शुक्रवार, 29 जून 2012

भारत में ‘सम्मान हत्याएँ’ : एक शर्मनाक अध्याय

भारत मेंसम्मान हत्याएँ’ : एक शर्मनाक अध्याय



[यह शोध लेख देश के एक शर्मनाक अध्याय पर है । क्योंकि शोधलेख है इसलिए इसमें वैसी विचारोत्तेजना नहीं जैसी अक्सर लेखों में होती है या होनी चाहिए । गंभीर और कुछ बड़ा भी है इसलिए धैर्य की अपेक्षा है । हम दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था और महाशक्ति वगैरह होने का दावा कर रहे हैं । ऐसे में समाज का यह रूप कहां फिट होता है ! एक हत्या हजार सुकर्मों को मिटा देती है। पिछले दिनों दुनिया में जितने सर्वेक्षण हुए उनमें गलत चीजों में हम सबसे ऊपर और अच्छी चीजों में सबसे नीचे रहे हैं । ऐसे में यह महामारी तो रहे-सहे पर भी पानी फेरने वाली है । बाहर के लोगों की सुविधा के लिए इसे अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया है।]
प्रस्तावना
प्रारंभ में ही यह स्पष्ट करना जरूरी है कि इस आलेख के केंद्रीय विषय के रूप में जिन हत्याओं को लिया गया है उन्हें अंग्रेजी में ‘आनर किलिंग’ (सम्मान हत्याएँ) के नाम से जाना जाता है । हत्याओं के साथ ‘आनर’ या ‘सम्मान’ शब्द जोड़ना इसलिए अटपटा लगता है कि इस शब्द के माध्यम से इनके पीछे की नृशंसता और बर्बरता ओझल हो जाती है । अनेक लोगों ने इसे ‘सांस्कृतिक अपराध’ कहने की कोशिश की है । लेकिन क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और समुदाय के बीच यही शब्द प्रचलित हो गया है इसलिए यहां उसी शब्द का प्रयोग किया गया है । इसी के साथ यह कहना जरूरी है कि हालांकि इस समस्या के सभी संभव पहलुओं पर यहां विचार किया गया है,फिर भी एक सांस्कृतिक क्षेत्र के व्यक्ति के नाते उसमें सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष पर जोर हो तो यह स्वाभाविक ही होगा ।
आजादी के बाद से लगातार भारतीय समाज नारी भ्रूण हत्या और दहेज प्रथा और उसके लिए की जाने वाली महिलाओं की हत्याओं के अभिशाप से जूझ रहा था कि उसमें एक नई प्रकार की जघन्य हत्याओं का अध्याय जुड़ गया । पिछले कुछ वर्षों में भारत में हत्याओं का एक नया रूप सामने आया है,जिन्हें सामान्यतः ‘सम्मान हत्याओं’ का नाम दिया गया है । इन हत्याओं के संबंध में किसी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था ने आंकड़े जुटाने का काम नहीं किया है इसलिए उनकी वास्तविक संख्या के बारे में अलग-अलग अनुमान ही लगाए जा सकते हैं । वर्ष २००२-३ में महिला हितों की रक्षा करने वाली संस्था ‘अखिल भारतीय जनवादी महिला संगठन’ ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक जिले मुजफ्फर नगर में पड़ताल करने पर पाया कि जहां २००२ में दस हत्याओं के मामले सामने आए वहां २००३ के पहले नौ महीनों में ही तेरह हत्याएँ हो चुकी थीं । इनमें वे पैंतीस जोड़े शामिल नहीं हैं जिन्हें ‘लापता’ घोषित कर दिया गया । ये आंकड़े केवल एक ही जिले के हैं और थाने में दर्ज की गई रिपोर्टों के आधार पर हैं । सभी जानते हैं कि इन हत्याओं के मामले अक्सर पुलिस तक पहुंचते ही नहीं,उन्हें आत्म-हत्या,प्राकृतिक कारणवश मृत्यु या पुराने रोग से हुई मृत्यु के नाम पर छिपा लिया जाता है । और क्योंकि समाज के शक्तिशाली तबके,प्रशासनिक तंत्र और पुलिस तंत्र मिलीभगत से काम करते हैं इसलिए ये मामले कभी सामने नहीं आते । सन २०१० में चंडीगढ़ के दो वकीलों (अनिल और रंजीत मल्होत्रा) ने इन मामलों की पड़ताल करने पर पाया कि भारत में हर साल लगभग एक हजार ‘सम्मान हत्याएँ’ होती हैं । उनके अध्ययन के अनुसार इनमें से लगभग नौ सौ हत्याएँ अकेले पंजाब,हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होती  हैं ।
पहले यह मान लिया जाता था कि इस तरह के कुकृत्य अशिक्षा और सामंती सोच के गढ़ माने जाने वाले बिहार,पूर्वी उत्तर प्रदेश या उड़ीसा आदि के पिछड़े ग्रामीण इलाकों में ही होते हैं । लेकिन हाल में हुई इन हत्याओं और उनपर हुए अध्ययनों से यह तथ्य सामने आया कि ये हत्याएँ उन क्षेत्रों में अधिक हुईं जिन्हें खेती में हरित क्रांति या आधुनिक पूंजीवादी विकास के संपन्न क्षेत्र माना जाता है । यही नहीं,यह भी देखा गया कि केवल गांवों में ही नहीं,बल्कि कस्बों,शहरों और यहां तक कि महानगर के समृद्ध इलाकों में भी ये घटनाएँ   घटीं । ऐसी स्थिति में यह जरूरी है कि इस समस्या का व्यापक संदर्भों में गहन अध्ययन किया जाय ।
सम्मान हत्याओं का सामान्य अर्थ
‘सम्मान हत्या’ सामान्यतः परिवार के एक सदस्य या सामाजिक समूह की दूसरे परिवार सदस्यों या सामाजिक समूह द्वारा की गई हत्या है जिसमें हत्या करने वाले या समुदाय यह मानकर चलते हैं कि ‘अपराधी’ व्यक्ति ने परिवार या समुदाय के सम्मान को ठेस पहुंचाई है । सिद्धांत रूप से इन हत्याओं का शिकार होने वाला किसी भी लिंग का हो सकता है – पुरुष या स्त्री । लेकिन सच्चाई यह है कि इन हत्याओं की अधिकांश शिकार महिलाएँ और युवा लड़कियां ही हुई हैं और हो रही हैं । जहां पुरुषों को इसका शिकार बनाया गया उसके मूल में भी महिलाएँ या लड़कियां ही कारणभूत रही हैं । इससे यह मानना होगा कि इन जघन्य हत्याओं के पीछे पुरुष-प्रधान समाजों और उनमें महिला असमानता और उत्पीड़न के प्रचलित दृष्टिकोण के अवशेष सक्रिय हैं ।
परिवार या समाज जिन कारणों से ‘असम्मान’ या ‘बेइज्जती’ अनुभव करता है उनमें प्रायः ये व्यवहार या तो पाए गए या उनका शक किया गया – (अ) शादी से संबंधितः इसके अंतर्गत जब कोई स्त्री या तो परिवार द्वारा तयशुदा शादी से इन्कार करे या तयशुदा की गई शादी की अवमानना करने या उससे बाहर आने की कोशिश करे । इसी के अंतर्गत,जब कोई महिला या लड़की जाति या वर्ग की सीमाओं को लांघ अपनी इच्छा से अपनी शादी का चुनाव करे । (आ) तथाकथित यौन दुष्कर्मः जब कोई स्त्री पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से शारीरिक संबंध बनाए या ऐसे किसी भावात्मक संबंध का शक हो । समलैंगिक संबंध भी यौन दुष्कर्म और ‘सम्मान हत्याओं’ के दायरे में आते हैं ।(इ) वेशभूषा के कोड का उल्लंघनः ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब परिवार या समुदाय महिलाओं के लिए एक विशेष वेशभूषा का आग्रह करें और स्त्री शिक्षा,स्वतंत्रता,आधुनिकता आदि कारणों से उसका उल्लंघन करे ।

‘सम्मान हत्याओं’ की व्याप्ति
यह मानने का कोई कारण नहीं है कि सम्मान हत्याएँ केवल भारत या भारतीय समाज तक सीमित हैं । इस समस्या के अध्ययन से पता चलता है कि इसका प्रसार अत्यंत व्यापक है । यह कहा जा सकता है कि विश्व इतिहास और भूगोल के  बड़े हिस्से इसके प्रभाव में रहे हैं । दुनिया के प्राचीन इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जब ‘सम्मान हत्या’ के ऊपर दिए कारणों में से किसी के आधार पर स्त्रियों की हत्या की गई । दुनिया में सबसे पुराना लिखित कोड बैबीलोनिया के हम्मुराबी कोड के नाम से मशहूर है जो १७०० शताब्दी ईसापूर्व लिखा गया और जिसका एक तिहाई हिस्सा पारिवारिक रिश्तों,स्त्री के आचरण आदि के संबंध में है । इसमें स्त्री के गलत आचरण(?) पर हत्या का विधान है ।[iii] स्वयं रोमन साम्राज्य में ‘परगमन’ करने वाली स्त्री की हत्याओं की घटनाएँ हैं । भारत में ये घटनाएँ अनेकानेक मिथकों के नीचे छिपी मिलती हैं । इसलिए यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि यदि इस दृष्टि से शोध किया जाय तो पाएँगे कि विश्व इतिहास में ‘सम्मान हत्याओं’ की भरमार है । इसमें कोई सभ्यता या संस्कृति किसी से पीछे नहीं है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की जनसंख्या फंड की रिपोर्ट के तीसरे अध्याय[iv] के अनुसार दुनिया में हर साल ५००० स्त्रियों और लड़कियों की हत्या उसके परिवार या समुदाय के लोगों द्वारा की जाती है । समुदायों द्वारा की जाने वाली इन ‘सम्मान हत्याओं’ का संबंध स्त्री की ‘विशुद्धता’ और ‘कौमार्य’ रक्षा से है । इस तरह का जघन्य कार्य करने वाले अक्सर मामूली सजाओं से ही छूट जाते हैं क्योंकि परिवार की इज्जत का मामला क्षम्य अपराध मान लिया जाता है । इस तरह की हत्याएँ बंगला देश,पाकिस्तान,ब्राजील,एक्वाडोर,मिस्र,भारत,पाकिस्तान,मध्य एशिया के देशों,तुर्की जैसे देशों में की गईं । [v] इन देशों की सूची में कुछ पश्चिमी देशों का भी नाम है,लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि वहां ये घटनाएँ उन प्रवासियों द्वारा की गईं जो उपर्युक्त देशों से वहां जाकर बसे थे । मध्यपूर्व और दक्षिण एशिया के देशों के अनेक महिला संगठनों ने इस रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि हत्याओं के ये आंकड़े अधूरे हैं क्योंकि अकेले पाकिस्तान में ही इतनी हत्याएँ होती हैं । उनके अनुसार,हत्याओं की संख्या कम-स-कम इससे चार गुना तो है ही ।
रिपोर्ट में कितने ही देशों में की जा रही इन हत्याओं के रोंगटे खड़े कर देने वाले बयान हैं । रिपोर्ट के अनुसार यह  भीषण त्रासदियां,भयभीत करने वाली घटनाएँ और मानवता के विरुद्ध किए गए भीषण अपराध हैं जिनमें महिलाओं और युवा लड़कियों के सिर काटे गए,उन्हें जिंदा जलाया गया,पत्थरों से मार डाला गया,उन्हें छुरे घोंपे गए,फांसी पर लटकाया गया,बिजली के झटके दे मारा गया,जिंदा दफ्नाया गया,तेजाब फेंक शरीर विकृत किया गया,उन्हें सड़कों पर नंगा घुमाया गया और उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया ।[vi]
‘सम्मान हत्याए’ -  मुस्लिम समाज तक सीमित होने का मिथ


संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा २ जुलाई,२००२ को जब ‘ सम्मान के नाम पर स्त्रियों के विरुद्ध अत्याचारों की समाप्ति के लिए’ अपने पूर्व के पारित प्रस्ताव संख्या ५५/६६ पर हुए कामों का जायजा लेने के लिए बैठी तो महासचिव ने अपनी रिपोर्ट में देशों से प्राप्त जो तथ्य पेश किए उनसे ऐसा आभास मिलता था कि इन सम्मान हत्याओं का मुख्य जिम्मेदार मुस्लिम समाज है । उसके लिए मुस्लिम देश भी उतने ही जिम्मेदार ठहरे क्योंकि उनमें से अनेक में न केवल इन हत्याओं को रोकने,अपराधियों को दंड देने के लिए कोई कानून नहीं हैं बल्कि अनेक में उसे अपराध तक भी स्वीकार नहीं किया जाता । इस प्रस्ताव पर प्रस्तुत इस रिपोर्ट में कहा गया –
“ अधिकांश ‘ सम्मान अपराध ‘ या तो मुस्लिम देशों में होते हैं या प्रवासी मुस्लिम समुदायों में । यूरोप के देशों में भी इस तरह के अपराधों के लिए प्रवासी मुस्लिम समुदाय ही जिम्मेदारहै । ….यह भी एक विडंबना है कि स्वयं इस्लाम सम्मान संबंधित हत्याओं के लिए प्रस्तावित मृत्युदंड का समर्थन नहीं करता और अनेक इस्लामी नेताओं ने धर्म के आधार पर इस तरह की सजा की मुखालफत की है ।…. इस तरह की तथाकथित ‘सम्मान हत्याओं’ के मामले में सख्त कदम उठाने में निष्क्रियता उन देशों में देखी जाती है जो जो उन्हें समुदाय की परंपरा या रिवाज ठहराते हैं (लेबनन,पाकिस्तान,जोर्डन आदि)…कुछ देश समझते हैं कि रीति-रिवाज और परंपराएँ किसी भी देश या समुदाय की संस्कृति की अभिव्यक्ति होती हैं इसलिए उनका सम्मान किया जाना चाहिए और उन्हें मानव अधिकारों की वैश्विक उद्घोषणा के आधार पर नहीं परखा जाना चाहिए । यह समझ एकदम गलत है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की दिसंबर,१९९३ की ‘स्त्रियों के विरुद्ध तमाम हिंसा रोको’ की उद्‍घोषणा में स्पष्ट कहा गया है कि ‘ कोई देश इसके पालन में अपने रिवाजों या परंपराओं का हवाला नहीं देगा।‘ ” [vii]
संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न समितियों,सभाओं और रिपोर्टों में यह बात उभर कर आई कि यह जघन्य अपराध मुख्यतः मुस्लिम देशों या मुस्लिम समाजों में होते हैं जिसके कारण पितृसत्तात्मकता,धार्मिक कट्टरता,पिछ्ड़ापन,कबीलाई मानसिकता,सामंती सोच और ‘ज़र,ज़ोरू,ज़मीन’ की निपट भौतिकता में थे ।  लेकिन धीरे-धीरे जब अन्य देशों और समुदायों से इन अपराधों के बढ़ने की सूचनाएँ आने लगीं तो मुस्लिम देश केंद्रित इस विवेचन में फेरबदल होना शुरू हुआ । भारत में ‘सम्मान हत्याओं’ की तेजी से बढ़ती घटनाओं ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान कुछ अन्य कारकों की तरफ आकृष्ट किया ।
भारत को आज़ाद हुए आधी शताब्दी से अधिक बीत गई और यहां के जनतंत्र को दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र कहा गया । भारतीय संविधान में स्वतंत्रता,समानता,धर्म-निरपेक्षता को सबसे ऊंचा दर्जा दिया गया । हिंदू समाज में व्याप्त जाति-आधारित भेद-भाव को दूर करने के लिए न केवल संवैधानिक प्रावधान किए गए बल्कि समय-समय पर जाति आधारित आरक्षण नीतियों को लागू करके विभेद को पाटने की कोशिश की गई । यह भी तथ्य है कि चींटी की चाल से ही सही,भारत ने आर्थिक क्षेत्र में अन्य तीसरी दुनिया के देशों की तुलना में अधिक विकास किया और फिलहाल तो वह चीन के बाद सबसे तेजी से विकसित होने वाली अर्थ-व्यवस्था है । पिछले अनेक वर्षों में उसके दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की चर्चा जोरों पर है । ऐसी स्थिति में ‘सम्मान हत्याओं’ का इतनी तेजी से उभार और फैलाव विश्व समुदाय और स्वयं भारत के विचारकों के लिए आश्चर्य की बात थी ।
भारत में ‘सम्मान हत्याओं ‘ का आधुनिक इतिहास

हालांकि भारत में तथाकथित सम्मान हत्याओं का सतत सिलसिला हाल के वर्षों की बात है,लेकिन ऐसा नहीं है कि इस तरह की हत्याओं से इससे पहले समाज परिचित नहीं था या कि नारी ने इनकी यातना नहीं सही थी । विभाजन की विभीषिका में उसका घिनौना रूप सामने आया था । विभाजन के दौरान बहुत सी महिलाओं को जबरन विवाह करना पड़ा जिसमें भारत की स्त्री और पाकिस्तान का पुरुष या उसके एकदम उलट विवाह किए गए । लेकिन जब ये स्त्रियां अपने घर लौटीं तो उन्हें समाज या धर्म से बहिष्कृत करने की जगह सरल रास्ता हत्या का खोजा गया जिससे कि परिवार का ‘सम्मान’ बचाया जा सके । इस तरह सैकड़ों महिलाओं की हत्या हुई । लेकिन क्योंकि ये वर्ष काफी अफ़रा-तफ़री और संकट के थे,इसलिए इस पर किसी ने अधिक ध्यान नहीं दिया । ये ह्त्याएँ बर्बरता के इतिहास में उल्लेख योग्य स्थान भी नहीं बना पाईं । इस मुसीबत को शरणार्थियों के जीवन की अनेकानेक मुसीबतों में से ही एक मान लिया गया । और क्योंकि देश नया आज़ाद हुआ था और स्वतंत्र देश का संविधान तक नहीं था इसलिए ये बर्बर ‘सम्मान हत्याएँ’ गुमनामी के गर्त में दबकर रह गईं ।
‘सम्मान हत्याओं’ का  नया दौरः (अ) जाति आधारित हत्याएँ

   

यह बता पाना तो मुश्किल है कि स्वतंत्रता के बाद इस तरह की हत्याओं की वास्तविकता क्या है क्योंकि इस तरह के कोई आंकड़े तैयार नहीं किए गए । समस्याग्रस्त देश में यह भी एक समस्या है कि कितनी समस्याओं का लेखा-जोखा रखा जाय । जब जो समस्या सबसे उग्र रूप धारण कर प्रकट होती है और एक सिलसिले के रूप में सामने आने लगती है,तभी उसपर ध्यान केंद्रित हो पाता है । उससे पहले होने वाली छिटपुट घटनाओं की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता । इसीलिए उसके न तथ्य उपलब्ध होते हैं,न आंकड़े ।  स्वतंत्रता के बाद नारी पर अत्याचार और बर्बरता के जो दो मुख्य स्वरूप सामने आए उनमें एक था गर्भ में लड़की की भ्रूण हत्या का और दूसरा था दहेज हत्याओं का । इन दोनों पर ही जन संचार माध्यमों और लोगों का ध्यान केंद्रित रहा । इसलिए इस बीच यदि ये ‘सम्मान हत्याएँ’ भी होती रहीं तो उनकी इन दो ह्त्याओं से तुलनात्मक न्यूनता के कारण इनकी ओर अधिक ध्यान नहीं गया ।
‘सम्मान हत्याओं’ पर ध्यान पिछले एक दशक में गया जब एक-के-बाद-एक सैकड़ों हत्याओं का सिलसिला सामने आया । पिछले कई वर्षों से कोई दिन ऐसा नहीं रहा जब कहीं से ‘सम्मान हत्या’ का समाचार न मिला हो । इसलिए यह कहना होगा कि नारी के प्रति बर्बरता का यह नया अध्याय पिछले एक दशक में सबसे विकराल रूप धारण कर सामने आया । इसकी वस्तुस्थिति,कारणों,व्याख्या-विश्लेषण और निराकरण-निदान में जाने से पहले उसके कुछ भिन्नतामूलक पहलुओं को समझना जरूरी है । इसके लिए पिछले दिनों हुई हत्याओं में से कुछेक घटनाओं को उदाहरण स्वरूप लिया जाना जरूरी है जो सारे परिदृश्य को सामने लाने वाले हों ।
जाति आधारित हत्याओं में बड़ी संख्या ऐसी हत्याओं की है जिनमें लड़के या लड़की में से कोई एक निम्न जाति से संबंधित रहा है । लड़के या लड़की में से एक जरूरी नहीं कि ब्राहमण या क्षत्रिय जाति का ही हो । वह उच्च या मध्यवर्ती जातियों या पिछड़ी जातियों का भी हो सकता है । लेकिन एक निम्न जाति का होता है ।
जाति आधारित सम्मान हत्याओं में १९९१ का मेहराना कांड पहली ध्यान खींचने वाली घटना माना जा सकता है  । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उपर्युक्त जाट गांव की लड़की रोशनी निम्न जाति मानी जाने वाली जाटव जाति के लड़के विजेंद्र के साथ घर छोड़ कर भाग गई । इसमें लड़के के एक दोस्त ने भी मदद की । लेकिन तीनों पकड़े गए । जाट पंचायत रात भर बैठी जिसमें उन पर रात भर ज़ुल्म ढहाए गए । सुबह उन्हें पेड़ से लटका कर जिंदा जला दिया गया । यह भीषण हत्याकांड सारे गांव के लोगों के सामने हुआ । सारे गांव के लोगों ने प्रेस और पुलिस के सामने इस हत्या को गांव की इज्जत बचाने के नाम पर सही ठहराया । यहां तक कि उस जाति के किसान नेता भी गांव के साथ थे ।[viii]
केवल यही नहीं कि उच्च और निम्न जातियों के बीच सबंध बनाने की कोशिशों के कारण हत्याएँ की गईं,अनेक ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें लड़का और लड़की में से कोई भी निम्न जाति का नहीं था,बल्कि दोनों ही उच्च या मध्य जातियों से थे । इस तरह की घटनाओं में अगस्त,२००१ में उत्तरप्रदेश के नगर मुजफ्फरनगर में एक जाट की लड़की सोनू का ब्राह्मण लड़के विशाल से प्रेम संबंध हुआ तो पहले तो लड़की सोनू के पिता ने उसे गले में रस्सी डालकर मार दिया । फिर लड़के विशाल के ब्राह्मण परिवार से भी उनके लड़के को मारने के लिए कहा और उन्होंने भी विशाल को मार दिया । गांव में यह घटना सबकी जानकारी में थी लेकिन किसी ने उसे स्वीकार नहीं किया ।[ix] 
 (आ) समगोत्रिक हत्याएँ


इन हत्याओं में जातिगत आधार नहीं था बल्कि लड़का और लड़की एक ही जाति के थे । यहां मामला एक गांव या गोत्र का होने का है । उदाहरण के लिए मनोज और बबली नामक युवक-युवती को लिया जा सकता है । दोनों जाट समुदाय से थे और समुदाय के एक ही गोत्र ‘बनवाला’ से थे । यह माना जाता है कि एक गोत्र के लोग कई पीढ़ी पहले एक ही माता-पिता की संतान रहे होंगे,भले ही वे अलग गांवों या इलाकों में पाए जाते  हों । इस विश्वास के अनुसार एक गोत्र के लड़के-लड़की को भाई-बहन माना जाता है  और धर्मशास्त्र के अनुसार ऐसी शादी को अनुचित ठहराया जाता है । लेकिन बबली और मनोज ने इसकी परवाह किए बिना प्रेम-विवाह कर लिया । दोनों घर छोड़कर भाग रहे थे कि लड़की के घर वालों ने उन्हें रास्ते में पकड़ लिया और बेरहमी से मारकर दोनों की लाशों को बोरियों में बंद कर नहर में दबा दिया गया । [x]
‘सम्मान हत्याओं’ संबंधी तथ्यों का आकलन
इन हत्याओं की हजारों घटनाओं के आधार पर यदि निष्कर्ष निकाले जाएँ तो कुछ सामान्य बातें सामने आती हैं । सबसे पहली बात तो यही है कि इन हत्याओं के शिकार युवा वर्ग के लोग हुए हैं,जिनकी औसत आयु १८ से २८ वर्ष के बीच है । दूसरे,सभी मामले इन युवाओं ने परिवार की सहमति और इच्छा को त्याग स्वतंत्र आधार पर या तो प्रेम किया है या एक-दूसरे को अपना जीवन साथी बनाने का निर्णय लिया है । उनमें से अनेक का विवाह संपन्न भी हुआ और कई ने पुलिस और राज्य को इसकी सूचना देकर अपनी सुरक्षा की अपील भी   की । तीसरे,अधिकांश हत्याएँ जातिगत आधार पर ही की गई हैं । भारत के ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ द्वारा अभी तक ह्त्या के ३२६ मामलों का सर्वेक्षण करने के बाद यह निष्कर्ष निकला कि इनमें ७२ % जोड़ों ने जाति की सीमाओं का उल्लंघन किया था और केवल ३% प्रतिशत मामले सगोत्र प्रेम या विवाह के थे । चौथे,पहले आम तौर पर यह माना जाता था कि इस तरह की घटनाएँ सामंती सोच के गढ़ रहे पिछड़े  ग्रामीण क्षेत्रों में ही होती हैं । इसके लिए बिहार और उड़ीसा का नाम अक्सर लिया जाता था । लेकिन तथ्यों से यह स्पष्ट हुआ कि अधिकांश हत्याएँ पंजाब,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन क्षेत्रों में हुईं जो आर्थिक दृष्टि से ही अधिक संपन्न नहीं हैं बल्कि जिन्हें काफी हद तक सामंतवाद की जकड़ से मुक्त समझा जाता था । कॄषि में हरित क्रांति का सफल प्रयोग यहीं हुआ । पांचवे,यह सही है कि इन हत्याओं के अधिकांश मामले मुख्य रूप से पंजाब,हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सामने आए लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि ये इन्हीं तक सीमित हैं । आंध्र,तमिलनाडु,मेघालय,बिहार आदि अनेक प्रांतों से इन हत्याओं की सूचनाएँ मिली हैं । छठे,यह माना जाता रहा है कि ये हत्याएँ पिछड़े ग्रामीण झेत्रों में ही होती हैं,शहरों में नहीं । लेकिन अहमदाबाद,दिल्ली,चेन्नई जैसे शहरों में इनका होना यह सिद्ध करता है कि इनका प्रसार गांव-शहर सबमें है । सातवें,यह माना जाता रहा है कि यह रोग अशिक्षित और निरक्षर लोगों के बीच ही है,जबकि पत्रकार निरुपमा पाठक समेत अनेक ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें सुशिक्षित वर्ग भी शामिल है ।
इस तथ्य आकलन से इतना तो स्पष्ट है कि इनका विश्लेषण प्रचलित विश्वासों और पूर्वाग्रहों के आधार पर नहीं किया जा सकता । घटनाओं के तथ्यों और उनके आकलन से कुछेक बातें स्पष्ट होती हैं । विश्व के अन्य देशों और विशेषकर मुस्लिम देशों और समुदाय में प्रचलित ‘सम्मान हत्याओं’ से भारत में होने वाली सम्मान हत्याओं की भिन्नता यह है कि वहां इन हत्याओं का शिकार लड़कियों को बनाया गया । जबकि भारत में होने वाली हत्याओं में युवक और युवती दोनों की हत्याएँ की गईं और ये हत्याएँ परिवार,जाति या समुदाय का तथाकथित ‘सम्मान’ बचाने के लिए परिवार के लोगों द्वारा अपने युवक या युवती की ही नहीं बल्कि उसके साथी दूसरी जाति और समुदाय के लड़के या लड़की की भी की गई । यदि उच्च-निम्न जाति के आधार पर की गई हत्याओं और उच्च-मध्य जातियों  के आधार पर की गई हत्याओं का ध्यान से अध्ययन करें तो पाएँगे कि जहां उच्च-मध्य जातियों की हत्याओं में प्रायः अपने परिवार के संलग्न युवक या युवती की हत्या उसके अपने परिवार ने की लेकिन दूसरी जाति और परिवार पर भी वैसा ही करने का दबाव बनाया गया ।  दूसरी विशेष बात यह सामने आई कि हत्या की जिम्मेदार ऊंची जातियां रहीं । हालांकि अपने चुनाव के आधार पर किए विजातीय प्रेम या विवाह में दो जातियों से जुड़े युवक-युवती बराबर के हिस्सेदार रहे लेकिन ह्त्याओं की पूरी जिम्मेदारी उच्च जाति के परिवार या समुदाय की ही रही । निम्न जाति के युवक या युवती की हत्या दंडस्वरूप सबक सिखाने के लिए की गईं और कई बार तो निम्न जाति के परिवार के लोगों या पूरे समुदाय को भी ‘सबक’ सिखाया  गया ।
‘सम्मान हत्याएँ’ और पुलिस की भूमिका
परिवार,जाति,समुदाय के सम्मान की सुरक्षा के नाम पर जितनी हत्याएँ की जाती हैं उनमें पुलिस की भूमिका वास्तविक अपराधियों को खोजने,पकड़ने और दंड देने की न होकर स्वयं अपराध में शामिल हो जाने की रही है । सभी जानते हैं कि इस तरह के स्वतंत्र संबंध के निर्णय को परिवार या समुदाय की स्वीकृति नहीं मिलने तथा जीवन भय के कारण युगल को भागने के अलावा और कोई रास्ता नहीं सूझता । यहीं व्यवस्था को उन्हें अपराधी ठहराने और दंड देने का पूरा अवसर मिल जाता है । ऐसे सभी मामलों में यदि लड़की उच्च जाति से है तो उसके परिवार वाले पहले तो उसे नाबालिग सिद्ध कर अगुआ किए जाने की रिपोर्ट दर्ज कराते हैं । और तथ्य चाहे जो हों पुलिस और पूरी व्यवस्था इस तरह के प्रेम-संबंध या प्रेम-विवाह को अपराध सिद्ध कर विवाह के परंपरागत सांस्कृतिक रूपों की सुरक्षा के काम में जुट जाती है । पुलिस द्वारा युगल को पकड़ लिए जाने पर लड़की को या तो उसके परिवार के सुपुर्द कर दिया जाता है या मानसिक रूप से अस्थिर रोगियों के स्थानों में भेज दिया जाता है और लड़के को लड़की का अपहरण करने,उसे फुसलाने या बलात्कार आदि के आरोप में जेल भेज दिया जाता है । समय बीतने पर लोग इन घटनाओं को भूल जाते हैं और लड़की को परिवार की मर्जी से पारंपरिक विवाह के लिए मना लिया जाता है । इस तरह सैकड़ों मामले ‘सम्मान हत्या’ होने से बच जाते हैं । बाकी मामले ‘सम्मान हत्याओं’ द्वारा निपटा दिए जाते हैं । ऐसे अनेक मामले भी सामने आए जब युगल ने पुलिस और न्यायालय को अपनी जान के लिए खतरे की सूचना देकर सुरक्षा प्रदान करने की अपील की । इसका परिणाम प्रायः उलटा ही हुआ । पुलिस ने प्राप्त सूचना को परिवार के लोगों को बता दिया जिससे युगल को ढूंढकर उनकी हत्या करने में उन्हें सुविधा हुई ।
खप पंचायतें और ‘सम्मान हत्याएँ



