जहाँ तरबूज़ किसानों की जान बचा रहा है
रविवार, 31 मार्च, 2013 को 07:26 IST तक के समाचार
गर्मी के मौसम का लोकप्रिय फल
तरबूज़ अब आंध्र प्रदेश के सूखे से पीड़ित इलाक़ों के परेशान किसानों के लिए
आशा की एक नई किरण बन गया है.
महबूबनगर ज़िले के उन गाँवों में तरबूज़ की फ़सल
ने एक नई जान डाल दी है जहां बिजली-पानी की कमी, दूसरी फ़सलों के नष्ट हो
जाने, ठीक मूल्य न मिलने और क़र्ज़ के बोझ से परेशान
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किसान आत्महत्याएं कर रहे थे.
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आसान है खेती
एक किसान लक्ष्म्या कहते हैं, "जहाँ प्याज़ और धान जैसी फ़सलों के लिए बहुत पानी चाहिए वहीं तरबूज़ के लिए थोड़ा सा पानी भी काफ़ी हो जाता है. हमारे इलाक़े में पानी की बहुत क़िल्लत है और बिजली बहुत कम रहती है. ऐसे में अगर एक एकड़ फ़सल को एक घंटा पानी भी मिल जाए तो यह काफ़ी हो जाता है".क्लिक करें गोर्वंकोंडा गाँव ने ही कुछ वर्ष पहले इस इलाक़े में तरबूज़ की फ़सल शुरू की थी और उस की सफलता अब महबूबनगर ज़िले के सभी किसानों के लिए एक प्रेरणा बन गई है.
"जहाँ प्याज और धान जैसी फसलों के लिए बहुत पानी चाहिए वहीं तरबूज के लिए थोडा सा पानी भी काफी हो जाता है. हमारे इलाके में पानी की बहुत किल्लत है और बिजली बहुत कम रहती है. ऐसे में अगर एक एकड़ फसल को एक घंटा पानी भी मिल जाए तो यह काफी हो जाता है"
लक्ष्म्या, एक किसान
अच्छी क़ीमत
गोर्वकोंडा के ही एक और किसान पी देवेन्द्र का कहना है की अगर एक एकड़ पर 12 टन तरबूज़ का उत्पादन होता है तो इसका बाज़ार में पचास हज़ार रुपए से भी ज़्यादा मूल्य मिल जाता है जब की ख़र्च पचीस हज़ार रूपए तक आता है."ज़्यादा लाभ लेने के लिए हम उत्पाद थोक बाज़ार में नहीं बल्कि सीधे ग्राहकों को बेचने लगे हैं जिस से हमारा मुनाफ़ा दोगना हो गया है."
अधिकारियों का कहना है की तरबूज़ की खेती इतनी लोकप्रिय हो गई है की केवल महबूबनगर ज़िले में दस प्रतिशत किसान यही फ़सल उगाने लगे हैं.
इस इलाक़े में किसानों की समस्याओं पर गहरी नज़र रखने वाले रघुवीर कुमार का कहना है कि तरबूज़ की विशेषता यही है कि इस पर ख़र्च कम आता है और लाभ ज़्यादा मिलता है.
वो कहते हैं, "दूसरी फ़सलों के लिए बोरवेल मोटर पम्प, बिजली और पानी पर लाखों का ख़र्च आता है लेकिन तरबूज़ पर ऐसा नहीं होता और केवल तीन महीने में ही यह फ़सल तैयार हो जाती है."
जहाँ दक्षिणी भारत में तरबूज़ की फ़सल जनवरी से मार्च तक तैयार हो जाती है वहीं उत्तरी भारत में यह फल अगस्त-सितम्बर में बाज़ार में आता है.
पी देवेन्द्र का कहना है कि अब किसान तो इस फ़सल के लिए ड्रिप सिंचाई पद्धति का भी उपयोग करने लगे हैं और तरबूज़ की सफलता ने किसानों की आर्थिक हालत बदल कर रखदी है.
लेकिन सभी किसान इससे सहमत नहीं है की तरबूज़ सारी समस्याओं का हल है. इसी गाँव के बाला प्रसाद का कहना है कि उनकी आधी एकड़ भूमि पर लगातार दो बार तरबूज़ की फसल नष्ट हो गई .
उनका कहना था, "यह सही है की तरबूज़ एक लाभदायक फ़सल है लेकिन मेरे खेत पर दो बार कीटाणु का कुछ ऐसा हमला हुआ की पूरी फ़सल ही नष्ट हो गई. पता नहीं कि बीज ख़राब थी या कुछ और बात थी."
शिकायत
किसानों की शिकायत थी कि उन्हें इससे निबटने में कृषि विभाग या सरकार से कोई सहायता नहीं मिली.रघुवीर कुमार का कहना है की इस इलाक़े में पहले किसान अनेक कारणों से आत्माहत्या कर रहे थे लेकिन इसमें भी अब काफ़ी कमी आई है और इसमें तरबूज़ की एक मुख्य भूमिका है.
लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों की तरह किसान भी कहते हैं की केवल एक प्रकार की फ़सल उगाने की व्यवस्था अच्छी नहीं हो सकती और यह जल्द ही दम तोड़ देगी.
एक किसान काले गोपाल का कहना था, "किसानों के कष्ट का समाधान यह नहीं है की सभी एक जैसी फ़सल उगाने लग जाएं. अगर तरबूज़ का उत्पाद बढ़ जाए तो उस की क़ीमत भी गिर जाएगी."
भारत में इस समय केवल ढाई लाख एकड़ पर ही तरबूज़ की खेती होती है. किसान कहते हैं कि इस बात की गुंजाइश है कि सूखे से पीड़ित इलाक़ों में इस फ़सल को और भी बढ़ावा दिया जाए.
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