शनिवार, 29 जून 2013

आरक्षण व्यवस्था

    यह पुस्तक ऐतिहासिक तथ्यों, उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के निर्णयों एवम राजनीतिक पार्टियों द्वारा आरक्षण के सम्बन्ध में जो असमंजस की समस्याएं देश के सामने उत्पन्न की गर्इ हैं उनका विस्तृत विवरण और समाधान हेतु इस पुस्तक का लिखने का मुख्य कारण है और सदियों से मूलनिवासी समाज को ब्राम्हणवादी व्यवस्था के द्वारा राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग- थलग कर जानवरों से बदतर जिन्दगी जीने को मजबूर किया उनको आरक्षण द्वारा ही राष्ट्र की मुख्य धारा में लाया जा सकता है। जिससे देश महाशकित बन सकता है यह पुस्तक मूलनिवासियों के अधिकारों की जानकारी देगी ।
    माननीय कांशीराम जी जिन्होंने मूलनिवासी पूर्वजों के सपनों को पूरा करने के लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन इस संकल्प के साथ किया था कि ब्राम्हणवादी व्यवस्था का विनाश कर समता,स्वतंत्रता, बन्धुत्वता और न्याय पर आधारित समाज और राष्ट्र का निर्माण करेगें और देश को दुनिया की महाशकित बनायेगें और वह जीवन पर्यन्त अपने मकसद में कामयाब रहे परन्तु उनकी मृत्यु के साथ-साथ उनके विचारों का भी उनके अनुयायियों ने अन्त कर दिया, मैं इस पुस्तक को माननीय कांशीराम जी को इस दृढ़-संकल्प के साथ समर्पित कर रहा हू कि हम उनके सपनों का भारत अवश्य बनायेंगे । 

                                                   ( एडवोकेट जे0एस0 कश्यप )
                                                        हार्इकोर्ट, इलाहाबाद ।

   







आरक्षरण व्यवस्था
1- प्रस्तावना ।
2- आरक्षण व्यवस्था क्यों ।
3- क्या पदोन्नति में आरक्षण आवश्यक है ।
4- बसपा सरकार द्वारा जारी किया गया शासनादेश निरस्त क्यों ।
5- क्या केन्द्र और राज्य सरकारें मूलनिवासी समाज को भ्रमित करने का कार्य कर रही हैं ।
6- प्रगतिशील न्यायाधीशों के निर्णय जिनके द्वारा आरक्षण व्यवस्था देश हित में है ।
7- पूर्वाग्रह से ग्रसित न्यायाधीशों के निर्णय जिनके द्वारा आरक्षण व्यवस्था को गलत बताया ।
प्रस्तावना
    लगभग पाच हजार सालों से यूरेशियन ब्राम्हणों द्वारा दबाये गये और कुचले गये अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछडे वर्ग व इनसे धर्मपरिवर्तित अल्पसंख्यकों को तथाकथित आजादी के बाद राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने हेतु भारतीय संविधान में आरक्षण व्यवस्था का प्रावधान किया गया । परन्तु 65 साल की आजादी के बाद आरक्षण पूर्णरूप से लागू नहीं किया गया । इस कारण इन मूलनिवासियों का शासन और प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हो सका । यह सब शासन सत्ता में बैठे यूरेशियन ब्राम्हणों के कारण हुआ और यह कार्य संविधान विरोधी है और जो लोग संविधान का विरोध जाने अनजाने में कर रहें हैं वह इस देश का विकास नहीं चाहते हैं । इसीलिए संवैधानिक अधिकार पूरे नहीं किये गये हैं और उससे पहले ही आरक्षण का विरोध शुरू हो गया । और इसी के साथ हर राजनीतिक पार्टियां  इस संवैधानिक अधिकार को राजनीतिक मकसद पूरा करने के लिए आमजनता को भ्रमित कर रही हैं । इसमें हमारे मूलनिवासी राजनेता भी जाने अनजाने में ब्राम्हणवादी व्यवस्था का साथ दे रहें हैं । आरक्षण का विरोध संविधान लागू होने के तुरन्त बाद से ही जारी है, जो