जबसे इन तथाकथित ‘सम्मान हत्याओं’ का नया सिलसिला शुरू हुआ है तब से विशेष रूप से हरियाणा,पंजाब,राजस्थान और उत्तरप्रदेश में जाति-आधारित खप पंचायतें अत्यधिक सक्रिय हो उठी हैं । इन हत्याओं के अनेक मामले न केवल इन पंचायतों के निर्णय के आधार पर हुए बल्कि अनेक उनकी बैठकों में ही हुए । हाल में इन खप पंचायतों ने न केवल जाति के अंदर समान गोत्र के मामलों में हत्या,दंड और जाति बहिष्कार के निर्णय सुनाए हैं बल्कि ये अंतर्जातीय विवाहों के मामलों में भी फैसले देने लगी हैं । इन पंचायतों ने दलितों पर जुल्मों की नई मिसाल कायम की हैं । हरियाणा के हिसार जिले में मिर्चपुर में हाल में हुई घटनाएँ इसका केवल एक उदाहरण हैं ,(हिंदू,जून १,२०१०) जिसमें गांव के सारे दलितों को घर छोड़कर भागना पड़ा । ये खप पंचायतें अपने को प्रासंगिक बनाने के लिए समुदाय की जनतांत्रिक,संगठित और प्रातिनिधिक संस्था होने का दावा कर रही हैं और गांवों में जातीय विभाजन को,जातिगत ऊंच-नीच की संहिताओं को बरकरार रखने के लिए नए शक्ति केंद्रों के रूप में सामने आ रही हैं । पिछले दिनों ‘सम्मान हत्याओं’ में इनकी भूमिका खुलकर सामने आई और इन्होंने हत्याओं में अपनाई गई क्रूरताओं के नए प्रतिमान गढ़े ।
ये खप पंचायतें हत्याओं के सिलसिले को कायम रखने,बढ़ाने और क्रियान्वयन में ही सक्रिय नहीं हैं बल्कि जाति-व्यवस्था को कायम रखने,उसे और मजबूत करने और मध्ययुगीन सामंती सोच को दॄढ़ करने के मुख्य केंद्र बन गईं हैं । अपने जातिगत संगठनों के माध्यम से वे राजनीतिक प्रक्रियाओं,राजनीतिक नेतृत्व,जनतांत्रिक विधि-विधानों को बेहतर बनाने के लिए प्रस्तावित फेरबदल को उलटने में प्रयत्नशील हैं । सभी जानते हैं कि ‘सम्मान हत्याओं’ के मामले में खप पंचायतों के सभी निर्णय गैर-कानूनी हैं । हिंदू विवाह कानून में न तो अंतर्जातीय विवाह गैर-कानूनी हैं और न ही सगोत्र-विवाह । इसका प्रमाण इसी बात से मिल गया जब हरियाणा-पंजाब के उच्च न्यायालय ने खप पंचायत द्वारा मनोज और बबली की ‘सम्मान हत्या’ को न केवल भयंकर अपराध करार दिया बल्कि हत्या करने वाले पांच लोगों को मौत की सजा सुनाई और दो को उम्रकैद की सजा दी । यह अपने आप में खप पंचायतों और ‘सम्मान हत्याओं’ पर स्पष्ट मत था । लेकिन न केवल पंचायतें अदालत के फैसले को गलत बताने में जुटी हैं बल्कि राजनीतिज्ञों पर इस बात के लिए दबाव बना रही हैं कि वे हिंदू विवाह कानून में इस तरह परिवर्तन कराएँ कि सगोत्र विवाह अवैध ठहराए जाएँ । (हिंदू,मई २७,२०१०) वोट-बैंक की राजनीति के चलते,इस बात को लेकर बहस चल पड़ी है कि हिंदू विवाह कानून में खप पंचायतों के दबाव में आकर ऐसे संशोधन किए जाएँ जो सगोत्र विवाह,अंतर्जातीय विवाह,प्रेम-विवाह आदि को गैर-कानूनी ठहरा दें या सके विपरीत ऐसे परिवर्तन किए जाएँ जो ‘सम्मान हत्याओं’ के सिलसिले को रोकने के लिए इस कानून को अधिक लोकतांत्रिक बनाएँ और अपराधियों को सख्त सजा देने के और प्रावधान करें ।
हिंदू विवाह कानून,भारतीय न्याय व्यवस्था और ‘सम्मान हत्याएँ


यह कहने की अलग से आवश्यकता नहीं है कि भारत में ‘सम्मान हत्याओं’ का पूरा मामला समाज की संस्कृति में मौजूद जातिवादी,पितृसत्तात्मक,भेदभावपूर्ण संरचनाओं से जुड़ा है और अंततः इनका स्थाई समाधान भी इस संरचनागत परिवर्तन से ही होगा । लेकिन इस परिवर्तन को संभव बनाने में समाज और देश  व्यवस्था के अन्य निकाय अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । इन निकायों में कानून,न्याय-व्यवस्था सबसे पहले आते हैं ।
यहां हमारा उद्देश्य जातिप्रथा और विवाह व्यवस्था के मूल में जाना नहीं है,लेकिन उसके संबंध में कुछ प्राथमिक बातें कहना जरूरी है । हम जानते हैं कि हिंदू शास्त्र-सम्मत ब्राह्मणवादी पितृसत्ता में स्त्री जाति-व्यवस्था को बनाए रखने का सबसे महत्वपूर्ण साधन रही है । यह अकारण ही नहीं है कि आज जाति और स्त्री के सवाल आपस में इतने जुड़े हुए हैं । स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण से ही जाति की रक्त शुद्धता को बचाया जा सकता था । इसमें ऊंची जाति की स्त्री बहुत बड़ी भूमिका अदा करती थी,इसलिए अन्य जातियों से संपर्क से बचाए रखने के लिए विवाह के कड़े नियम बनाए गए । भले ही विवाह संबंधी नियमों का ब्यौरेवार उल्लेख न मिलता हो लेकिन इतना निश्चित है कि उसके धर्मशास्त्र के अलिखित नियम थे जो जाति के आधार पर मनमाने ढंग से परिभाषित और व्याख्यायित किए जाते  थे । इन्हें अंग्रेजी राज के समय जब सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया गया और १८७२ के अधिनियम ३ (जिससे भारत में सिविल विवाह की नींव पड़ी) को इस रूप में परिवर्तित करने की कोशिश की गई कि अंतर्धामिक और अंतर्जातीय विवाहों को वैध ठहराया जा सके तो पूरे देश में हड़कंप मच गया । जातिगत जकड़बंदी और समाज में उच्च जातियों के वर्चस्व के चलते आम राय यह बनी कि विवाह के लिए सहमति का अधिकार समुदाय के पास होना  चाहिए न कि विवाह करने जा रहे युगल के पास । इस पर सरकार को जो याचिकाएँ दी गईं उनमें ‘प्रेम विवाह’ को ‘जाति और समाज भंजक’,अंतर्जातीय विवाह को ‘घृणास्पद’ आदि कहकर समाज और जाति की रक्षा की गुहार लगाई गई । यही कारण है कि वह अधिनियम अपने प्रस्तावित रूप में पारित नहीं हो पाया और उसमें निहित अमूर्तताओं के चलते विवाह कानून को लेकर भ्रांतियां चलती रहीं ।
भारत का संविधान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दलित नेता अंबेडकर को ही ‘हिंदू कोड बिल’ बनाने का जिम्मा सोंपा गया था जिसे उन्होंने ११ अप्रेल,१९४७ को संविधान सभा में रखा । इस बिल पर चार साल तक विवाद चलता रहा और अंततः हार कर देश के प्रथम विधिमंत्री बने अंबेडकर ने यह कहकर संसद से त्यागपत्र दे दिया कि ‘ बिल की हत्या कर दी गई और वह बिना पारित हुए ही मर गया ।‘[xi]  अंबेडकर का कहना था कि इस बिल के द्वारा वे स्त्रियों को समानाधिकार देना चाहते थे और अंतर्जातीय विवाहों को बढ़ावा देने के प्रावधान करना चाहते थे । लेकिन बिल के विरोध में इतना उपद्रव हुआ मानो इससे हिंदू समाज खंड-खंड होकर बिखर जाएगा । स्वयं भारत गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इस बिल पर वक्तव्य देते हुए कहा कि यदि यह संसद में पास हो भी गया तो वे इस पर अपनी स्वीकृति नहीं देंगे । इस तरह एक बार फिर हिंदू विवाह संस्था को तार्किक और न्यायोचित रूप देने की संभावनाओं पर पानी फिर गया । बाद में जवाहरलाल नेहरू ने तीन खंडों में करके हिंदू कोड बिल को पेश किया जो १९५५ में संसद में पारित हुआ ।[xii] क्योंकि यह बहुमत के विरोध के सामने एक समझौते के रूप में था इसलिए उसके कारण विवाह को लेकर तमाम व्यावहारिक भ्रांतियां चलती रहीं जिनका परिणाम इन सम्मान हत्याओं के रूप में सामने आ रहा है ।
जैसा कि हमने कुछ पहले उल्लेख किया,इसकी जातिगत और धर्मशास्त्रगत मनमानी व्याख्या पर पहला बड़ा कुठाराघात पंजाब और हरियाणा उच्च-न्यायालय के उस फैसले से हुआ जिसमें खप पंचायत के सगोत्र विवाह के विरुद्ध फैसला सुनाया गया और अपराधियों को मृत्युदंड तथा उम्रकैद की सजाएँ दी गईं । इसी क्रम में २० अप्रैल,२०११ को भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी इस आदेश को लिया जा सकता है जिसमें उसने सभी राज्यों से ‘सम्मान हत्या’ नाम के इस कलंक को पूरी तरह खत्म करने का अदेश दिया ।[xiii] न्यायालय ने सरकारी तंत्र से जुड़े जिम्मेदार अधिकारियों को कहा कि यदि उन्होंने अपराधियों के विरुद्ध कार्यवाही में कोई चूक की तो उन्हें दंडित किया जाएगा । न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और ज्ञानसुधा मिस्र ने आदेश सुनाते हुए कहाः
इन ‘सम्मान हत्याओं’ या अन्य ढहाए जा रहे जुल्मों में कुछ भी सम्मानजनक नहीं है । वास्तव में ये बर्बर और शर्मनाक हत्याएँ हैं ।…हमने इन ‘खप पंचायतों के बारे में सुना है जो अक्सर ‘ विभिन्न धर्मों और जातियों के उन युवक-युवतियों के विरुद्ध सम्मान हत्याओं’ और संस्थागत जुल्मों के फैसले सुनाती हैं या उन्हें बढ़ावा देती हैं,जो अपनी मर्जी से विवाह करना चाहते हैं या विवाह कर चुके हैं,और इस तरह लोगों की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप करती हैं । हमारी राय में यह पूरी तरह गैर-कानूनी है और इसे खत्म किया जाना चाहिए ।…यदि कोई जिलाधिकारी या उच्च पुलिस अधिकारी अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता तो राज्य सरकार को उसे निलंबित कर देना चाहिए ।‘ (दैनिक भास्कर.काम,मई११,२०११)
न्यायालयों के इन निर्णयों और अनेकानेक जन-संगठनों,महिला संगठनों और दलित संगठनों के दबाव में केंद्रीय सरकार ने मंत्रियों के एक समूह को कानून में परिवर्तन का काम सोंपा है जिसमें इस तरह के अपराधों को रोकने और अपराधियों को सख्त सजा देने का प्रावधान होगा । सरकार का कहना है कि यह बिल संसद के मानसून सत्र में ही रखा जायगा । लेकिन दूसरी ओर कई राज्यों की खप पंचायतों ने अपना महाखप पंचायत सम्मेलन करके राजनीतिक दलों,नेताओं पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि वे यदि परिवर्तन करना ही चाहते हैं तो वैसा करें जैसा ये पंचायतें चाहती हैं ।
इस तरह एक दूसरे स्तर पर यह कानूनी संघर्ष जारी है जो ‘सम्मान हत्याओं’ की वस्तुस्थिति को काफी हद तक प्रभावित करेगा ।
‘सम्मान हत्याओं’ के कारणों की पड़ताल
(अ)सांस्कृतिक संरचनाओं की आधारशिला


