आरटीआई पर पार्टियों ने लगाया 'पाखंड का पर्दा'
गुरुवार, 6 जून, 2013 को 07:23 IST तक के समाचार
भारत के मुख्य सूचना आयोग की पूर्ण बेंच ने छह राजनीतिक दलों को क्लिक करें
सूचना के अधिकार के दायरे में लाकर उस वैश्विक प्रवृत्ति की ओर कदम बढ़ाया है, जिसका उद्देश्य लोकतंत्र को पारदर्शी बनाना है.
पर प्रतिक्रिया में लगभग सभी दलों ने कहा है कि हम
सरकारी संस्था नहीं हैं. यानी वे इसके मर्म से बचते हुए तकनीकी पहलुओं पर
ज्यादा बात कर रहे हैं.मसलन दुनिया भर में दवा बनाने वाली कंपनियाँ अपनी दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए डॉक्टरों की मदद लेती है. यह बात मरीज़ के हितों के खिलाफ जाती है.
डॉक्टर और मरीज़ का रिश्ता
अमरीका में कानूनी व्यवस्थाओं के तहत 15 कंपनियों ने इस जानकारी को सार्वजनिक करना शुरू किया है. फिजिशियंस पेमेंट सनशाइन ऐक्ट का उद्देश्य मरीज़ और इलाज़ करने वालों के बीच हितों के टकराव को साफ करने के लिए पारदर्शिता कायम करना है.स्वास्थ्य सेवाएं सेंटर्स फॉर मेडिकेयर और मेडिकेड सर्विसेज़ को जानकारियाँ देंगी, जो सितंबर 2014 से शुरू होने वाली वेबसाइट पर इसे सार्वजनिक रूप से डाल देंगी. यों ऐसी कुछ वेबसाइट हैं(क्लिक करें http://projects.propublica.org/checkup/), जिनमें आप किसी डॉक्टर का नाम लिखकर पता लगा सकते हैं कि उन्हें किस कंपनी से कितना रुपया मिला.
ऐसी सेवाएं पारदर्शी माहौल बनाती हैं, जिससे नागरिक का विश्वास बढ़ता है.
हितों के टकराव की बात इन दिनों भारतीय क्रिकेट का संचालन करने वाली संस्था और उससे जुड़े लोगों के बारे में कही जा रही है.
मोटी बात यह है कि सार्वजनिक जीवन को प्रभावित करने वाले कार्यों में पारदर्शिता होनी चाहिए. भारत जैसे देश में राजनीति से ज्यादा सार्वजनिक और क्या हो सकता है?
राजनीतिक दलों का पाखंड
मसलन कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने कहा है कि पार्टियां किसी कानून से नहीं बनी हैं. वे सरकारी ग्रांट पर नहीं चलती हैं.
सच यह है कि पार्टियों तक सरकारी साधनों की पहुँच सिर्फ इसलिए है कि वे सरकारी व्यवस्था को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संचालित करती हैं. मसलन तमिलनाडु की पार्टी डीएमके परोक्ष रूप से देश की विदेश नीति को प्रभावित इसीलिए कर पाती है क्योंकि वह इस व्यवस्था का अंग है.
सरकार की तमाम नीतियों को राजनीतिक दल परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं. वे सत्ता का संचालन करने की अनुमति जनता से माँगते हैं तो उन्हें अपनी खिड़कियों पर पड़े पर्दे हटाने चाहिए.
हलफनामों की शुरूआत
कहना मुश्किल है कि पार्टियाँ इस मामले पर अदालत में जाएंगी या नहीं, लेकिन यह जून 2002 में मुख्य चुनाव आयुक्त की उस अधिसूचना की याद दिलाता है, जिसके तहत चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिए अपनी आपराधिक और वित्तीय जानकारियाँ देने के लिए कहा गया था.अंततः यह व्यवस्था को खोलने की बात है. संभव है कल कुछ दूसरे क्षेत्रों के दरवाज़े खोलने की ज़रूरत पैदा हो, जिन्हें आज हम औपचारिक रूप से सरकारी व्यवस्था का हिस्सा नहीं मानते.
डर किस बात का है
"असोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म(एडीआर) और उससे जुड़ी संस्था इलेक्शन वॉच लोकतांत्रिक पारदर्शिता पर काम कर रही है"
देश में अब ऐसी संस्थाएं विकसित हो रहीं हैं, जो प्रशासनिक निर्णयों से किसी को होने वाले फायदों और नुकसानों पर नज़र रखती हैं.
धीरे-धीरे ऐसी संस्थाएं विकसित होंगी. मसलन एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) और उससे जुड़ी संस्था इलेक्शन वॉच लोकतांत्रिक पारदर्शिता पर काम कर रही है.
देश में 20 हजार रुपए से ज्यादा चंदा लेने पर पार्टियों को इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को सूचना देनी होती है. पर पार्टियां 20 हजार से कम की कई किस्तों में पैसा लेती हैं. ऐसे में पता नहीं चलता है कि किसने कितनी रकम दी है और क्यों दी है. इसलिए तफसील की ज़रूरत होगी.
जनप्रतिनिधियों की बढ़ती अमीरी
सिद्धांततः संसद या विधानसभाओं की सदस्यता लाभ का पद नहीं है. पर व्यवहार में बड़ी संख्या में जन प्रतिनिधियों की आय उस दौरान काफी तेजी से बढ़ती है, जब वे जन प्रतिनिधि होते हैं.ऐसा माना जाता है कि विधान सभा का चुनाव लड़ने के लिए भी कई प्रत्याशी पाँच-दस करोड़ से लेकर 20 करोड़ रुपए तक खर्च कर देते हैं.
