूज़ का उत्पादन होता है तो इसका बाज़ार में पचास हज़ार रुपए से भी ज़्यादा मूल्य मिल जाता है जब की ख़र्च पचीस हज़ार रूपए तक आता है.
"ज़्यादा लाभ लेने के लिए हम उत्पाद थोक बाज़ार में नहीं बल्कि सीधे ग्राहकों को बेचने लगे हैं जिस से हमारा मुनाफ़ा दोगना हो गया है."
अधिकारियों का कहना है की तरबूज़ की खेती इतनी लोकप्रिय हो गई है की केवल महबूबनगर ज़िले में दस प्रतिशत किसान यही फ़सल उगाने लगे हैं.
इस इलाक़े में किसानों की समस्याओं पर गहरी नज़र रखने वाले रघुवीर कुमार का कहना है कि तरबूज़ की विशेषता यही है कि इस पर ख़र्च कम आता है और लाभ ज़्यादा मिलता है.
वो कहते हैं, "दूसरी फ़सलों के लिए बोरवेल मोटर पम्प, बिजली और पानी पर लाखों का ख़र्च आता है लेकिन तरबूज़ पर ऐसा नहीं होता और केवल तीन महीने में ही यह फ़सल तैयार हो जाती है."
जहाँ दक्षिणी भारत में तरबूज़ की फ़सल जनवरी से मार्च तक तैयार हो जाती है वहीं उत्तरी भारत में यह फल अगस्त-सितम्बर में बाज़ार में आता है.
पी देवेन्द्र का कहना है कि अब किसान तो इस फ़सल के लिए ड्रिप सिंचाई पद्धति का भी उपयोग करने लगे हैं और तरबूज़ की सफलता ने किसानों की आर्थिक हालत बदल कर रखदी है.
तरबूज की खेती महबूबनगर ज़िले के कई गांवो में बढ़ गई है.
"इस फ़सल की सबसे अच्छी बात मुझे यही लगी है कि आप के हाथ में हमेशा पैसा रहता है. मैंने इसी से अपने बच्चो को पढ़ाया है. मेरा एक बेटा ग्रेजुएशन कर रहा है. जबकी अगर मैं प्याज़ की खेती करता हूँ तो कब पैसा आएगा या नहीं आएगा कोई पता नहीं होता".
लेकिन सभी किसान इससे सहमत नहीं है की तरबूज़ सारी समस्याओं का हल है. इसी गाँव के बाला प्रसाद का कहना है कि उनकी आधी एकड़ भूमि पर लगातार दो बार तरबूज़ की फसल नष्ट हो गई .
उनका कहना था, "यह सही है की तरबूज़ एक लाभदायक फ़सल है लेकिन मेरे खेत पर दो बार कीटाणु का कुछ ऐसा हमला हुआ की पूरी फ़सल ही नष्ट हो गई. पता नहीं कि बीज ख़राब थी या कुछ और बात थी."

शिकायत

किसानों की शिकायत थी कि उन्हें इससे निबटने में कृषि विभाग या सरकार से कोई सहायता नहीं मिली.
रघुवीर कुमार का कहना है की इस इलाक़े में पहले किसान अनेक कारणों से आत्माहत्या कर रहे थे लेकिन इसमें भी अब काफ़ी कमी आई है और इसमें तरबूज़ की एक मुख्य भूमिका है.
लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों की तरह किसान भी कहते हैं की केवल एक प्रकार की फ़सल उगाने की व्यवस्था अच्छी नहीं हो सकती और यह जल्द ही दम तोड़ देगी.
एक किसान काले गोपाल का कहना था, "किसानों के कष्ट का समाधान यह नहीं है की सभी एक जैसी फ़सल उगाने लग जाएं. अगर तरबूज़ का उत्पाद बढ़ जाए तो उस की क़ीमत भी गिर जाएगी."
भारत में इस समय केवल ढाई लाख एकड़ पर ही तरबूज़ की खेती होती है. किसान कहते हैं कि इस बात की गुंजाइश है कि सूखे से पीड़ित इलाक़ों में इस फ़सल को और भी बढ़ावा दिया जाए.