हत्याओं की घटनाओं के अध्ययन से एक तथ्य तो स्वतः सिद्ध है कि इनका संबंध एक ओर जहां जाति-व्यवस्था को बनाए रखने की आकांक्षाओं से है,वहीं दूसरी ओर स्त्री के आचरण और यौनिकता को पारिवारिक,जातिगत और सामुदायिक नियंत्रण में रखने से है । अधिकांश हत्याएँ जाति सीमाओं के उल्लंघन,प्रेम या विवाह में स्त्री द्वारा निजी चुनाव और निर्णय के अधिकार के उपयोग के कारण हुई   हैं । सार रूप में कहें तो वैवाहिक संस्था से इसका गहर संबंध बनता है । एक मनोविशेषज्ञ की राय मेः
‘ विवाह हिंदू समाज के हृदय स्थल पर निवास करता है । यह हिंदू मानस के अग्रभाग का हिस्सा और समाज की धुरी है । इसका जाति से सीधा जुड़ाव है और जाति किसी हिंदू के लिए उसके अस्तित्व की बुनियाद है । पुरुष की जाति उसके माता और पिता दोनों की जातियों से तय होती है और तत्पश्चात उसके अपने विवाह और यौन संबंध के आधार पर बनी रहती है या बदलती है ।’ [xiv]
वैवाहिक विधान और कर्मकांड को सामान्य रूप से धर्मशास्त्रों पर आधारित माना जाता है । कौन सा धर्मशास्त्र ! क्योंकि ईसाइयों या मुस्लिमों की तरह हिंदुओं का कोई एक ऐसा ग्रंथ नहीं है जिसे  धर्मशास्त्र  मान उससे हवाला दिया जा सके । लगभग दूसरी सदी की रचना ‘मनुस्मृति’[xv] (जिसे दूसरे शब्दों में ‘मानव धर्म शास्त्र’ भी माना गया है ) ही  एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें विस्तार से हिंदुओं के व्यावहारिक जीवन नियमों और कर्मकांडों की व्याख्या दी गई है । हालांकि हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा,विशेषकर उसके आधुनिक शिक्षा प्राप्त और धर्म-निरपेक्ष लोग,‘मनुस्मृति’ को संदेह की दृष्टि से देखता है,लेकिन आम समाज में वही एक तरह का संदर्भ ग्रंथ माना जाता है । पूरे ग्रंथ में मनु की मूल चिंता जाति के आधार पर सबके कर्तव्य-कर्म तय करना और उनका कड़ाई से पालन कराना रही । नियम कहता है कि प्रत्येक वर्ण अपने लिए अनंत काल से निर्धारित आचार पर चले । जिनका सीधा जुड़ाव विवाह,विवाह के अनुष्ठान,उचित-अनुचित आहार,स्त्रियों के लिए निर्धारित दायित्वों,राजा के दायित्व और वैश्यों और शूद्रों के व्यवहार से है । स्त्री और विवाह आदि की संहिताओं में उच्च जाति की स्त्रियों और निम्न जाति की स्त्रियों के आचरण के अलग-अलग नियम हैं,उसी तरह उच्च जाति के विवाह और निम्न जातियों के विवाहों के लिए भी अलग निर्देश हैं । मनु के अनुसार पुरुष-स्त्री संबंधों और विवाहों में  जाति-विधानों का उल्लंघन दो तरह से हो सकता है – उच्च जाति के पुरुष का निम्न जाति की स्त्री से संबंध या उसे पत्नी बनाना ‘अनुलोम’ (मानवविज्ञान की भाषा में हाइपरगैमी) है और उच्च जाति की स्त्री का निम्न जाति के पुरुष के साथ संबंध या विवाह ‘प्रतिलोम’ ( मानवविज्ञान में हाइपोगैमी) है । मनु की दृष्टि में प्रथम प्रकार का संबंध जाति का उल्लंघन तो है लेकिन फिर भी ‘प्राकृतिक’ है,लेकिन दूसरे प्रकार का संबंध अप्राकृतिक,अक्षम्य और धिक्कार योग्य है । पहले प्रकार का संबंध जहां कई नई जातियों को जन्म दे सकता है,वहीं दूसरे प्रकार का संबंध दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है । समगोत्र विवाह का निषेध भी ‘मनुस्मृति’ में है । इन्हीं उल्लंघनों के संदर्भ में ‘वर्णशंकर’ की व्याख्या मनु ने की है ।
यहां हमारा उद्देश्य धर्माशास्त्रों के मूल विवेचन में जाना उतना नहीं है,जितना इस बात को रेखांकित करना है कि आज जाति,विवाह, स्त्री आचरणों और दंड विधानों को लेकर जो व्यवहार सामाजिक स्तर पर देखने को मिलता है और जिसके लिए प्रायः धर्मग्रंथों का हवाला दिया जाता है,वे कोई नई ईजाद नहीं हैं बल्कि उनके श्रोत प्राचीन धर्मग्रंथों में हैं । ये सांस्कृतिक संरचनाएँ सैकड़ों वर्षों से अनवरत चली आ रही हैं । असल सवाल उनके धर्म-सम्मत होने का इतना नहीं है बल्कि यह है कि आधुनिक समय में तमाम तत्कालीन तकाजों को दरकिनार कर उनका आंख बंद कर पालन किया जा रहा है और उनके नाम पर जघन्य अपराध किए जा रहे हैं । यदि ऐसा किया जाता है तो एक हिंदू और एक तालिबान में क्या फर्क रह जाएगा ! दोनों ही धर्मग्रंथों का हवाला दे सकते हैं ।
(आ) नई जातिगत सामाजिक संरचनाएँ