प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के लिखे पत्र से साबित है । यह पत्र 17 जून 1961 को देश के सभी मुख्यमंत्रियों को लिखा गया था । इससे ऐसा लगता है, जो यूरेशियन ब्राम्हण इस देश में बाहर से आये उन्होंने आज तक इस देश व देशवासियों को अपना नहीं समझा है । यदि वह अपना समझते तो आरक्षण को पूरा करते  और साथ में अन्य आवश्यक सुविधाएं आवश्यकता अनुसार मूलनिवासी समाज को उपलब्ध कराते । यूरेशियन ब्राम्हणों को आरक्षण व्यवस्था का विरोध नहीं करना चाहिए और अविलम्ब इसे  पूरा करना चाहिए नही ंतो आज से लगभग 100 साल पहले स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि हे ब्राम्हणों इन मूलनिवासियों को इनके अधिकार दे दो और यदि ऐसा तुम नहीं करोगें तो इनमें चेतना जाग्रति आ जाने के बाद ये तुम्हें फंूक मारके हवा में उड़ा देंगें । हमारी समझ सेे अब वह  समय नजदीक आ गया है और ऐसा होना सुनिशिचत दिखार्इ देता है। और ऐसा न हो इसके लिए एक ही रास्ता है कि यूरेशियन ब्राम्हणों को  आरक्षण का विरोध करना बन्द कर देना चाहिए और आरक्षण पूरा क्यों नहीं हुआ है उसके कारणों का पता लगायें और जिन लोगों ने पूरा नहीं होने दिया है उन्हें चिनिहत कर राष्ट्रद्रोही घोषित करें इस कार्य के लिए प्रेस मीडिया, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका को दिन रात काम करना चाहिए । और मूलनिवासी समाज के संवैधानिक अधिकार पूर्ण करना चाहिए । यही देश, देशवासियों और यूरेशियन ब्राम्हणों के हित में है । हमारी यह धमकी नहीं है बलिक हमारा सुझाव है, इसीसे हमारा देश दुनिया में महाशकित बन सकता है।

आरक्षण व्यवस्था क्यों
    यह सच है कि सदियों से मूलनिवासी समाज ( अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछडा वर्ग और इनसे धर्म परिवर्तित अल्पसंख्यक ) अपने ही देश में यूरेशियन ब्राम्हणों द्वारा अधिकार वंचित कर उनका प्रत्येक क्षेत्र में शोषण किया और उन्हें जानवरों से बदत्तर जीवन यापन करने को मजबूर किया । तथाकथित आजादी के बाद देश के सामने यह प्रश्न खडा था कि देश की 90 प्रतिशत जनता को राष्ट्र की मुख्यधारा  में कैसे जोडा जाए तब संविधान सभा ने यह तय किया कि जो समाज सदियों से शोषण का शिकार रहा है, उसे राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने का मात्र एक ही रास्ता है और वह है कि उन्हें विशेष सुविधाएं दी जाए और उन विशेष सुविधाओं के आधार पर इनका शासन प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो इसके लिए ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15,16,16(4ए),46,330,331,341,342 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को शासन व प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण सुविधा उनकी जनसंख्या के अनुपात में 22.5 प्रतिशत प्रदान की तथा पिछडे वर्ग को विशेष सुविधाएं देने हेतु अनुच्छेद 340 में  आयोग बनाकर उन्हें शासन प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने हेतु व्यवस्था की गयी । अत: आरक्षण का सम्बन्ध देश के विकास से सम्बनिधत है और जो लोग आरक्षण का विरोध कर रहे हैं अथवा आरक्षण को राजनीतिक हथकण्डा बनाकर वोट बैंक का आधार बना रहे हैं वे  संविधान का विरोध कर रहे हैं और जो लोग संविधान का विरोध कर रहे वे राष्ट्र का विकास रोकने का कार्य कर रहे हैं और जो लोग या राजनीतिक पार्टियां राष्ट्र के विकास में बाधा डाल रही हैं वह राष्ट्रद्रोही है ।