भारतीय मूल की महिला को अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहते थे मंडेला

Sunday, March 31, 2013, 10:10
भारतीय मूल की महिला को अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहते थे मंडेलाजोहानिसबर्ग : नस्लभेद विरोधी आंदोलन के नायक और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला कभी भारतीय मूल की एक महिला को दिल दे बैठे थे और उसे अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहते थे, लेकिन महिला ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

इस महिला का नाम आमिना कसालिया है, हालांकि अब वह इस दुनिया में नहीं हैं। आमिना की जीवनी ‘वेन वी होप एंड हिस्ट्री राइम’ में कहा गया है कि 27 साल तक कारागार में रहने के बाद बाहर आए मंडेला ने उनके समक्ष शादी का प्रस्ताव रखा, हालांकि उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया।

अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) के दिग्गज कार्यकर्ता यूसुफ कसालिया की विधवा आमिना का पिछले महीने 83 साल की उम्र में निधन हो गया।

आमिना के बच्चों गालिब और कोको कसालिया ने भी इसकी पुष्टि की है कि उनकी मां ने उन्हें मंडेला के इस प्रस्ताव के बारे में बताया था।

फिलहाल 94 साल के मंडेला फेफड़े में संक्रमण के कारण प्रिटोरिया के एक अस्पताल में भर्ती हैं। उन्हें 1994 में दक्षिण अफ्रीका का पहला अश्वेत राष्ट्रपति चुना गया था।

आमिना और यूसुफ कई वर्षों तक भारत में रहे। भारत में इन लोगों ने निर्वासन के समय की एएनसी की शाखा की कमान संभाली। अपनी पुस्तक में आमिना ने इस बारे में बताया है कि मंडेला किस तरह से अकेले उनके अपार्टमेंट में आया करते थे और वह उनके कार्यालय एवं आवास जाया करती थीं।

उन्होंने लिखा है, ‘वह (मंडेला) मेरे सामने सोफे पर बैठे और मुझे चूमने लगे। उन्होंने अपनी उंगलियों से मेरे बालों को सहलाते हुए बोला कि क्या तुम नहीं जानती कि तुम कितनी बला की खूबसूरत, जिंदादिल और मनमोहक नौजवान महिला हो? मैंने बड़े सहज भाव से जवाब दिया कि मैं नौजवान महिला नहीं हूं, मैं एक अधेड़ उम्र की महिला हूं।’

वह कहती हैं, ‘मंडेला ने कहा, ठीक है फिर से शुरुआत करो। इसके बाद उन्होंने मुझे कई उपमाएं दीं।’ आमिना ने उस शाम का भी जिक्र किया है जब मंडेला जोहानिसबर्ग स्थित उनके अवास पर पहुंचे थे। उन्होंने मंडेला के लिए क्रेफिश का पकवान बनाया था, लेकिन पूर्व राष्ट्रपति ने नहीं खाया। शायद मंडेला उनसे नाराज थे। (एजेंसी)

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

नीलाम होगा दुनिया का सबसे बड़ा अंडा

 गुरुवार, 28 मार्च, 2013 को 10:21 IST तक के समाचार

सबसे बड़ा अंडा
ये दुनिया का सबसे बड़ा अंडा है
लंदन में क्रिस्टी के नीलामीघर में दुनिया के सबसे अंडे की नीलामी की जा रही है.
माना जा रहा है कि 13वीं या 14वीं शताब्दी में मैडागास्कर में विशालकाय पक्षी यानि एलिफेंट बर्ड ने ये अंडा दिया था.
19वीं शताब्दी के अंत में या 20वीं शताब्दी की शुरुआत में पुरातत्वविदों ने इस विशालकाय अंडे को खोजा था.
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ये अंडा 30000 पाउंड में नीलाम होने की संभावना है
विशालकाय पक्षी की ये प्रजाति 13वीं से 17वीं शताब्दी के बीच लुप्तप्राय हो गई थी.
इसका वैज्ञानिक नाम एपियोर्निस मैक्सिमस है लेकिन इसे एलिफेंट बर्ड के नाम से जाना जाता है.
क्रिस्टी के विज्ञान मामलों के जानकार जेम्स हिस्लॉप ने कहा, “ये अंडा किसी भी जन्तु द्वारा दिया गया अब तक का सबसे बड़ा अंडा है. ये डायनासोर के अंडों से भी बड़ा है. इससे एक बहुत बड़ा ऑमलेट बनाया जा सकता है.”
सबसे बड़ा अंडा
ये मुर्गी के सामान्य अंडों से 100 गुना बड़ा है
ये जीवाश्म अंडा इतना बड़ा है कि इसमें मुर्गी के 120 सामान्य अंडे समा सकते हैं.
हिस्लॉप ने कहा कि किसी अंडे का इतनी अच्छी स्थिति में मिलना दुर्लभ है.
ये अंडा 24 अप्रैल को नीलामी के लिए रखा जाएगा और इसके 30000 पाउंड यानी करीब 25 लाख भारतीय रुपयों में बिकने की संभावना है.