अब भी अधिकतर राजनेता इसे अपर्याप्त मानते हैं. एक ओर यह सच है दूसरी ओर चुनाव के बाद दाखिल होने वाले खर्च के ब्यौरों में आधे से ज्यादा में खर्च सीमा से कहीं कम होता है.
जनता की पहल
नब्बे के दशक में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स(एडीआर) और अनेक नागरिक अधिकार संगठनों ने राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ आंदोलन चलाया. उन्होंने पार्टियों पर इस बात के लिए ज़ोर डालना शुरू किया कि वे ऐसे व्यक्तियों को टिकट न दें जिनके खिलाफ आपराधिक मामले हैं.एडीआर ने इस अधिकार को हासिल करने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की. हाईकोर्ट ने जब इस अधिकार के पक्ष में फैसला किया तो सरकार सुप्रीम कोर्ट गई. सुप्रीम कोर्ट ने दो मई 2002 के एक फैसले में कहा कि वोटर को प्रत्याशियों की आपराधिक और वित्तीय पृष्ठभूमि जानने का अधिकार है.
सरकार तब भी टालमटोल कर रही थी कि चुनाव आयोग ने 28 जून को अदालत के आदेश का पालन करते हुए अधिसूचना ज़ारी कर दी. इसके तहत प्रत्याशी को अपने खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों के अलावा अपनी संपत्ति और आय के बारे में जानकारी देना ज़रूरी कर दिया गया.
सरकारी अध्यादेश
उस वक्त देश में एनडीए की सरकार थी और राष्ट्रपति एपीजे कलाम ने एक महीने पहले ही कार्यभार सम्हाला था. नागरिक संगठनों के विरोध को देखते हुए उन्होंने 23 अगस्त को यह अध्यादेश सरकार के पास पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया.
लेकिन कैबिनेट ने इसे पूर्ववत जारी करने का फैसला किया. राष्ट्रपति के पास उसे स्वीकार करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.
इसके बाद संसद ने इस अध्यादेश के स्थान पर जन प्रतिनिधित्व (तीसरा संशोधन) अधिनियम 2002 पास कर दिया, जिससे सरकार और समूची राजनीति की मंशा ज़ाहिर हो गई. इस संशोधन के माध्यम से जनप्रतिनिधित्व कानून में 33-बी को जोड़ा गया, जो वोटर के जानकारी पाने के अधिकार को सीमित करता था.
आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 13 मार्च 2003 के अपने ऐतिहासिक फैसले में वोटरों को प्रत्याशी के बारे में जानकारी पाने का मौलिक अधिकार दिया और चुनाव आयोग की अधिसूचना को वैधता प्रदान की. दरअसल अदालत ने इसे संविधान के अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के साथ जोड़ा.
कोई वोटर लोकतंत्र में अपने मौलिक अधिकार को तब तक हासिल नहीं कर सकता, जब तक उसे तथ्यों की पूरी जानकारी न हो. लोकतांत्रिक व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की प्रक्रिया केवल इतने मात्र से पूरी नहीं होती है.
घोटाले और राजनीति
अधिकतर रकम राजनीति से जुड़े लोगों तक जाती है. इस रकम का इस्तेमाल चुनावों में होता है. यह रकम काले धन के रूप में होती है, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है. साथ ही इसके कारण अक्सर गलत प्रशासनिक निर्णय होते हैं.
अन्ना-आंदोलन शुरू होने पर सबसे पहले कहा गया कि चुनाव का रास्ता खुला है. आप उधर से आइए. पर चुनाव का रास्ता बेहद मुश्किल है. इसमें व्यवस्थित रूप से बैरियर लगे हैं जो सीधे-सरल और ईमानदार लोगों को रोक लेते हैं.
पावर गेम
यह पावर गेम है. इसमें 'मसल और मनी' दिमाग़ पर हावी रहते हैं. चुनाव सुधार का काम लंबे समय से राष्ट्रीय रडार पर है. चूंकि बदलाव करने वाली व्यवस्था वही है जिसमें बदलाव होना है, इसलिए विसंगतियों की भरमार है.इस तरह के अधिकार सुनने में जितने अच्छे लगते हैं, व्यवहार में उनमें उतने ही पेच हैं. शिक्षा का प्रसार पर्याप्त नहीं है. जानकारी के माध्यमों यानी मीडिया की दशा खराब है. वे जनपथ बाजार की तरह बोली लगाकर माल बेचते हैं. वोटर को प्रशिक्षित करने वाले संगठनों की संख्या बेहद कम है. एनजीओ-संस्कृति भी मीडिया-कारोबार की तरह कमाई-केंद्रित है.
फिर भी बदलाव हुआ है. 1990 में गोस्वामी समिति, 1993 में वोहरा समिति, 1998 में चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग पर विचार के लिए इंद्रजीत गुप्त समिति, 1999 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की रपट, 2001 में संविधान पुनरीक्षा आयोग की सिफारिशें, 2004 में चुनाव आयोग के प्रस्ताव और 2007 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को एक साथ रखकर पढ़ें तो समझ में आता है कि बदलाव की काफी गुंजाइश मौजूद है.
जन-प्रतिनिधि से पहले जनता
अभी तक गलत चुनाव में विवरण देने पर कठोर सजा की व्यवस्था नहीं है. अब जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 125 ए में बदलाव की ज़रूरत है.
हॉर्स ट्रेडिंग हमारी राजनीति का परिचित शब्द है. हम सिर्फ प्रत्याशियों से पैसों का विवरण माँगते हैं. पार्टियों से भी माँगना चाहिए. हमने जिस संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था का वरण किया है, उसमें जनता का हस्तक्षेप बुनियादी शर्त है.
लोकतंत्र केवल चुनाव लड़ना ही नहीं है, चुनाव की पद्धति को दुरुस्त करना भी है. पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाना सुधार का एक हिस्सा है.
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