भारत के प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास ने अपनी मृत्यु से ठीक पहले बंगलौर के नेशनल इंस्टीट्यूट आफ एडवांस्ड स्टडीज में एक वक्तव्य दिया था जिसे बाद में आलेख के रूप में ‘व्यवस्था के रूप में जाति का अंत’ नाम से प्रकाशित किया गया । इस वक्तव्य में श्रीनिवास ने जाति व्यवस्था के टूटने और इसके कारण वर्चस्वकारी जातियों और दलितों के बीच तनाव बढ़ने की संभावनाओं पर कहा थाः
‘ तकनीकी और सांस्थानिक परिवर्तनों के साथ लोकतंत्र,वैयक्तिक आत्मसम्मान आदि नए विचार सामाजिक संबंधों की प्रकृति को बदल रहे हैं । यह ऊंची जातियों के प्रति निचली जातियों के और दलितों के बर्ताव में साफ दिखता है । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सामान्य तौर पर निचली जातियों के इस अभिमानी व्यवहार पर ऊंची जातियां खफा होती हैं । यह क्षोभ दलितों और आदिवासियों पर अधिक प्रकट होता है ।…दॄढ़निश्चयी दलितों और आक्रामक वर्चस्वकारी जातियों के बीच निकट भविष्य में झड़पें बहुत बढ़ने वाली हैं । इससे अनगिनत गांवों में खूनी झगड़े बढ़ जाएँगे । दुखद बात यह है कि ऐसे झगड़ों का पूर्वानुमान लगाने और उन्हें रोकने के लिए सत्ताधारी लोगों की ओर से कोई कोशिश तक नहीं हो रही ।‘ [xvi]
श्रीनिवास ने जिन भावी खूनी संघर्षों की बात की थी वह उनके सामने ही शुरू हो गए थे ।  लेकिन अधिकांश में इन्हें संघर्ष न कहकर इकतरफा हमलों की संज्ञा दी जाए तो अधिक सही होगा क्योंकि इनमें उंची जाति या मध्य जातियों के दलितों पर हमले ही मुख्य रूप से हैं । इन्हीं का एक रूप इन तथाकथित जातिगत ‘सम्मान हत्याओं’ में दिखाई पड़ता है । सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि अभी कल तक जो जातियां शूद्रों की श्रेणी में शुमार की जाती थीं और आज पिछड़ी जातियों के रूप में,वे भी दलितों के ऊपर हमलों के लिए उतनी ही जिम्मेदार हैं जितनी ऊंची जातियां । बल्कि नव प्राप्त धनाढ्यता और सत्ता के कारण वे हमलों में सबसे आगे हैं । अधिकांश खप पंचायतें मुख्य रूप से इन्हीं जातियों के परंपरागत संगठन हैं । यह क्योंकर हुआ ! अभी कल तक जो ब्राहमणवादी व्यवस्था और उच्च जातियों के शोषण और दमन के शिकार थे,वे स्वयं दलितों के उत्पीड़क कैसे बन गए ! इसके समाजशास्त्र को ठीक से समझना होगा ।
लेकिन इस समझदारी के लिए जरूरी है कि हम जातियों के समीकरण और पारिभाषिक स्वरूपों को समझें । अधिकांश में लोग वर्ण-व्यवस्था में सबसे नीचे की शूद्र जाति के रूप में दलितों की पहचान करते हैं । यह सही नहीं है । शूद्र जातियां हमेशा ही श्रम और कृषि पर निर्भर रही हैं और उनमें उनकी बहुसंख्या है जिन्हें आज हम पिछड़ी जातियों के रूप में जानते हैं । दलित वर्ण व्यवस्था के बाहर हैं और जमीन पर उनका कोई हक कभी नहीं  रहा ।
स्वतंत्रता के बाद जो भी आधे-अधूरे भूमि-सुधार या हरित क्रांति जैसे प्रयोग हुए उन्होंने खेतिहर जातियों (शूद्र या पिछड़ी जातियों) को सशक्त और समृद्ध किया । अपनी संख्या के बल पर इन जातियों ने आजादी के बाद,विशेषकर १९७० के बाद सभी राज्यों में राजनीतिक तौर पर अपना दबदबा कायम किया । द्रविड़ मुन्नेत्र कजगम,तेलुगू देशम,समाजवादी पार्टियों के तमाम गुट,जनता पार्टी के अनेकानेक धड़े,शिवसेना आदि में इसे देखा जा सकता है । स्वयं मुख्य पार्टियों – कांग्रेस और भाजपा – में भी इन जातियों का दबदबा बढ़ा है । लेकिन  इसी बीच जमीन से अलग रखे गए दलितों को केवल आरक्षण से जो लाभ मिला सो मिला,आम तौर पर उनकी आर्थिक स्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं हो पाया । फिर भी शिक्षा के प्रसार,आरक्षण के अंतर्गत शिक्षा और नौकरियों की सुलभता ने उनमें स्वाभिमान,बराबरी और मध्यवर्ग में शामिल होने की प्रवृत्ति को बढ़ाया है । नए शिक्षा संस्थानों में सभी जातियों के लड़के-लड़कियां एक साथ पढ़ते हैं,परिवहन के सार्वजनिक साधनों में एक साथ सफर करते हैं,उनके मन में पुरानी जातिवादी रूढ़ियां भी कम हो रही हैं । इन सब से जातियों की सीमाओं से बाहर जाकर प्रेमसंबंध बनाने की घटनाओं को जहां बढ़ावा मिलता है वहीं सबल जातियों (जिनमें पुरानी उच्च जातियां तो हैं ही,पिछड़ी जातियां भी शामिल हो गई हैं) के द्वारा प्रतिशोध और उत्पीड़न की घटनाएँ भी बढ़ती हैं । ‘सम्मान हत्याओं’ के संदर्भ में इस कोण से भी विचार करना समीचीन   होगा ।
सामाजिक संरचना में हुए इस बदलाव और उसके राजनीतिक,सामाजिक,जातिगत समीकरणों और अभिप्रायों के संदर्भ में इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि आर्थिक विकास के पूंजीवादी रास्ते को अपनाने की सहज परिणति सामंतवादी संबंधों की क्षीणता में होनी चाहिए थी । सामंतवादी सोच जहां एक ओर जातिवादी आधार को बरकरार रख मजबूत करता है वहीं स्त्री को पण्य वस्तु मान उसके प्रति स्वामी-दास के संबंध बनाता है और पितृसत्तात्मक अधिकारों को मजबूत करता है । पूंजीवाद इन बहुत सी बुराइयों से समाज को मुक्त कर सकता था जैसा कि उसने दुनिया के अन्य विकसित देशों में किया भी है । लेकिन भारत में दुखद बात यह हुई कि अंग्रेजों ने अपने  राजनीतिक स्वार्थों के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में सामंती भूसंबंधों को तोड़ने की जगह उन्हें और मजबूत किया । स्वाधीनता के बाद सत्ता में आए बुर्जुआ वर्ग ने भी सामंती सबंधों और सामंतवाद पर निर्णायक प्रहार न कर उसे सत्ता में भागीदार बनाकर और मजबूत किया । यही कारण है कि बाकी इलाकों की बात तो छोड़िए,स्वयं जिन इलाकों में हरित क्रांति या पूंजीवादी विकास देखने को मिलता है वहां भी सामंती संबंध और व्यवहार बरकरार रहा । सामंती शक्तियां कमजोर और अप्रासंगिक होने की अपेक्षा और मजबूत हुईं और जमीन और अन्य साधनों पर उनका वर्चस्व न केवल कायम रहा बल्कि और बढ़ा । ये सामंती शक्यियां ही आज दलितों पर अत्याचार,उनके सामाजिक बहिष्कार और ‘सम्मान हत्याओं’ आदि के रूप में स्वयं को व्यक्त कर रही हैं । सामंती शक्तियों और संबंधों के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष छेड़ने में शिथिलता और अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें हवा देने की प्रवृत्ति आज भी भारत के बड़े राजनीतिक दलों की विशेषता है । इसका बड़ा कारण ‘वोट बैंक’ की राजनीति भी है जिसमें ये तथाकथित खप पंचायतें जाति के वोटों की मालिक बन गई हैं । आज जब पूरे देश में खप पंचायतों के गैर-कानूनी रवैये और ह्त्याओं के बर्बर निर्णयों पर सवाल उठ रहे हैं,जबकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने उनके विरुद्ध वक्तव्य दिया है तो अनेक राजनीतिक दलों के नेता उनके पक्ष में वक्तव्य दे रहे हैं । यह इस बात का प्रतीक है कि अभी भी सत्तासीन दल सामंती शक्तियों और संबंधों पर सीधे आक्रमण करने से बच रहे हैं । भारत की अधिकांश सामाजिक समस्याओं का स्रोत यही अपवित्र गठबंधन है ।
ऊपर से चीजें चाहे जितनी सांस्कृतिक,परंपरागत,धार्मिक नज़र आएँ,सभी के मूल में एक निर्लज्ज भौतिकता भी छिपी होती है । ऐसा नहीं है कि जाति के तंत्र को बने रहने देने के पीछे केवल वैचारिक कारण ही रहे बल्कि ठोस भौतिक कारण भी रहे हैं और आज भी हैं । उदाहरण के लिए प्राचीन समय से उंची जातियों में विधवा को विवाह करने की जो मनाही थी उसके पीछे परिवार की संपत्ति के बटवारे का डर मूल में था । नीची जातियों के मामले में ऐसा कोई डर नहीं था इसलिए मनु तक को उनपर किसी प्रकार की रोकटोक लगाने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई । उनमें  वे सब चीजें आम थीं जिसकी एक उच्च वर्ग की स्त्री के लिए सख्त मनाही थी । स्वाधीनता के बाद धीरे-धीरे सभी राज्यों में संपति पर संतान के अधिकारों में लड़की के अधिकार को भी कानूनी दर्ज़ा दिया गया । इसलिए भूस्वामी जाति की लड़की यदि भूमिहीन जातियों के यहां जाती है तो भूमि वितरण की एक नई प्रक्रिया शुरू हो सकती है  जिसका परिणाम अंततः प्रभु वर्गों की सत्ता के अवसान में हो सकता है । इसलिए यह हिंसक प्रतिक्रिया होती है ।
‘सम्मान हत्याओं’ को रोकने के उपाय
तथाकथित ‘सम्मान हत्याएँ’ पिछले अनेक वर्षों से देश के अंदर ही नहीं,अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की चिंता का विषय बन चुकी हैं । संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने सन्‌ २००० में एक प्रस्ताव (५५/१११) पास करके सरकारों से कहा कि ‘ वे गंभीरता से आवेग या सम्मान के नाम पर की जा रही हत्याओं की पूरी जांज-पड़ताल करें,दोषियों को स्वतंत्र न्यायालयों के सामने पेश करें और यह सुनिश्चित करें कि सरकारों,उसकी मशीनरी या व्यक्तियों द्वारा इस तरह की हत्याओं की अनदेखी न की जाय ।’[xvii] हालांकि उसके बाद के वर्षों में पारित प्रस्तावों में लगातार ‘सम्मान हत्याओं का जिक्र होता रहा,लेकिन २००० में पारित यह प्रस्ताव पहला और केवल इसी समस्या पर केंद्रित था ।[xviii]
 इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि यदि कोई सरकार ऐसा नहीं कर पाती तो वह मानव अधिकारों के उल्लंघन का दोषी करार दी जाएगी । इसी में आगे यह कहा गया कि सरकार द्वारा सबसे पहला कदम तो यही होगा कि इन हत्याओं पर हत्या और अपराध के आम कानून लागू होंगे और उनके बचाव में किसी भी तरह का सांस्कृतिक या अन्य तर्क न तो माना जाएगा और यदि कानून में है तो उसे खत्म कर दिया जाएगा । [xix]
इन प्रस्तावों में देशों की सरकारों को इस समस्या से निपटने के लिए और भी अनेक हिदायतें दी गई हैं । मसलन यह कहा गया है कि सरकारें इस तरह के रिवाजों के विरुद्ध शिक्षा अभियान चलाएँ,हर चुनावी या अन्य अभियान में इसे जरूरी मुद्दा बनाएँ और उसको बढ़ावा देने वाली सांस्कृतिक संरचनाओं या संस्थाओं को अप्रासंगिक बनाने के लिए सक्रिय कार्यवाही करें । लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि सरकारें अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के दबावों के तहत उतना नहीं जितना राष्ट्रीय दबावों या अपने अस्तित्व सुरक्षा के लिए सक्रिय होती हैं ।
इस दिशा में सबसे कारगर कदम तो वही माना जा सकता है जो जातिवाद और नारी-विरोधी पितृसत्तात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं को कमजोर करने वाला हो । कायदे से यह कार्य स्वाधीनता के     बाद के इन साठ सालों में हो जाना चाहिए था । लेकिन जैसा हमने कहा कि आजादी के बाद के इन वर्षों में सत्ता में रही सरकारों या राजनीतिक दलों ने अपने अस्तित्व के लिए सामंती सामाजिक शक्तियों से गठजोड़ किया,जिससे वे समाप्त होने की जगह मजबूत होती गईं और आज जनतंत्र और मानवाधिकारों के सामने एक गंभीर चुनौती के रूप में विद्यमान हैं । इसके लिए जनतांत्रिक पद्धतियों और राजनीतिक उद्देश्यों में आमूल परिवर्तन लाने होंगे और तात्कालिकता की स्वार्थगत नीतियों को छोड़ देश और समाज के दूरगामी लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना होगा ।
पिछले दिनों देश में ‘सम्मान हत्याओं’ में आई तेजी और उनके साथ जुड़ी अमानवीयताओं और पाशविक बर्बरताओं से पूरा जनमानस उद्वेलित हुआ है । जनसंचार माध्यमों ने इनसे संबंधित रिपोर्टों को प्रकाशित-प्रदर्शित कर  सकारात्मक भूमिका निभाई है । अनेक गैर-सरकारी संगठन,महिला और दलित संगठनों ने इन हत्याओं का विरोध कर जन मानस को इनके विरुद्ध किया है । स्वयं न्याय-व्यवस्था ने इन हत्याओं के विरुद्ध स्पष्ट निर्णय देकर इन्हें गैर-कानूनी ठहराकर भयंकर अपराध माना है । इसलिए देश में इनके विरुद्ध कानून बनाने का स्वर प्रबल हुआ है और सरकार को आश्वासन देना पड़ा है कि वह शीघ्र ही इस संबंध में कानून संसद में पेश करेगी । इसके लिए उसने मंत्रियों के समूह का गठन करके,राज्य सरकारों की राय भी मांगी है ।
ये सब इस अपराध को रोकने के लिए सही दिशा में उठाए गए कदम हैं । लेकिन इसके साथ ही राजनीति और राजनीतिज्ञों की फौरी रणनीतियों और उलटफेरों के इतिहास को भी नहीं भूलना चाहिए और न ही इस बात को नजरंदाज करना चाहिए कि इसके विरुद्ध खप पंचायतों जैसी परंपरागत संस्थाएँ सक्रिय हैं जो ‘वोट बैंक’ की राजनीति का डर या लालच दिखा परिवर्तन के इस अभियान की धार को कुंद कर सकती हैं । सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन हत्याओं के पीछे जो सांस्कृतिक-सामाजिक संरचनाएँ हैं वे अभी भी अस्तित्ववान ही नहीं,गहरी हैं । उनको कमजोर करने के लिए सभी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में जनतांत्रिक विकल्पों को मजबूत करना होगा,आधुनिक शिक्षा और जन-स्वास्थ्य सेवाओं को फैलाना होगा,विकास का लाभ नीचे तक पहुंचे इसका प्रबंध करना होगा,दलितों और महिलाओं पर अत्याचार रोकने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे ।
उपसंहार
यहां हमने आधुनिक समाजों में प्रचलित ‘सम्मान हत्याओं’ और उनके प्रति अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और समुदायों की प्रतिक्रियाओं के संदर्भ में भारत में होने वाली ‘सम्मान हत्याओं’ का अध्ययन किया है । उनमें बहुत सी बातों में समानता होने के साथ ही कुछ अंतर मौजूद हैं जो भारत की अपनी सांस्कृतिक विरासत और विशिष्ट सामाजिक संरचनाओं के कारण हैं । इनमें पितृसत्तात्मकता और जाति-व्यवस्था बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । उच्च जातियों में नारी की यौनिकता पर नियंत्रण का अनुष्ठान एक ओर जहां जाति की परिशुद्धता और सातत्य को बनाए रखने के निमित्त है वहीं उसके ठोस भौतिक कारण भी रहे हैं ।
अफ़सोस की बात यही है कि स्वाधीनता के बाद देश में जनतांत्रिक संविधान और लोकतंत्र की स्थापना के बाद भी जातिवादी व्यवस्था और पितृसत्तात्मक संरचनाएँ फल-फूल रही हैं । दलित और नारियों पर अत्याचारों का सिलसिला जारी है । हाल के सालों में विजातीय प्रेम और विवाहों में वृद्धि एक तरफ जहां पीड़ित समुदाय के बढ़ते स्वाभिमान और जनतांत्रिक चेतना का प्रतीक हैं,वहीं ‘सम्मान हत्याओं’ में वृद्धि प्रभुत्वशाली जातियों के प्रतिगामी सामंती सोच,प्रतिशोध और बर्बर रवैये का । इसपर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और समुदाय समेत भारत के सचेत वर्गों में भी प्रतिक्रिया हुई है । इससे भारत की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर झटका लगा है जिससे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और शक्ति की प्रतिमा को ठेस पहुंची है । इन कुछ हजार हत्याओं के कारण वे हजारों अंतर्जातीय विवाह नज़रंदाज कर दिए जाते हैं जो आए दिन होते हैं ।
पिछले दिनों हत्याओं के इस सिलसिले और उनमें दिखाई गई बर्बरताओं के प्रति देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई है जो न्यायतंत्र से लेकर मीडिया और जनमत में दिखाई पड़ती है । इससे इस व्याधि से निपटने का माहौल बना है और सरकार इसके विरुद्ध कड़े विधान बनाने की घोषणा को मज़बूर हुई है । इससे देश में प्रतिगामी सांस्कृतिक संरचनाओं का ढ़ांचा कमजोर होगा और यदि इसे अन्य क्षेत्रों में आधुनिकता के अभियान से समर्थित किया जाय तो सामंतवाद और रूड़िवादिता की जकड़ से मुक्त एक नए भारत का जन्म हो सकता है जो सभी जातियों और वर्गों को समान अवसर और समान अधिकार प्रदान करे ।      

सोनिया का सच

पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के सामने जब सोनिया गांधी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया , तो वो पशोपेश में थे। ये 17 मई 2004 का दिन था। तब इस मामले में कई संवैधानिक अड़चनें थीं और कलाम इस पर सलाह लेना चाहते थे। मीडिया के तमाम हाइप के बावजूद वो तब सौ करोड़ लोगों के इस देश की प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं। मैं यही कहूंगा कि ये संयोग था कि हमारी राष्ट्रीयता की अस्मिता की तब रक्षा हुई और इस पर खरोच लगने से बच गई।
इसके बाद ये आवाजें भी उठीं कि भला किस तरह लोकतांत्रिक तरीके से और संवैधानिक तरीके से सोनिया गांधी को किसी सार्वजनिक पद से दूर रखा जा सकता है। मेरा सोनिया गांधी से विरोध केवल इसलिए नहीं है कि वो इतालवी हैं और इटली में पैदा हुई हैं। किसी भी लोकतांत्रिक देश में , जिसमें इटली भी शामिल है इस तरह का मुद्दा उठ ही पाता कि किसी विदेशी मूल के व्यक्ति को किस तरह देश का प्रमुख होने से रोका जाये , क्योंकि वहां संविधान में पहले से ही इस बात की साफ-साफ व्यवस्था की जा चुकी है। उनके कानून में साफ लिखा है कि जो व्यक्ति यहां पैदा हुआ होगा वही यहां का प्रमुख बन सकता है।
भारत में इस तरह का कोई कानून नहीं है लेकिन मेरी जानकारी के अनुसार राष्ट्रपति ने भारतीय सिटिजनशिप एक्ट (1855) के सेक्शन पांच के तहत काम किया। किसी विदेशी का भारतीय नागरिक के तौर पर रजिस्ट्रेशन करने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय को भारतीय नागरिकता प्रदान करने के लिए वही स्थिति अपनानी चाहिए थी जो कि इटली में होती है। ऐसे में श्रीमती गांधी पर भी वह नियम लागू होना चाहिए था जो कि किसी भारतीय के इटली में नागरिकता हासिल करने के लिए होता है।
राष्ट्रपति ने 17 मई 2004 की दोपहर श्रीमती गांधी को सूचित किया अगर वह खुद अपनी सरकार बनाने पर जोर देंगी तो वह पहले एक बात को स्पष्ट करना चाहेंगे , जो सुप्रीम कोर्ट के रिफरेंस में होगा कि उनके प्रधानमंत्री बनने को लेकर विदेशी मूल के मामले पर चुनौती तो नहीं दी जा सकती है।
राष्ट्रपति की ये रिपोर्ट एकदम सही थी। मैने इस संबंध में दो दिन पहले ही यानि 15 मई 2004 को एक याचिका दायर कर रखी थी कि सोनिया गांधी की नागरिकता कंडीशनल है और इस सूरत में वह प्रधानमंत्री नहीं बन सकतीं। राष्ट्रपति ने मुझे 17 मई 2004 की दोपहर मिलने के लिए बुलाया। उसमें मुझसे राय मांगी गई। मैंने उनसे कहा कि मैं सुप्रीम कोर्ट में इस असंवैधानिक नियुक्ति का विरोध करूंगा , जैसा कि मैंने 2001 में भी किया था , जब जयललिता को तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी।
खैर हम अब सोनिया गांधी की ओर लौटते हैं और पहले ये जानते हैं कि सोनिया गांधी कौन हैं , उनसे , उनके परिवार और इटली के मित्रों से क्या खतरे हैं। बहुत कम लोग उनके अतीत के बारे में जानते हैं। उनका असली नाम एडविग एंतोनिययो अल्बिना मैनो है। और जानेंगे उन झूठ बातों के बारे में जो सोनिया से जुड़ी हैं। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि भारतीय लोग सोनिया के बारे में कुछ नहीं जानते और वो किन लोगों से ताल्लुक रखती हैं। यहां तक भारत में पैदा हुए नागरिक के बारे में भी कई बार हमें उसकी सही सही पृष्ठभूमि के बारे में मालूम नहीं हो पाता तो ऐसे में एक विदेशी के बारे में जानना जो बहुत छोटी सी जगह से ताल्लुक रखता हो , वाकई बहुत मुश्किल है।