    आरक्षण व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि आरक्षण व्यवस्था द्वारा ही इस देश का मूलनिवासी समाज शासन प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त कर इस देश को शकितशाली बना सकता है और धीरे-धीरे शासन प्रशासन पर काबिज होकर देश को दुनिया की महाशकित बना सकता है । क्योंकि यह ऐतिहासिक सच है कि इस देश का मूलनिवासी समाज यूरेशियन ब्राम्हणों के आने से पहले लगभग पन्द्रह सौे र्इशा पूर्व जब शासक था तब यहा की सिन्धु सभ्यता विश्व की सर्वश्रेष्ठ सभ्यता  थी और दुनिया की सम्पतित का तीसरा भाग इसी देश का था । सिन्धु जैसी सम्बृद्व और उत्कर्षित संस्कृति का विनाश निरक्षर यूरेशियन ब्राम्हणों द्वारा लगभग पन्द्रह सौ इशा पूर्व किया गया जो प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास के लेखक डा0 जय शंकर मिश्र, प्रकाशक विहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के पृष्ठ संख्या-30 पैरा दो में लिखा है कि  आर्य लोग अपने पूर्ववर्ती सिन्धु नागर निवासियों की तुलना में बर्बर और असभ्य थे उनकी संस्कृति अविकसित और निम्न स्तर की थी  । इसीलिए यूरेशियन आर्य ब्राम्हणों के शासक बनने के बाद यह देश गरीब अन्धविश्वासी,पाखण्डी और अत्याचारी के नाम से दुनिया में जाना जाने लगा था ।
    563 र्इशा पूर्व में तथागत गौतम बुद्व का जन्म हुआ और उनकी जन क्रानित के बाद यहां का मूल निवासी समाज पुन: शासक बना और देश पुन: महाशकितशाली बना और व्यापार,वाणिज्य तथा शिक्षा में दुनिया में प्रथम स्थान प्राप्त किया । परन्तु 184 र्इशा पूर्व में पुष्यमित्रशुग ने मूलनिवासियो के अनितम शासक वृहदत्त का कत्ल कर पुन: प्रतिक्रानित की और इस देश का शासक पुन: यूरेशियन ब्राम्हण बना  उसके शासक बनने के बाद देश हर क्षेत्र में कमजोर हुआ और इसी कारण इस देश पर 600 वर्षो तक मुगलों व 200 वर्षो तक अंग्रेजों ने शासन किया । तथाकथित आजादी के बाद आरक्षण व्यवस्था द्वारा यहा के मूलनिवासी समाज को शासन प्रशासन में भागीदारी मिली इसलिए पुन: देश ताकतवर बनने के नजदीक पहुच रहा है ।
इससे यह साबित होता है कि यूरेशियन ब्राम्हणों द्वारा स्थापित ब्राम्हणवादी व्यवस्था में इस देश का विकास सम्भव नहीं है । अत: वर्तमान समय पर आरक्षण व्यवस्था द्वारा ही सदियों से अधिकार वंचित समाज को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का एक मात्र उपाय है । यह मूलनिवासियों को शासन प्रशासन में भागीदारी के साथ-साथ इस देश को महाशकित बनाने का भी एकमात्र रास्ता है । अत: आरक्षण व्यवस्था देश व देशवासियों के हित में है ।             

क्या पदोन्नति में आरक्षण आवश्यक है
    पदोन्नति में आरक्षण का विरोध इसलिए किया जाता है कि कनिष्ठ वरिष्ठ का बास बन जाता है अर्थात अयोग्यता योग्यता पर हावी हो जाती है । मौलिक प्रश्न यह उठता है कि योग्यता और मौलिकता क्या है यदि हम एक ऐसे सेवा राज्य  (ैमतअपबम ैजंजम द्ध की परिकल्पना करना चाहते हैं जिसमें लाखों करोडों लोग उपभोक्ता के रूप में हैं तो उसके अन्तर्गत सरकारी व्वयसाय अथवा कामकाज चलाने के लिए यूरेशियन ब्राम्हण वर्ग जिसकी आम जनता के प्रति सहानुभूति मर चुकी है और जिसका मात्र एक ही उददेश्य रहा है कि यहां के मूल निवासियों को शासित और शोषित कैसे बनाए रखा जाये वह सबसे कम योग्य और अनुपयुक्त है। जिस व्यकित ने शोषण,अत्याचार सहन किया है। उसका संवेदनशील हृदय और गतिशील मसितष्क वाला व्यकित आम जनता के दु:खो को समझ सकता है।  