रविवार, 3 जून 2012

जहाँ दलितों को दफ़नाया जाता है

रविवार, नवंबर 29, 2009,12:20 [IST]
Courtesy: BBCHindi.com
जहाँ दलितों को दफ़नाया जाता है


&13;मुकुल श्रीवास्तव

&13;लखनऊ से बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए

&13;उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले के एक गाँव कुल्हनामऊ में ग़रीबी के कारण दलितों का अंतिम संस्कार हिन्दू रीति रिवाज़ों के अनुसार न कर उन्हें ज़मीन में दफ़नाया जाता है. मृतकों को दफ़नाने के लिए गाँव में ही बाकायदा एक क़ब्रिस्तान बना हुआ है .

&13;गाँव के 80 वर्षीय बुज़ुर्ग मुरली बताते हैं कि अंग्रेजों के ज़माने से यहाँ मृतकों को दफ़नाया जाता रहा है. पहले यहाँ सिर्फ साधुओं को ही दफ़नाया जाता था लेकिन बाद में गाँव के ग़रीब लोग अपने संबंधियों को यहाँ दफ़नाने लग गए .

&13;अंतिम संस्कार के लिए शवों को दफ़ना देना एक सस्ता विकल्प है. मुरली के परिवार के सभी रिश्तेदार गाँव के इसी क़ब्रिस्तान में दफ़न हैं. वो बताते हैं कि एक मृतक के अंतिम संस्कार में कम से कम दो सौ किलोग्राम लकड़ी लगती है और बाकी के क्रिया कर्म के पैसे अलग. उनकी ख़ुद की तबीयत खराब है. पैसे की तंगी के कारण वे अपना इलाज़ नहीं करवा पा रहे हैं.

&13;लेकिन मुरली यह कहना नहीं भूलते, "अगर अच्छा खाना मिले तो कोई ख़राब खाना नहीं खाएगा. अगर मेरा अंतिम संस्कार हिन्दू रीति रिवाज़ों के अनुसार हो तो मैं अपने आपको धन्य मानूँगा."

&13;जौनपुर के ही एक और गाँव शिवापार के दलित रामअधार ज़ोर देकर कहते हैं कि शव को दफ़नाने की परंपरा का मूल आधार ग़रीबी ही है. ये बात अलग है कि कुल्हनामऊ में इसके लिए एक जगह निर्धारित कर दी गई है.

&13;ग़रीबी

&13;लगभग सात हज़ार की आबादी वाले इस गाँव में दलितों की आबादी लगभग तीन हज़ार है. इन लोगों की हिंदू धर्म में पूरी आस्था है. ये शादी ब्याह से लेकर अन्य सभी तीज त्यौहार हिंदू परंपरा से ही मनाते हैं. गाँव के लाल जी बताते हैं, " इस गाँव के दलितों के पास खेती योग्य ज़मीन कम है. पढ़ाई-लिखाई का स्तर ज्यादा नहीं है, इसलिए ग़रीबी ज्यादा है."

&13;ऐसे में वे दलित जो ग़रीब है, शव को दफ़ना देते हैं. गाँव की प्रधान अकला देवी बताती हैं कि इस गाँव में अकुशल श्रमिकों की संख्या ज्यादा है. ये छोटे-मोटे काम करके अपनी ज़िंदगी बिता देते हैं. उनके परिवार के भी बहुत से लोगों का अंतिम संस्कार इसी कब्रिस्तान में हुआ है.

&13;गाँव के लोला और बनवारी का दर्द भी यही है. ये दोनों प्लास्टिक की बाल्टी जोड़ने का काम करते हैं लेकिन उनकी दिली इच्छा यही है कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति -रिवाज़ों के अनुसार हो. वे चाहते हैं कि सरकार इस ओर ध्यान दे. वे कहते हैं, " जीवन तो जैसे तैसे कट ही जाएगा लेकिन हम अपना परलोक नहीं बिगाड़ना चाहते हैं."

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