गुरुवार, 28 मार्च 2013

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सोमवार, 18 मार्च 2013

निर्भया के बाद दिल्ली बदली महिलाओं के लिए?

 सोमवार, 18 मार्च, 2013 को 08:34 IST तक के समाचार

दिसंबर में सामूहिक बलात्कार की बर्बर घटना के बाद राजधानी में यौन हिंसा की शिकायतें बढ़ी हैं.
कुछ दिन पहले तक अपने ससुराल, मायके और मालकिन की मर्ज़ी के खिलाफ बहुत हिम्मत कर कानून से मदद मांगने निकली राखी, अब परेशान, हताश और डरी हुई हैं.
दो महीने तक एक आदमी के पीछा करने, अश्लील फोन करने और तेज़ाब फेंकने की धमकियों से तंग आकर राखी जनवरी में क्लिक करें पुलिस के पास गईं.
लेकिन राखी के मुताबिक महिलाओं की सुरक्षा के लिए तमाम दावे करने वाली पुलिस ने उनकी शिकायत पर गौर करने के बजाय उनसे ही पूछताछ की.
राखी ने बीबीसी को बताया, “मुझसे पूछा कि मैं उसे कैसे जानती हूं, वो मेरी ही पीछे क्यों था, तो मैंने पुलिस से कहा ये सवाल उससे जाकर पूछिए ना.”
तो क्या दिल्ली में एक छात्रा के क्लिक करें सामूहिक बलात्कार के बाद हुए प्रदर्शनों के बावजूद महिलाओं की ओर क्लिक करें दिल्ली पुलिस के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है?
क्या अब भी छेड़छाड़ के लिए पीड़ित महिला पर ही शंका की जा रही है और क्लिक करें यौन हिंसा की धमकी को ग़ैर-ज़रूरी समझा जा रहा है?

बढ़ी पुलिस तैनाती

"मुझसे पूछा कि मैं उसे कैसे जानती हूं, वो मेरी ही पीछे क्यों था, तो मैंने पुलिस से कहा ये सवाल उससे जाकर पूछिए ना. उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई मैं, पुलिस के पास जाने का सारा नुकसान मुझे ही हुआ."
पीड़ित महिला
जनवरी में महिलाओं से जुड़ी हिंसा के मामलों के लिए सुधीर यादव को दिल्ली पुलिस में स्पेशल कमिश्नर नियुक्त किया गया.
उन्होंने बीबीसी को बताया, “ये कहना ग़लत होगा कि पुलिस के ग़लत रवैये की वजह से किसी महिला की शिकायत ठीक से ना सुनी गई हो, ये हो सकता है कि महिला के मन मुताबिक कार्रवाई ना की गई हो क्योंकि क़ानूनन उसकी शिकायत के लिए वो ज़रूरी नहीं था.”
सुधीर यादव ने ये भी बताया कि दिसंबर की घटना के बाद पुलिस को खास तौर पर सभी महिलाओं की शिकायतों पर गौर करने के क्लिक करें आदेश दिए गए हैं.
महिलाएं आसानी से शिकायत कर सकें, इसके लिए क्लिक करें हेल्पलाइन शुरू की गई है और सड़कों पर गश्त लगाने वाले पुलिसकर्मियों की तादाद बढ़ाई गई है.
ज़ाहिर है पिछले तीन महीनों में दिल्ली की सड़कों पर बुलंद हुए नारों का दबाव बना है, लेकिन ये राखी के सवालों का जवाब अब भी नहीं है.

एफ़आईआर दर्ज कराने में परेशानी

राखी का आरोप है कि थाने के तीन चक्कर लगाने पर भी उनकी शिकायत कोरे कागज़ पर ही लिखी गई.
15 दिन बाद आखिरकार एक महिला कार्यकर्ता ने इलाके के डीसीपी से बात की तो एफ़आईआर लिखी गई, आरोपी लड़का गिरफ्तार हुआ और फौरन ही ज़मानत पर रिहा भी.
दिल्ली पुलिस का दावा है कि पिछले तीन महीनों में राजधानी की सड़कों पर पुलिस की तैनाती बढ़ाई गई है.
राखी के मुताबिक पुलिस थाने के बार-बार चक्कर लगाने से उनकी नौकरी चली गई और पुलिसवालों के उनके घर वर्दी में आने से आस-पड़ोस में बदनामी हुई.
राखी कहती हैं, “उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई मैं, पुलिस के पास जाने का सारा नुकसान मुझे ही हुआ, अब अपनी बेटियों की फिक्र लगातार लगी रहती है, मेरी सास ने तय कर लिया है कि हम उस इलाके में रहना छोड़ देंगे.”
राखी जैसी आपबीती कई महिलाओं ने मुझे सुनाई. ऐसी नाउम्मीदी है तो इन सभी ने पुलिस का दरवाज़ा खटखटाने का फैसला ही क्यों किया?