और इस प्रकार वही देश के विकास कार्यो में तेजी ला सकता है । सच्ची निष्ठा और बौद्विक कुशलता ही योग्यता अथवा उपयुक्तता के प्रमुख घटक हैं न कि आक्सफोर्ड,कैबि्रज, हार्वड अथवा स्टैनफोर्ड आदि संस्थाओं से प्राप्त की गयी उपाधिया । हमें यह बडे दुख के साथ लिखना पड़़ रहा है कि  लोगों का चयन परीक्षा के माध्यम से अवश्य होता  हैं लेकिन यह परीक्षा प्रणाली त्रुटिपूर्ण है । क्योंकि हमारी परीक्षा प्रणाली ऐसी है जिसमें याददाश्त ही योग्यता का निर्धारण कारक है और रचनात्मकता की कोर्इ आवश्यकता ही नहीं रह जाती । अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछडे़ वर्ग के लोग सदैव देश व देशवासियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं तथा हमेशा समानता की बात करते हैं और यूरेशियन ब्राम्हणों ने हमेशा असमानता,अंधविश्वास, पाखण्ड,अलगाववाद,जातिवाद,धर्मवाद ऊच नीच और भेद भाव को बढावा दिया है।  ऐसा सोचने वाला व्यकित या समाज कभी भी ,देश, व देशवासियों के लिए उपयुक्त और योग्य नहीं हो सकता है ।
    सर्वप्रथम पदोन्नति में आक्षण का मामला उच्चतम न्यायालय में महाप्रबन्धक दक्षिण रेलवे बनाम रंगाचारी (ए0आर्इ0आर0 1962 पेज 36 के पैराग्राफ 43 )  जिसमें उच्चतम न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण का समर्थन किया और तीनों न्यायाधीशों ने कहा कि सरकारी सेवाओं में शैक्षिक और सामाजिक दृषिट से पिछडे़ वर्गों के प्रतिनिधित्व का पर्याप्त अथवा अपर्याप्त के रूप में निर्धारण करने के लिए  सरकार सम्बनिधत सेवा में उनके ( पिछडे वर्गों के ) संख्यात्मक अथवा गुणात्मक दोनों प्रकार के प्रतिनिधित्व का आधार बना सकती है। उन्होने आगे कहा कि सामाजिक व शैक्षिक दृषिट से पिछडे वर्गों के उत्थान के लिए उन्हें केवल निम्न स्तरीय सेवाओं में (पदो पर ) पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिलाना ही काफी नहीं है । बलिक इसके साथ ही साथ उच्च स्तरीय पदों पर भी उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिलाया जाना चाहिए । पर्याप्त प्रतिनिधित्व का प्रयोग आकार एवं गुणवत्ता दोनों के समनिवत आशय के सम्बन्ध में किया गया है । यानी संख्यात्मक एवं गुणात्मक दोनों रूपों में । संविधान सरकार के  अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछडे़ वर्ग के आर्थिक और शैक्षिक हितों को बढ़ावा देने का निर्देश देता है हमें उन्हें सरकारी निकायों में उपयुक्त प्रतिनिधित्व देना चाहिए इसके अतिरिक्त चूंकि सत्ता अथवा अधिकार उच्च स्तरीय पदों में निहित है अत: उच्च पदों पर भी पदोन्नति द्वारा नियुक्त किया जाना चाहिए ।
    इसके अलावा न्यायमूर्ति फजल अली ने केरल राज्य बनाम एन0एम0थामस ( 1976 एससीसी 310 पैरा 28,29,171,) के निर्णय में कहा है कि  अनुच्देद 14 और अनुच्छेद  16 के अनुसार समानता का सिद्वान्त  किसी व्यकित के सेवायोजन से सम्बनिधत सभी पहलुओं पर लागू होता है नियुकित से लेकर पदोन्नति,सेवानिवृत्त और अनुश्रमिक ( गे्रच्युटी) तथा पेंशन तक । अत: सरकार को कर्मचारियों को अलग अलग श्रेणियों में वर्गीकृत करने का पूरा पूरा अधिकार है और साथ ही वास्तविक समानता  स्थापित करने के लिए एक वर्ग अथवा श्रेणी के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछडे वर्ग के लिए विशेष प्राविधान करने का भी अधिकार है।