तीन झूठ

कांग्रेस पार्टी और खुद सोनिया गांधी अपनी पृष्ठभूमि के बारे में जो बताते हैं , वो तीन झूठों पर टिका हुआ है। पहला ये है कि उनका असली नाम अंतोनिया है न की सोनिया। ये बात इटली के राजदूत ने नई दिल्ली में 27 अप्रैल 1973 को लिखे अपने एक पत्र में जाहिर की थी। ये पत्र उन्होंने गृह मंत्रालय को लिखा था , जिसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। सोनिया का असली नाम अंतोनिया ही है , जो उनके जन्म प्रमाण पत्र के अनुसार एकदम सही है।
सोनिया ने इसी तरह अपने पिता का नाम स्टेफनो मैनो बताया था। वो दूसरे वल्र्ड वार के समय रूस में युद्ध बंदी थे। स्टेफनो नाजी आर्मी के वालिंटियर सदस्य थे। बहुत ढेर सारे इतालवी फासिस्टों ने ऐसा ही किया था। सोनिया दरअसल इतालवी नहीं बल्कि रूसी नाम है। सोनिया के पिता रूसी जेलों में दो साल बिताने के बाद रूस समर्थक हो गये थे। अमेरिकी सेनाओं ने इटली में सभी फासिस्टों की संपत्ति को तहस-नहस कर दिया था।
सोनिया ओरबासानो में पैदा नहीं हुईं , जैसा की उनके बायोडाटा में दावा किया गया है। इस बायोडाटा को उन्होंने संसद में सासंद बनने के समय पर पेश किया था , सही बात ये है कि उनका जन्म लुसियाना में हुआ। शायद वह इस जगह को इसलिए छिपाने की कोशिश करती हैं ताकि उनके पिता के नाजी और मुसोलिनी संपर्कों का पता नहीं चल पाये और साथ ही ये भी उनके परिवार के संपर्क इटली के भूमिगत हो चुके नाजी फासिस्टों से युद्ध समाप्त होने तक बने रहे। लुसियाना नाजी फासिस्ट नेटवर्क का मुख्यालय था , ये इटली-स्विस सीमा पर था। इस मायनेहीन झूठ का और कोई मतलब नहीं हो सकता।
तीसरा सोनिया गांधी ने हाईस्कूल से आगे की पढ़ाई कभी की ही नहीं , लेकिन रायबरेली से चुनाव लड़ने के दौरान उन्होंने अपने चुनाव नामांकन पत्र में उन्होंने ये झूठा हलफनामा दायर किया कि वो अंग्रेजी में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से डिप्लोमाधारी हैं। ये हलफनामा उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान रायबरेली में रिटर्निंग ऑफिसर के सम्मुख पेश किया था।
इससे पहले 1989 में लोकसभा में अपने बायोग्राफिकल में भी उन्होंने अपने हस्ताक्षर के साथ यही बात लोकसभा के सचिवालय के सम्मुख भी पेश की थी , जो की गलत दावा था। बाद में लोकसभा स्पीकर को लिखे पत्र में उन्होंने इसे मानते हुए इसे टाइपिंग की गलती बताया।
सही बात ये है कि श्रीमती सोनिया गांधी ने कभी किसी कालेज में पढा़ई की ही नहीं। वह पढ़ाई के लिए गिवानो के कैथोलिक नन्स द्वारा संचालित स्कूल मारिया आसीलेट्रिस गईं , जो उनके कस्बे ओरबासानों से 15 किलोमीटर दूर था। उन दिनों गरीबी के चलते इटली की लड़कियां इन मिशनरीज में जाती थीं और फिर किशोरवय में ब्रिटेन ताकि वहां वो कोई छोटी-मोटी नौकरी कर सकें। मैनो उन दिनों गरीब थे। सोनिया के पिता और माता की हैसियत बेहद मामूली थी और अब वो दो बिलियन पाउंड की अथाह संपत्ति के मालिक हैं। इस तरह सोनिया ने लोकसभा और हलफनामे के जरिए गलत जानकारी देकर आपराधिक काम किया है , जिसके तहत न केवल उन पर अपराध का मुकदमा चलाया जा सकता है बल्कि वो सांसद की सदस्यता से भी वंचित की जा सकती हैं। ये सुप्रीम कोर्ट की उस फैसले की भावना का भी उल्लंघन है कि सभी उम्मीदवारों को हलफनामे के जरिए अपनी सही पढ़ाई-लिखाई से संबंधित योग्यता को पेश करना जरूरी है।
इस तरह ये सोनिया गांधी के तीन झूठ हैं , जो उन्होंने छिपाने की कोशिश की। कहीं ऐसा तो नहीं कि कतिपय कारणों से भारतीयों को बेवकूफ बनाने के लिए उन्होंने ये सब किया। इन सबके पीछे उनके उद्देश्य कुछ अलग थे। अब हमें उनके बारे में और कुछ भी जानने की जरूरत है।

सोनिया का भारत में पदार्पण

सोनिया गांधी ने इतनी इंग्लिश सीख ली थी कि वो कैम्ब्रिज टाउन के यूनिवर्सिटी रेस्टोरेंट में वैट्रेस बन गईं। वो राजीव गांधी से पहली बार तब मिलीं जब वो 1965 में रेस्टोरेंट में आये। राजीव यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट थे , लेकिन वो लंबे समय तक अपने पढ़ाई के साथ तालमेल नहीं बिठा पाये इसलिए उन्हें 1966 में लंदन भेज दिया गया , जहां उनका दाखिला इंपीरियल कालेज ऑफ इंजीनियरिंग में हुआ। सोनिया भी लंदन चली आईं। मेरी सूचना के अनुसार उन्हें लाहौर के एक व्यवसायी सलमान तासिर के आउटफिट में नौकरी मिल गई। तासीर की एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट कंपनी का मुख्यालय दुबई में था लेकिन वो अपना ज्यादा समय लंदन में बिताते थे। आईएसआई से जुडे होने के लिए उनकी ये प्रोफाइल जरूरी थी। स्वाभावित तौर पर सोनिया इस नौकरी से इतना पैसा कमा लेती थीं कि राजीव को लोन फंड कर सकें। राजीव मां इंदिरा गांधी द्वारा भारत से भेजे गये पैसों से कहीं ज्यादा पैसे खर्च देते थे। इंदिरा ने राजीव की इस आदत पर मेरे सामने भी 1965 में तब मेरे सामने भी गुस्सा जाहिर किया था जब मैं हार्वर्ड में इकोनामिक्स का प्रोफेसर था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने मुझे ब्रेंनेडिस यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में , जहां वो ठहरी थीं , व्यक्तिगत तौर पर चाय के लिए आमंत्रित किया।
पीएन लेखी द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट में पेश किये गये राजीव के छोटे भाई संजय को लिखे गये पत्र में साफ तौर पर संकेत दिया गया है कि वह वित्तीय तौर पर सोनिया के काफी कर्जदार हो चुके थे और उन्होंने संजय से अनुरोध किया था , जो उन दिनों खुद ब्रिटेन में थे और खासा पैसा उड़ा रहे थे और कर्ज में डूबे हुए थे।
उन दिनों सोनिया के मित्रों में केवल राजीव गांधी ही नहीं थे बल्कि माधवराव सिंधिया भी थे। सिंधिया और एक स्टीगलर नाम का जर्मन युवक भी सोनिया के अच्छे मित्रों में थे। माधवराव की सोनिया से दोस्ती राजीव की सोनिया से शादी के बाद भी जारी रही। 1972 में माधवराव आईआईटी दिल्ली के मुख्य गेट के पास एक एक्सीडेंट के शिकार हुए और उसमें उन्हें बुरी तरह चोटें आईं , ये रात दो बजे की बात है , उसी समय आईआईटी का एक छात्र बाहर था। उसने उन्हें कार से निकाल कर ऑटोरिक्शा में बिठाया और साथ में घायल सोनिया को श्रीमती इंदिरा गांधी के आवास पर भेजा जबकि माधवराव सिंधिया का पैर टूट चुका था और उन्हें इलाज की दरकार थी। दिल्ली पुलिस ने उन्हें हॉस्पिटल तक पहुंचाया। दिल्ली पुलिस वहां तब पहुंची जब सोनिया वहां से जा चुकी थीं।
बाद के सालों में माधवराव सिंधिया व्यक्तिगत तौर पर सोनिया के बड़े आलोचक बन गये थे और उन्होंने अपने कुछ नजदीकी मित्रों से अपनी आशंकाओं के बारे में भी बताया था। कितना दुर्भाग्य है कि वो 2001 में एक विमान हादसे में मारे गये। मणिशंकर अय्यर और शीला दीक्षित भी उसी विमान से जाने वाले थे लेकिन उन्हें आखिरी क्षणों में फ्लाइट से न जाने को कहा गया।
वो हालात भी विवादों से भरे हैं जब राजीव ने ओरबासानो के चर्च में सोनिया से शादी की थी , लेकिन ये प्राइवेट मसला है , इसका जिक्र करना ठीक नहीं होगा। इंदिरा गांधी शुरू में इस विवाह के सख्त खिलाफ थीं , उसके कुछ कारण भी थे जो उन्हें बताये जा चुके थे। वो इस शादी को हिन्दू रीतिरिवाजों से दिल्ली में पंजीकृत कराने की सहमति तब दी जब सोवियत समर्थक टी एन कौल ने इसके लिए उन्हें कंविंस किया , उन्होंने इंदिरा जी से कहा था कि ये शादी भारत-सोवियत दोस्ती के वृहद इंटरेस्ट में बेहतर कदम साबित हो सकती है। कौल ने भी तभी ऐसा किया जब सोवियत संघ ने उनसे ऐसा करने को कहा।