यौन हिंसा की शिकायतों में इज़ाफा

पिछले दस सालों से दिल्ली महिला आयोग के एक कार्यक्रम के तहत काम कर रही गरिमा, बलात्कार का शिकार हुई महिलाओं की काउंसलिंग करती हैं.
इसके तहत वो पीड़ित महिलाओं को मानसिक तौर से मज़बूत करना, उनके परिवार से बात करना और उन्हें उनके क़ानूनी हक के बारे में बताने जैसी सहायता देती हैं.
पिछले तीन महीनों में गरिमा के पास आने वाली महिलाओं की तादाद दोगुनी हो गई हैं.
"जिस तरह से लोगों ने प्रदर्शन किया, सार्वजनिक तौर पर यौन हिंसा के अपराधों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई, उससे महिलाओं को बल मिला."
गरिमा, काउंसलर
गरिमा कहती हैं, “जिस तरह से लोगों ने प्रदर्शन किया, सार्वजनिक तौर पर यौन हिंसा के अपराधों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई, उससे महिलाओं को बल मिला, अब वो हिंसा सहने की बजाय, हिम्मत कर अपनी शिकायत दर्ज कराना चाहती हैं.”
गरिमा के मुताबिक बलात्कार ही नहीं, यौन हिंसा के सभी मामलों में अब महिलाएं सामने आने लगी हैं.
हाल में संसद में पेश किए गए आंकड़ों से पता चला कि जनवरी में दिल्ली में हर रोज़ बलात्कार की चार घटनाएं हुईं.
इसपर दिल्ली पुलिस का कहना था कि ये कानून व्यवस्था खराब होने की नहीं, बल्कि महिलाओं के आगे आकर शिकायत दर्ज कराने की वजह से है.
यानि पुलिस, सरकार और समाज से संवेदना का हाथ अधमने ढंग से भी बढ़े तब भी महिलाएं अपने कदमों में तेज़ी लाने को तैयार हैं.

निर्भया के बाद दिल्ली बदली महिलाओं के लिए?

 सोमवार, 18 मार्च, 2013 को 08:34 IST तक के समाचार
दिसंबर में सामूहिक बलात्कार की बर्बर घटना के बाद राजधानी में यौन हिंसा की शिकायतें बढ़ी हैं.
कुछ दिन पहले तक अपने ससुराल, मायके और मालकिन की मर्ज़ी के खिलाफ बहुत हिम्मत कर कानून से मदद मांगने निकली राखी, अब परेशान, हताश और डरी हुई हैं.
दो महीने तक एक आदमी के पीछा करने, अश्लील फोन करने और तेज़ाब फेंकने की धमकियों से तंग आकर राखी जनवरी में क्लिक करें पुलिस के पास गईं.
लेकिन राखी के मुताबिक महिलाओं की सुरक्षा के लिए तमाम दावे करने वाली पुलिस ने उनकी शिकायत पर गौर करने के बजाय उनसे ही पूछताछ की.
राखी ने बीबीसी को बताया, “मुझसे पूछा कि मैं उसे कैसे जानती हूं, वो मेरी ही पीछे क्यों था, तो मैंने पुलिस से कहा ये सवाल उससे जाकर पूछिए ना.”
तो क्या दिल्ली में एक छात्रा के क्लिक करें सामूहिक बलात्कार के बाद हुए प्रदर्शनों के बावजूद महिलाओं की ओर क्लिक करें दिल्ली पुलिस के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है?
क्या अब भी छेड़छाड़ के लिए पीड़ित महिला पर ही शंका की जा रही है और क्लिक करें यौन हिंसा की धमकी को ग़ैर-ज़रूरी समझा जा रहा है?