    माननीय न्यायमूर्ति अइयर ने अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ (रेलवे ) बनाम भारत संघ (1981एससीसी 246 पैरा 36 ) में कहा है  कि देश के शासन में प्रत्येक नीति निर्देशक सिद्वान्त एक मौलिक सिद्वान्त है और कानून बनाते समय उसे अमल में लाना सरकार का दायित्व है उन्होंने आगे कहा है कि अनुच्छेद 46 के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सरकार कमजोर वर्गो विशेषकर अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने तथा उन्हें किसी भी प्रकार की सामाजिक असामनता और  शेाषण से बचाकर रखने के लिए बाध्य है और अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछडे़ वर्ग समूह के शोषित वर्ग की समस्याओं को सरकार द्वारा  दूर किया जाना चाहिए माननीय न्यायाधीश ने कहा कि आशय  बिल्कुल स्पष्ट है कि अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछडे़ वर्ग की प्रशासनिक भागीदारी को ही सरकार द्वारा विशेष प्रयास से बढ़ावा दिया जाना चाहिए ।
    माननीय न्यायामूर्ति के0के0मैथ्यू ने केरल राज्य बनाम एन0एम0थामस (1976एससीसी 310,547 पैरा 110  ) में कहा है कि सरकारी सेवाओं में कम प्रतिनिधित्व वर्गो के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिशिचत करना सरकार का काम है भले ही इसके लिए निर्धारित अर्हता-शर्तो में छूट ही क्यों न देनी पडे़ उन्होंने कहा है कि सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछडे़ वर्ग के सदस्यों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिशिचत करने के लिए सरकार कोर्इ भी  प्रावधान कर सकती है और उसे अवसर की समानता के सिद्वान्त के रूप में न्याय संगत करार दे सकती है । वशर्ते उससे प्रशासन की कुशलता के लिए आवश्यक न्यूनतम योग्यता की अनदेखी न हो आगे कहा कि सरकार  वह प्रावधान अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए कर सकती है या इसमें अन्य पिछडे वर्ग को भी शामिल कर सकती है  उन्होंने कहा  कि कानून  बनाने वाले को यह स्वतंत्रा होनी चाहिए कि वह बुरार्इ पर, चाहे वह जहां भी, सबसे ज्यादा दिखार्इ दे प्रहार कर सके ।
    के0सी0 बसंत कुमार बनाम कर्नाटक राज्य ( 1985 सप्ली0एससीसी 714,757 पैरा 33) में माननीय न्यायामूर्ति ओ0 चिन्नप्पा रेडडी ने कहा है कि अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति  एवं अन्य पिछडे वर्ग के लोगों को आगे बढाने के लिए विशेष सुविधाएं दी जानी चाहिए । उनकी जरूरतें ही उनकी मांगे हैं। ये मांगे उनके अधिकार से  सम्बनिधत है न कि किसी प्रकार के उपकार से वे समानता की मांग कर रहे हैं न कि दया की    ।
    माननीय न्यायमूर्ति पी0वी0सावंत ने इन्द्रासाहनी बनाम भारतसंघ 1992 में कहा कि भारतीय समाज की प्रकृति और विस्तार के सम्बंध में पुराने समय से चली आ रही धारणाओं के इतिहास के अधार पर इस प्रकार की मान्यताओं एवं घोषणाओं को तर्कसंगत ठहराते हुए न्यायमूर्ति सांवत ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि   समाज के कुछ चुने हुए वर्गो के हाथ में कार्यकारी सत्ता के केन्द्रीयकरण के कुछ स्वाभाविक परिणाम है सबसे महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक परिणाम है । देश का प्रशासन मुठठीभर उच्चजाति वर्ग के हाथ में आ गया है और अन्य जाति वर्गो को उससे वंचित रखा गया है इस प्रकार जीवन के सभी क्षेत्र, समाज के एक छोटे वर्ग के हितों को ध्यान में रखते हुए नियंत्रित, निर्देशित और संचालित किये जा रहे हैं जिनका भारत की कुल जनसंख्या में 10 प्रतिशत से अघिक नहीं है।