सोनिया के केजीबी कनेक्शन

बताया जाता है कि सोनिया के पिता के सोवियत समर्थक होने के बाद से सोवियत संघ का संरक्षण सोनिया और उनके परिवार को मिलता रहा। जब एक प्रधानमंत्री का पुत्र लंदन में एक लड़की के साथ डेटिंग कर रहा था , केजीबी जो भारत और सोवियत रिश्तों की खासा परवाह करती थी , ने अपनी नजर इस पर लगा दी , ये स्वाभाविक भी था , तब उन्हें पता लगा कि ये तो स्टेफनो की बेटी है , जो उनका इटली का पुराना विश्वस्त सूत्र है। इस तरह केजीबी ने इस शादी को हरी झंडी दे दी। इससे पता चलता है कि केजीबी श्रीमती इंदिरा गांधी के घर में कितने अंदर तक घुसा हुआ था। राजीव और सोनिया के रिश्ते सोवियत संघ के हित में भी थे , इसलिए उन्होंने इस पर काम भी किया।
राजीव की शादी के बाद मैनो परिवार को सोवियत रिश्तों से खासा फायदा भी हुआ। भारत के साथ सभी तरह सोवियत सौदों , जिसमें रक्षा सौदे भी शामिल थे , से उन्हें घूस के रूप में मोटी रकम मिलती रही। एक प्रतिष्ठित स्विस मैगजीन स्विट्जर इलेस्ट्रेटेड के अनुसार राजीव गांधी के स्विस बैंक अकाउंट में दो बिलियन पाउंड जमा थे , जो बाद में सोनिया के नाम हो गये।
डॉ. येवगेनी अलबैट (पीएचडी , हार्वर्ड) जाने माने रूसी स्कॉलर और जर्नलिस्ट हैं और वो अगस्त 1981 में राष्ट्रपति येल्तिसिन द्वारा बनाये गये केजीबी कमीशन के सद्स्यों में भी थीं। उन्होंने तमाम केजीबी की गोपनीय फाइलें देखीं , जिसमें सौदों से संबंधित फाइलें भी थीं। उन्होंने अपनी किताब द स्टेट विदइन स्टेट - केजीबी इन द सोवियत यूनियन में उन्होंने इस तरह की गोपनीय बातों के रिफरेंस नंबर तक दे दिये हैं , जिसे किसी भी भारतीय सरकार द्वारा क्रेमलिन से औपचारिक अनुरोध पर देखा जा सकता है।
रूसी सरकार की 1982 में अल्बैटस से मीडिया के सामने ये सब जाहिर करने पर भिङत भी हुई। उनकी बातों की सत्यता की पुष्टि रूस के आधिकारिक प्रवक्ता ने भी की। (ये हिन्दू 1982 में प्रकाशित हुई थी)। प्रवक्ता ने इन वित्तीय भुगतानों की पैरवी करते हुए कहा था कि सोवियत हितों की दृष्टि से ये जरूरी थे। इन भुगतानों में कुछ हिस्सा मैनो परिवार के पास गया , जिससे उन्होंने कांग्रेस पार्टी की चुनावों में भी फंडिंग की। 1981 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो चीजें श्रीमती सोनिया गांधी के लिए बदल गईं। उनका संरक्षक देश 16 देशों में बंट गया। अब रूस वित्तीय रूप से खोखला हो चुका था और अव्यवस्थाएं अलग थीं। इसलिए श्रीमती सोनिया गांधी ने अपनी निष्ठाएं बदल लीं और किसी और कम्युनिस्ट देश के करीब हो गईं , जो रूस का विरोधी है। रूस के मौजूदा प्रधानमंत्री और इससे पहले वहां के राष्ट्रपति रहे पुतिन एक जमाने में केजीबी के बड़े अधिकारी थे। जब डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो रूस ने अपने करियर डिप्लोमेट राजदूत को नई दिल्ली से वापस बुला लिया और तुरंत उसके पद पर नये राजदूत को तैनात किया , जो नई दिल्ली में 1960 के दशक में केजीबी का स्टेशन चीफ हुआ करता था।
इस मामले में डॉ. अल्बैट्स का रहस्योदघाटन समझ में आता है कि नया राजदूत सोनिया के केजीबी के संपर्कों के बारे में बेहतर तरीके से जानता था। वो सोनिया से स्थानीय संपर्क का काम कर सकता था। नई सरकार सोनिया के इशारों पर ही चलती है और उनके जरिए आने वाली रूसी मांगों को अनदेखा भी नहीं कर सकती। क्या इससे ये नहीं लगता कि ये भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक भी हो सकता है।
वर्ष 2001 में मैंने दिल्ली में एक रिट याचिका दायर की , जिसमें केजीबी डाक्यूमेंट्स की फोटोकापियां भी थीं और इसमें मैंने सीबीआई जांच की मांग की थी लेकिन वाजपेई सरकार ने इसे खारिज कर दिया। इससे पहले सीबीआई महकमे को देखने वाली गृह राज्य मंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने मेरे 3 मार्च 2001 के पत्र पर सीबीआई जांच का आदेश भी दे दिया था लेकिन इस मामले पर सोनिया और उनकी पार्टी ने संसद की कार्रवाई रोक दी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेई ने वसुधरा की जांच के आदेश को खारिज कर दिया। मई 2002 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक दिशा निर्देश जारी किया कि वो रूस से मालूम करे कि सत्यता क्या है , रुसियों ने ऐसी किसी पूछताछ का कोई जवाब नहीं दिया लेकिन सवाल ये है कि किसने सीबीआई को इस मामले पर एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया था। वाजपेई सरकार ने , लेकिन क्यों ? इसकी भी एक कहानी है।
अब सोनिया ड्राइविंग सीट पर हैं और सीबीआई की स्वायत्ता लगभग खत्म सी हो चुकी है।

सोनिया और भारत के कानूनों का हनन

सोनिया के राजीव से शादी के बाद वह और उनकी इतालवी परिवार को उनके दोस्त और स्नैम प्रोगैती के नई दिल्ली स्थित प्रतिनिधि आटोवियो क्वात्रोची से मदद मिली। देखते ही देखते मैनो परिवार इटली में गरीबी से उठकर बिलियोनायर हो गया।
ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं था जिसे छोड़ा गया। 19 नवंबर 1964 को नये सांसद के तौर पर मैंने प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी से संसद में पूछा क्या उनकी बहू पब्लिक सेक्टर की इंश्योरेंस के लिए इंश्योरेंस एजेंट का काम करती है (ओरिएंट फायर एंड इंश्योरेंस) और वो भी प्रधानमंत्री हाउस के पते पर और उसके जरिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके पीएमओ के अधिकारियों का इंश्योरेंस करती हैं। जबकि वो अभी इतालवी नागरिक ही हैं (ये फेरा के उल्लंघन का मामला भी था) । संसद में हंगामा हो गया। कुछ दिनों बाद एक लिखित जवाब में उन्होंने इसे स्वीकार किया और कहा हां ऐसा हुआ था और ऐसा गलती से हुआ था लेकिन अब सोनिया गांधी ने इंश्योरेंस कंपनी से इस्तीफा दे दिया है।
जनवरी 1970 में श्रीमती इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में लौटीं और सोनिया ने पहला काम किया और ये था खुद को वोटर लिस्ट में शामिल कराने का। ये नियमों और कानूनों का सरासर उल्लंघन था। इस आधार पर उनका वीसा भी रद्द किया जा सकता था तब तक वो इतालवी नागरिक के रूप में कागजों में दर्ज थीं। जब मीडिया ने इस पर हल्ला मचाया तो मुख्य निर्वाचक अधिकारी ने उनका नाम 1972 में डिलीट कर दिया। लेकिन जनवरी 1973 में उन्होंने फिर से खुद को एक वोटर के रूप में दर्ज कराया जबकि वो अभी भी विदेशी ही थीं और उन्होंने पहली बार भारतीय नागरिकता के लिए अप्रैल 1973 में आवेदन किया था।

 सोनिया गांधी आधुनिक रॉबर्ट क्लाइव

मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि सोनिया गांधी भारतीय कानूनों का सम्मान नहीं करतीं। अगर कभी उन्हें किसी मामले में गलत पाया गया या कठघरे में खडा किया गया तो वो हमेशा इटली भाग सकती हैं। पेरू में राष्ट्रपति फूजीमोरी जो खुद को पेरू में पैदा हुआ बताते थे , जब भ्रष्टाचार के मामले में फंसे और उन पर अभियोग चलने लगा तो वो जापान भाग गये और जापानी नागरिकता के लिए दावा पेश कर दिया।
1977 में जब जनता पार्टी ने चुनावों में कांग्रेस को हराया और नई सरकार बनाई तो सोनिया अपने दोनों बच्चों के साथ नई दिल्ली के इतालवी दूतावास में भाग गईं और वहीं छिपी रहीं यहां तक की इस मौके पर उन्होंने इंदिरा गांधी को भी उस समय छोड़ दिया। ये बात अब कोई नई नहीं है बल्कि कई बार प्रकाशित भी हो चुकी है। राजीव गांधी उन दिनों सरकारी कर्मचारी (इंडियन एयरलाइंस में पायलट) थे। लेकिन वो भी सोनिया के साथ इस विदेशी दूतावास में छिपने के लिए चले गये। ये था सोनिया का उन पर प्रभाव। राजीव 197८ में सोनिया के प्रभाव से बाहर निकल चुके थे लेकिन जब तक वो स्थितियों को समझ पाते तब तक उनकी हत्या हो चुकी थी।
जो लोग राजीव के करीबी हैं , वो जानते हैं कि वो 1981 के चुनावों के बाद सोनिया को लेकर कोई सही कदम उठाने वाले थे। उन्होंने सभी प्रकार के वित्तीय घोटालों और 197८ के चुनावों में हार के लिए सोनिया को जिम्मेदार माना था। मैं तो ये भी मानता हूं कि सोनिया के करीबी लोग राजीव से घृणा करते थे। इस बात का जवाब है कि राजीव के हत्यारों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के मृत्युदंड के फैसले पर मर्सी पीटिशन की अपील राष्ट्रपति से की गई। ऐसा उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारे सतवंत सिंह के लिए क्यों नहीं किया या धनंजय चट्टोपाध्याय के लिए नहीं किया ?
वो लोग जो भारत से प्यार नहीं करते वो ही भारत के खजाने को बाहर ले जाने का काम करते हैं , जैसा मुहम्मद गौरी , नादिर शाह और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव ने किया था। ये कोई सीक्रेट नहीं रह गया है। लेकिन सोनिया गांधी तो उससे भी आगे निकलती हुई लग रही हैं। वो भारतीय खजाने को जबरदस्त तरीके से लूटती हुई लग रही हैं। जब इंदिरा गांधी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तो एक भी दिन ऐसा नहीं हुआ जब क्रेट के क्रेट बहुमूल्य सामानों को बिना कस्टम जांच के नई दिल्ली या चेन्नई इंटरनेशनल एयरपोर्ट से रोम न भेजा गया हो। सामान ले जाने के लिए एयर इंडिया और अलीटालिया को चुना जाता था। इसमें एंटिक के सामान , बहुमूल्य मूर्तियां , शॉल्स , आभूषण , पेंटिंग्स , सिक्के और भी न जाने कितनी ही बहुमूल्य सामान होते थे। ये सामान इटली में सोनिया की बहन अनुष्का उर्फ अलेक्सांद्रो मैनो विंसी की रिवोल्टा की दुकान एटनिका और ओरबासानो की दुकान गणपति पर डिसप्ले किया जाता था। लेकिन यहां उनकी बिक्री ज्यादा नहीं थी इसलिए इसे लंदन भेजा जाने लगा और सोठेबी और क्रिस्टी के जरिए बेचा जाने लगा।
इस कमाई का एक हिस्सा राहुल गांधी के वेस्टमिनिंस्टर बैंक और हांगकांग एंड शंघाई बैंक की लंदन स्थित शाखाओं में भी जमा किया गया। लेकिन ज्यादातर पैसा गांधी परिवार के लिए काइमन आइलैंड के बैंक आफ अमेरिका में है। राहुल जब हार्वर्ड में थे तो उनकी एक साल की फीस बैंक आफ अमेरिका काइमन आइलैंड से ही दी जाती थी।
मैं वाजपेई सरकार को इस बारे में बार-बार बताता रहा लेकिन उन्हें विश्वास में नहीं ले सका , तब मैने दिल्ली हाईकोर्ट में एक पीआईएल दायर की। कोर्ट ने इस मामले में सीबीआई को इंटरपोल और इटली सरकार की मदद लेकर जांच करने को कहा। इंटरपोल ने इन दोनों दुकानों की एक पूरी रिपोर्ट तैयार करके सीबीआई को भी दी , जिसे कोर्ट ने सीबीआई से मुझे दिखाने को भी कहा , लेकिन सीबीआई ने ऐसा कभी नहीं किया। सीबीआई का झूठ तब भी अदालत में सबके सामने आ चुका था जब उसने अलेक्सांद्रो मैनो का नाम एक आदमी का बताया और विया बेलिनी 14 , ओरबासानो को एक गांव का नाम बताया था जबकि मैनो के निवास की स्ट्रीट का पता था। अलबत्ता सीबीआई के वकील द्वारा इस गलती के लिए अदालत के सामने खेद जाहिर करना था लेकिन उसे नई सरकार द्वारा एडिशिनल सॉलिसीटर जनरल के पद पर प्रोमोट कर दिया गया।

स्वामी ने सोनिया को लपेटा

जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने अब 2जी स्पेक्ट्रम घेाटाले की जद में कांग्रेस व यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी ले आए हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि पौने दो लाख करोड के 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में 60 हजार करोड रुपए घूस बांटी गई जिसमें चार लोग हिस्सेदार थे। इस घूस में सोनिया गांधी की दो बहनों का हिस्सा 30-30 प्रतिशत है। 10 जनपथ को घोटाले का केंद्र बिंदु बताते हुए उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री सब कुछ जानते हुए भी मूक दर्शक बने रहे। स्पेक्ट्रम मामले पर सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई से पहले अपने घर आराम करने देहरादून पहुंचे स्वामी ने पत्रकार वार्ता के दौरान २जी मामले में कांग्रेस नेतृत्व पर कई आरोप लगा स्वामी ने दावा किया इस घोटाले में घूस के तौर पर बांटे गए 60 हजार करोड़ रुपये का दस प्रतिशत हिस्सा पूर्व संचार मंत्री ए राजा को गया। 30 फीसदी हिस्सेदारी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि को और 30-30 प्रतिशत हिस्सेदारी सोनिया गांधी की दो बहनों नाडिया और अनुष्का को गया है। हालांकि इसके कोई दस्तावेजी सबूत उन्होंने उपलब्ध नहीं कराए। स्वामी ने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया है कि अमेरिका से स्पेक्ट्रम मामले में हुए लेनदेन का रिकार्ड भी मंगाया जाए। साथ ही उन्होंने पूर्व मंत्री ए राजा की सुरक्षा की मांग भी प्रधानमंत्री से की है। उनका कहना था कि ए राजा की सबसे अच्छी सुरक्षा तभी हो सकती है जब वो जेल में हों या फिर उन्हें हाउस अरेस्ट किया जाए। स्वामी ने राजा की सुरक्षा को लेकर लिखी चिठ्ठी के जवाब में प्रधानमंत्री की ओर से आए पत्र को भी सार्वजनिक किया। इस पत्र में कहा गया है कि ए राजा को उचच स्तरीय सुरक्षा दी जा रही है और स्पेक्ट्रम डील के बैंक रिकॉर्ड की जानकारी के लिए अमेरिका सरकार से कहा जा रहा है। ए राजा की चिंता की वजह पूछे जाने पर स्वामी ने कहा कि इस महाघोटाले की सारी जानकारी राजा के पास है। इस मामले में अरब देशों के अंडरवर्ल्ड के लोग भी शामिल हैं। राजा की हत्या कर वे सबूत मिटाना चाहेंगे। उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा रामदेव मुहिम में सहयोग करने पर भी खुद को तैयार बताया।