बढ़ी पुलिस तैनाती

"मुझसे पूछा कि मैं उसे कैसे जानती हूं, वो मेरी ही पीछे क्यों था, तो मैंने पुलिस से कहा ये सवाल उससे जाकर पूछिए ना. उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई मैं, पुलिस के पास जाने का सारा नुकसान मुझे ही हुआ."
पीड़ित महिला
जनवरी में महिलाओं से जुड़ी हिंसा के मामलों के लिए सुधीर यादव को दिल्ली पुलिस में स्पेशल कमिश्नर नियुक्त किया गया.
उन्होंने बीबीसी को बताया, “ये कहना ग़लत होगा कि पुलिस के ग़लत रवैये की वजह से किसी महिला की शिकायत ठीक से ना सुनी गई हो, ये हो सकता है कि महिला के मन मुताबिक कार्रवाई ना की गई हो क्योंकि क़ानूनन उसकी शिकायत के लिए वो ज़रूरी नहीं था.”
सुधीर यादव ने ये भी बताया कि दिसंबर की घटना के बाद पुलिस को खास तौर पर सभी महिलाओं की शिकायतों पर गौर करने के क्लिक करें आदेश दिए गए हैं.
महिलाएं आसानी से शिकायत कर सकें, इसके लिए क्लिक करें हेल्पलाइन शुरू की गई है और सड़कों पर गश्त लगाने वाले पुलिसकर्मियों की तादाद बढ़ाई गई है.
ज़ाहिर है पिछले तीन महीनों में दिल्ली की सड़कों पर बुलंद हुए नारों का दबाव बना है, लेकिन ये राखी के सवालों का जवाब अब भी नहीं है.

एफ़आईआर दर्ज कराने में परेशानी

राखी का आरोप है कि थाने के तीन चक्कर लगाने पर भी उनकी शिकायत कोरे कागज़ पर ही लिखी गई.
15 दिन बाद आखिरकार एक महिला कार्यकर्ता ने इलाके के डीसीपी से बात की तो एफ़आईआर लिखी गई, आरोपी लड़का गिरफ्तार हुआ और फौरन ही ज़मानत पर रिहा भी.
दिल्ली पुलिस का दावा है कि पिछले तीन महीनों में राजधानी की सड़कों पर पुलिस की तैनाती बढ़ाई गई है.
राखी के मुताबिक पुलिस थाने के बार-बार चक्कर लगाने से उनकी नौकरी चली गई और पुलिसवालों के उनके घर वर्दी में आने से आस-पड़ोस में बदनामी हुई.
राखी कहती हैं, “उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई मैं, पुलिस के पास जाने का सारा नुकसान मुझे ही हुआ, अब अपनी बेटियों की फिक्र लगातार लगी रहती है, मेरी सास ने तय कर लिया है कि हम उस इलाके में रहना छोड़ देंगे.”
राखी जैसी आपबीती कई महिलाओं ने मुझे सुनाई. ऐसी नाउम्मीदी है तो इन सभी ने पुलिस का दरवाज़ा खटखटाने का फैसला ही क्यों किया?

यौन हिंसा की शिकायतों में इज़ाफा

पिछले दस सालों से दिल्ली महिला आयोग के एक कार्यक्रम के तहत काम कर रही गरिमा, बलात्कार का शिकार हुई महिलाओं की काउंसलिंग करती हैं.
इसके तहत वो पीड़ित महिलाओं को मानसिक तौर से मज़बूत करना, उनके परिवार से बात करना और उन्हें उनके क़ानूनी हक के बारे में बताने जैसी सहायता देती हैं.
पिछले तीन महीनों में गरिमा के पास आने वाली महिलाओं की तादाद दोगुनी हो गई हैं.
"जिस तरह से लोगों ने प्रदर्शन किया, सार्वजनिक तौर पर यौन हिंसा के अपराधों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई, उससे महिलाओं को बल मिला."
गरिमा, काउंसलर
गरिमा कहती हैं, “जिस तरह से लोगों ने प्रदर्शन किया, सार्वजनिक तौर पर यौन हिंसा के अपराधों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई, उससे महिलाओं को बल मिला, अब वो हिंसा सहने की बजाय, हिम्मत कर अपनी शिकायत दर्ज कराना चाहती हैं.”
गरिमा के मुताबिक बलात्कार ही नहीं, यौन हिंसा के सभी मामलों में अब महिलाएं सामने आने लगी हैं.
हाल में संसद में पेश किए गए आंकड़ों से पता चला कि जनवरी में दिल्ली में हर रोज़ बलात्कार की चार घटनाएं हुईं.
इसपर दिल्ली पुलिस का कहना था कि ये कानून व्यवस्था खराब होने की नहीं, बल्कि महिलाओं के आगे आकर शिकायत दर्ज कराने की वजह से है.
यानि पुलिस, सरकार और समाज से संवेदना का हाथ अधमने ढंग से भी बढ़े तब भी महिलाएं अपने कदमों में तेज़ी लाने को तैयार हैं.

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