    उपरोक्त प्रगति शील न्यायाधीशों ने देश व देशवासियों को ध्यान में रखा तथा संविधान के अनुसार अपने फैसले दिये हैं और अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछडे वर्ग केे लोगो ंको पदोन्नति में आरक्षण मिलने लगा ।
    प्रगतिशील न्यायाधीशों ने देश और देशवासियों व संविधान को ध्यान में रखकर  अपने निर्णय देकर कहा कि अनुसूचित जाति,जनजाति तथा अन्य पिछडे वर्गो को विशेष सुविधाएं मिलनी चाहिए और उनके फैसलों से पदोन्नति में भी आरक्षण सुविधा मिलने लगी परन्तु इसी के साथ -साथ कुछ  न्यायाधीशाेंं ने अपने निर्णयों द्वारा आरक्षण व्यवस्था को निष्प्रभावी करने के लिए फैसले दिये इसमें सबसे पहला फैसला 1963 एस.आर.बालाजी बनाम मैसूर राज्य  ( एआर्इआर 1963 एसीसी 649 ) है इसमें  न्यायमूर्ति बी0पी0सिंह,न्यायमूर्ति पी0 बी0 गजेन्द्र गड़कर, न्यायमूर्ति के0एच0 बन्चू, के0सी0दास गुप्ता, और न्यायमूर्ति जे0सी0 साह ने आरक्षण सीमा 50 प्रतिशत कर दी जो संविधान के विरूद्व फैसला दिया क्योंकि संविधान में किसी प्रकार की सीमा का उल्लेख नहीं है और संविधान सभा ने संख्या के आधार पर 14 प्रतिशत अनुसूचित जाति व 7.5 प्रतिशत जनजाति को उनकी  जनसंख्या के आधार पर 21.5 प्रतिशत आरक्षण दिया इससे यह साबित होता है कि संविधान सभा ने जनसंख्या को आधार माना तो पिछडे वर्ग का भी आरक्षण जनसंख्या के अनुसार 52 प्रतिशत होना चाहिए अत: आरक्षण 85 प्रतिशत मूल निवासियों का होना चाहिए था। आरक्षण सीमा के सम्बन्ध में अनेकों फैसले आयें जिनका वर्णन बाद में किया जायेगा।   
        पिछडे वर्ग के आरक्षण के लिए अनुच्छेद      340 के अन्तर्गत जो आयोग बना था आयोग ने अपनी रिपोर्ट वर्ष 1980 में सरकार को सौंप दी और लगभग दस साल  बाद सन 1990 में  बिना अधिनियम बनाये केवल एक कार्यपालक आदेश के द्वारा  आरक्षण व्यवस्था लागू कर दी। इसको इन्द्रासाहनी नाम के व्यकित ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती इस आधार पर दी कि पिछडे वर्ग को दी जाने वाली आरक्षण सुविधा संविधान संगत नहीं है। इसमें माननीय उच्चन्यायालय ने 16 नवम्बर 1992 को  निर्णय दिया और कहा कि पिछडे़ वर्ग को आरक्षण दिया है वह सही है परन्तु उसमें शर्ते लगा दी जो भारतीय संविधान के विरूद्व थी:-
1-    पहली शर्त है कि 52 प्रतिशत पिछडे वर्ग को मात्र 27 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा ।
2-    दूसरी शर्त पिछडे वर्ग को आरक्षण मिलेगा लेकिन जो लोग उसमें मलार्इदार हैं  उन्हें आरक्षण
       नहीं मिलेगा अत: उसमें आर्थिक (कि्रमिलेयर ) आधार लगा दिया ।
3 -    पिछडे वर्ग को पदोन्नति में आरक्षण नहीं मिलेगा ।
4-    अनुसूचित जाति और जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण मिल रहा था उसे समाप्त कर दिया।
5-    आरक्षण मात्र 50 प्रतिशत ही मिलेगा ।