सर्पों की एक और क्रीडा स्थली

जुलाई 27, 2009
पाम्बू मेकाट्टू मना :
Mekattumana
पिछले पोस्ट में हमने मन्नारशाला के बारे में जाना था. केरल में  सर्पों के लिए प्रख्यात एक दूसरी जगह भी है, “पाम्बू मेकाट्टू मना”. यह थ्रिस्सूर से दक्षिण में लगभग २५ किलोमीटर की दूरी पर माला नामके क़स्बे में है. “मना” वास्तव में कोई मंदिर नहीं है परन्तु नाम्बूदिरियों का पारंपरिक आवास है. इन्हें इल्लम भी कहा जाता है. साधारणतया नाम्बूदिरियों के आवास की बनावट एक विशेष प्रकार की होती है. उन्हें “नालू केट्टू” अर्थात चारों तरफ निर्माण और बीच में बड़ा सा दालान या आँगन. यहाँ इस पाम्बू मेकाट्टू मना में ऐसे दो निर्माण हैं इसलिए इसे “एट्टू केट्टू” कहा गया है. “एट्टू” आठ का पर्यायवाची शब्द है जब की “नालु” चार के लिए प्रयुक्त होता है. प्रवेश द्वार में विभिन्न सर्प आकृतियाँ उकेरी गयीं हैं.Mala Map
यह आवासीय परिसर ६ एकड़ के भूभाग पर फैला हुआ है और इस परिसर के अन्दर सर्पों के ५ ”कावू” या चबूतरे हैं. बड़े बड़े वृक्षों, बेलों एवं अन्य जंगली वनस्पतियों से आच्छादित
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. चमगादडों की भी भरमार है. जहाँ वास्तव में मंदिर का गर्भ गृह बताया जाता है वह परिसर के पूर्वी भाग में है. अन्दर दो कांसे से बने बड़े दीप अनवरत जलते रहते है. इन्हें “केडा विलक्कू” (अखंड ज्योति) कहा जाता है अर्थात कभी न बुझने वाला. ये जो दिए हैं वे वासुकी और नागयक्षी के प्रतीक स्वरुप हैं. वहां कोई प्रतिमा नहीं है. इस कक्ष में प्रवेश कुछ ख़ास दिनों में ही दिया जाता है. साधारणतया केवल उच्च वर्ण के लोग ही “कावू” के निकट जा सकते हैं. कुछ अवसरों पर सभी के लिए यह खुला रहता है. जैसे शबरी मला जाते हुए अय्यप्पा भक्तों के लिए नवम्बर के माह में परन्तु प्रवेश के पहले वहां के बावडी में स्नान कर गीले वस्त्रों को धारण कर ही जा सकते हैं.  यहाँ पर नैवेद्य के रूप में चांवल का आटा और दूध अथवा केले की एक स्थानीय प्रजाति “कदली” चढावे के रूप में भक्तों द्वारा दिया जाता है. “कदली” का अर्थ ही होता है केला परन्तु यह एक छोटे प्रकार का केला है जिसे हमने महाराष्ट्र में भी पाया है. नम्बूदिरी लोगों के पूजा विधान में मन्त्र की अपेक्षा तंत्र का प्रयोग अधिक होता है क्योंकि वे शक्ति साधना करते हैं अतः परिसर के अन्दर ही एक काली माता (भद्रकाली) का मंदिर भी है. वैसे साधारणतया हर “मना” में ऐसे मंदिर या तो परिसर के अन्दर ही होते हैं या फिर निकट ही. किसी नम्बूदिरी को पूजा संपन्न करते हुए देखना भी एक अलग अनुभव है. मंत्रों का उच्चारण कम परन्तु हस्त मुद्राओं से लगता है मानो कथकली कर रहे हों.
अब इस स्थल से जुडी किंवदंतियों को देखें तो प्रमुखतया बताया जाता है कि किसी जमाने में यह “मना” आर्थिक रूप से विपन्न हो गया था. यहाँ के बुजुर्ग नम्बूदिरी से गरीबी बर्दाश्त नहीं हुई. उसने तिरुवंचिकुलम (कोडूनगल्लुर / Cranganore) के शिव मंदिर में (यह केरल के प्राचीनतम शिव मंदिरों में से एक है) जो उनके “मना” से १५ किलोमीटर की दूरी पर ही था, तपस्यारत हो गया. १२ वर्षों के घोर तपस्या के बाद एक दिन जब वह नम्बूदिरी बावडी में जल लेने गया तो उसे दिव्यरुप में वासुकी
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के दर्शन हुए. नम्बूदिरी के समर्पण से प्रसन्न होकर वरदान भी दे दिया. नम्बूदिरी ने वासुकी
से आग्रह किया कि वे उनके “मना” में हमेशा उपस्थित रहें. तथास्तु तो होना ही था. वासुकी ने कहा ठीक है तुम जावो और अपने “मना” में दो दीप सदैव जलाये रखो. मेरी संगिनी भी आएगी. नम्बूदिरी ने वैसा ही किया और तब से उस “मना” के भाग्य खुल गए और दीप भी जल रहे हैं. एक दूसरी किंवदंती के अनुसार नम्बूदिरी को वासुकी से एक अभूतपूर्व मणि की प्राप्ति होती है और जब तक वह मणि “मना” में रहेगी, वहां समृद्धि का वास होगा ऐसा वासुकी ने कहा था. खैर जो भी रहा हो.
बचपन में हमने जिद की थी और अपने पिताश्री के साथ वहां गए भी. कहा जाता था कि वहां चारों तरफ सर्प घूमते रहते हैं. हम तो अपने ही घर में इन सर्पों को रोजाना देखने के आदी हो चले थे. यहाँ दो चार अधिक थे. वैसे वे होते तो हैं शर्मीले/डरपोक, वे अपने रस्ते चले जाते हैं. यहाँ की एक बड़ी विशिष्टता यह है कि यहाँ सर्पदंश से पीड़ित लोगों का उपचार भी किया जाता है. यहाँ के नम्बूदिरी विष शास्त्र के बड़े जानकार हैं और हमारे पारंपरिक चिकित्सा के द्वारा ही पीडितों की सहायता करते हैं. उस क्षेत्र के सभी लोग सर्प दंश से पीड़ित होने पर सर्वप्रथम यहीं आते हैं. कहा जाता है कि वहां के नम्बूदिरी वैद्य को पहले से आभास हो जाता है कि फ़लाने दिशा से कोई पीड़ित आज आएगा. अपने अधीनस्तों को वह आवश्यक सामग्री आदि जुटाकर तैयार रहने के निर्देश भी दे देता है. कभी कभी जब उसे मालूम हो जाता है कि जो  व्यक्ति  आने वाला है उसे बचाया नहीं जा सकता तो वह अपने कर्मियों को भिजवा कर रास्ते में ही सर्प दंश से पीड़ित व्यक्ति के बंधुओं को सूचित कर देता है कि यहाँ आने से कोई लाभ नहीं होगा. अन्तेय्ष्टि कर दें.
यह सब तो सुनी सुनाई बातें हैं. आज के इस आधुनिक युग में जब हम हर चीज को विज्ञान के नजरिये से देखते हैं तो ऐसी बातें गले नहीं उतरतीं. संभवतः लोगों में आस्था जागृत करने और बनाये रखने के लिए किस्से कहानियां प्रचारित होती हैं. लेकिन एक बात अवश्य ही कहेंगे कि हमारी पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली भी समृद्ध है. केरल में ऐसे कई जगह हैं जहाँ विष चिकित्सा में लोग पारंगत हैं. एंटी वेनम तो आधुनिक चिकित्सा के अर्न्तगत आता है परन्तु पहले हमारे ग्रामीण अंचलों में इन्हीं वैद्यों के उपचार से लोग ठीक हुआ करते थे. सर्प दंश के मामले में समय का बड़ा महत्त्व है. समय रहते चिकित्सा उपलब्ध हो जावे तभी पीड़ित व्यक्ति बच सकता है. यह बात तो आज के आधुनिक चिकित्सा प्रणाली पर भी लागू होती है.

जहाँ सर्प स्वछन्द घूमते हैं

जुलाई 20, 2009
पांच या छह माह पूर्व स्थानीय समाचार पात्र में एक खबर छपी थी कि उत्तर प्रदेश के अमरोहा में एक बिच्छू दरगाह है. ८०० साल पहले सैय्यद सर्बुद्दीन ईरान से यहाँ आये थे. संभवतः कोई सूफी संत रहे होंगे. उन्हें बिच्छू वाले बाबा भी कहा जाता है. इस दरगाह के अन्दर अनेकों बिच्छू स्वतंत्र घूमते रहते हैं परन्तु किसी को डंक नहीं मारते. परन्तु दरगाह के बाहर पाए जाने वाले बिच्छू बाबा के प्रभाव से मुक्त है तथापि उनसे बचना पड़ता है.
अब हम केरल जा रहे हैं. यह प्रांत भी सर्पों का प्रदेश कहला सकता है. प्राचीन काल से ही जब वहां वैदिक धर्म या बौद्ध धर्म का भी प्रवेश नहीं हुआ था, सर्प पूजा वहां की परंपरा रही है. आदिम जातियों की परम्पराओं को देखे तो बात बिलकुल साफ़ है. आदमी जिन जिन से भी डरता था उन्हें पूजने लगा था. आज भी केरल के पुराने घरों के दक्षिण पश्चिम भाग में एक चबूतरा होगा जिसपर सर्पों की प्रतिमाएँ लगी होती है. इन्हें “पाम्बुम कावु या सर्प कावु” कहा जाता है.Kavu इस भाग में जंगल जैसा वातावरण होता है. प्राकृतिक वनस्पतियों को यों ही बढ़ने दिया जाता है. हम कह सकते हैं कि सर्पों के लिए निर्मित उस क्षेत्र में मानव द्वारा किसी भी प्रकार से अतिक्रमण नहीं किया जाता. नित्य चबूतरे पर दिया भी जलाया जाता है. मान्यता है कि जिन घरों में ऐसी व्यवस्था है वहां सर्पों का कोई प्रकोप नहीं होता. लगभग सभी संस्कृतियों में सर्पों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है और हाल की खोजों से पता चलता है कि सर्पों की पूजा का विधान ७०,००० वर्ष पूर्व से ही है. भारत के मंदिरों में भी सर्पों को किसी न किसी रूप में प्रर्दशित किया गया है. कितनी ही पौराणिक कथाएँ उनसे जुडी हुई हैं. केरल में भी कई मंदिर सर्पों पर केन्द्रित हैं परन्तु कुछ एक अति विशिष्ट भी हैं.
मन्नारशाला :
मन्नारशाला, आलापुज्हा (अलेप्पी) से मात्र ३७ किलोमीटर की दूरी पर है. कोल्लम (quilon) जाने वाले रस्ते पर हरिपाड नामक छोटे शहर के पास ही. यहाँ पर है एक मंदिर जो नागराज और उनकी संगिनी नागयक्षी को समर्पित. यह मंदिर १६ एकड़ के भूभाग पर फैला हुआ है और जिधर देखो आपको सर्पों की प्रतिमाएँ ही दिखेंगी जिनकी संख्या ३०,००० के ऊपर बताई जाती हैं. और तो और अन्दर भी कई सर्प निर्भीक होकर स्वछन्द विचरण करते पाए जा सकते है. चलते समय सावधानी बरतनी पड़ेगी कि कहीं हमारे पैर उनपर न पड़ जाएँ. कहा तो जाता है कि वे भक्तों को नहीं डसते परन्तु आखिर जंगली जीव जो ठैरे . इस कलियुग में हम कैसे भरोसा कर लें.Mannarshala1
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एक मिथक के अनुसार महाभारत काल में खंडावा नामक कोई वन प्रदेश था जिसे जला दिया गया था. परन्तु एक हिस्सा बचा रहा जहाँ वहां के सर्पों ने और अन्य जीव जंतुओं ने शरण ले ली. मन्नारशाला वही जगह बताई जाती है. मंदिर परिसर से ही लगा हुआ एक नम्बूदिरी का साधारण सा खानदानी घर (मना/इल्लम) है. मंदिर के मूलस्थान में  पूजा अर्चना आदि का कार्य वहां के नम्बूदिरी घराने की बहू निभाती है. उन्हें वहां अम्मा कह कर संबोधित किया जाता है. शादी शुदा होने के उपरांत भी वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए दूसरे पुजारी परिवार के साथ अलग कमरे में निवास करती है. इस मंदिर के सन्दर्भ में हमने “मूलस्थान” का प्रयोग किया है. जिस मंदिर में हम नागराज के दर्शन करते हैं वह मूलस्थान नहीं है. यह कुछ ताज महल में मुमताज महल की कब्र की तरह है जहाँ वास्तविक कब्र नीचे है और ऊपर जहाँ हम देख रहे होते हैं वह दिखावे के लिए है. ऐसा ही कुछ यहाँ भी है. इस से अधिक हमें जानकारी भी नहीं है..
कहा जाता है कि उस खानदान की एक स्त्री निस्संतान थी. उसके अधेड़ होने के बाद भी उसकी प्रार्थना से वासुकी प्रसन्न हुआ और उसकी कोख से एक पांच सर लिया हुआ नागराज और एक बालक ने जन्म लिया. उसी नागराज की प्रतिमा इस मंदिर में लगी है. यहाँ की महिमा यह है
Uruli
कि निस्संतान दम्पति यहाँ आकर यदि प्रार्थना करें तो उन्हें संतान प्राप्ति होती है. इसके लिए दम्पति को मंदिर से लगे तालाब (बावडी) में नहाकर गीले कपडों में ही दर्शन हेतु Uruli ultaजाना होता है. साथ में ले जाना होता है एक कांसे का पात्र जिसका मुह चौडा होता है. इसे वहां उरुली कहते है. उस उरुली को पलट कर रख दिया जाता है. संतान प्राप्ति अथवा मनोकामना पूर्ण होने पर लोग वापस मंदिर में आकर अपने द्वारा रखे गए उरुली को उठाकर सीधा रख देते हैं औरउसमें चढावा आदि रख दिया जाता है. इस मंदिर से जुडी और भी बहुत सारी किंवदंतियाँ हैं.
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एक वीडियो युट्यूब में प्राप्त हुआ. नीचे दे रहे हैं

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