          उच्चतम न्यायालय के निर्णय के आने के बाद सामाजिक संगठनों ने खासतौर पर वामसेफ ने शर्तो का विरोध किया और कहा कि यह शर्ते भारतीय संविधान के विरूद्व है। इस विरोध के कारण दिनांक 17 जून 1995 को 77वो संविधान संशोधन हुआ और अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति के आरक्षण हेतु अनुच्छेद 16 (4ए) जोड़ा गया । जो संविधान संधोधन एक्ट 1995 कहलाया ।
;4.।द्ध छवजीपदह पद जीपे ंतजपबसमेींसस चतमअमदज जीम ैजंजम तिवउ उांपदह ंदल चतवअपेपवद वित तमेमतअंजपवद पद उंजजमते व चितवउवजपवदूपजी बवदेमुनमदजपंसेमदपवतपजल जव ंदल बसेें वत बसेेंमे व चिवेजे पद जीमेमतअपबमे नदकमत जीम ैजंजम पद ंिअवनत व जिीम ैबीमकनसमक ब्ेंजम ंदक जीम ैबीमकनसमक ज्तपइमेूीपबी पद जीम वचपदपवद व जिीम ैजंजमए ंतम दवज ंकमुनंजमसल तमचतमेमदजमक पद जीमेमतअपबमे नदकमत जीम ैजंजमण्
 (4-क) इस अनुच्छेद में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियोे ंके पक्ष में  राज्य के अधीन सेवा में पदो के वर्गो या किसी भी वर्ग की परिणामिक वरिष्ठता सहित प्रोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए किसी प्रावधान को निर्मित करने के लिए राज्य को कोर्इ भी चीज नहीं रोकेगी जो राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं या नौकरियों में पर्याप्त रूपेण प्रतिनिधित्व नहीं किये जाते हैं ।
      इन्द्रा साहनी बनाम भारतसंघ ( 1992 एससीसी 217) में जो शर्त उच्चतम न्यायालय 50 प्रतिशत सीमा आरक्षण की लगायी थी उसके कारण यदि आरक्षित रिकितयां चालू वर्ष में पूरी नहीं हो पाती  तो इन पर आगामी वर्ष में भरती नहीं की जायेगी ।  अर्थात शेष आरक्षित रिकितया  स्वत: समाप्त हो जायेगी तथा इस समस्या को दूर करने के लिए 9 जून 2000 में 81वां संविधान संशोधन किया गया जो संविधान सशोधन एक्ट 2000 कहलाया और संविधान में नया क्लाउज 16 ( 4बी ) जोड़ा गया ।
;4.ठद्ध छवजीपदह पद जीपे ंतजपबसमेींसस चतमअमदज जीम ैजंजम तिवउ बवदेपकमतपदह ंदल नदपिससमक अंबंदबपमे व ंि लमंतूीपबी ंतम तमेमतअमक वित इमपदह पिससमक नच पद जींज लवनत पद ंबबवतकंदबमूपजी ंदल चतवअपेपवद वित तमेमतअंजपवद  उंकम नदकमत बसंनेम ;4द्ध वत बसंनेम ;4।द्ध ें ेंमचंतंजम बसेें व अिंबंदबपमे जव इम पिससमक नच पद ंदलेनबबममकपदह लमंत वत लमंते ंदकेनबी बसेें व अिंबंदबपमेेींसस दवज इम बवदेपकमतमक जवहमजीमतूपजी जीम अंबंदबपमे व  जिीम लमंत पदूीपबी जीमल ंतम इमपदह पिससमक नच वित कमजमतउपदपदह जीम बमपसपदह व पिजिल चमत बमदज तमेमतअंजपवद वद जवजंस दनउइमत व अिंबंदबपमे व जिींज लमंतण्

( 4ख)   इस अनुच्छेद में की कोर्इ बात राज्य को किसी वर्ग की बिना भरी हुर्इ रिकितयों पर विचार करने से ं नहीं रोकेगी जो उस वर्ष में खण्ड (4) एवं 4 (क) के अधीन आरक्षित है एवं जिन्हें भर दिया जाना था, जिसे आगामी रिकितयों के अनुसार भरा जाना हो । रिकितयों को उस वर्ष रिकितयों के साथ नहीं माना जायेगा जो वर्ष की रिकितयों से  सम्बनिधत है,एवं जो पचास प्रतिशत के विनिश्चय से संदर्भित है एवं जो उस वर्ष सम्पूर्ण आरक्षित संख्या से सन्दर्भित हो।
         इस प्रकार संविधान संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गयी कि  अनुच्छेद 16  की धारा 4 अथवा 4ए के अन्तर्गत आरक्षण के लिए  किये गये किसी भी प्रावधान को किसी भी परवर्ती वर्ष अथवा वर्षो में भरी जाने वाली रिकितयों के ं एक अलग वर्ग के रूप में माना  जायेगा और रिकितयों के इस वर्ग  को सम्बंधित वर्ष जिसमें  50 प्रतिशत आरक्षण पूरा करने के लिए रिकितयों  पर भरती की जा रही थी। की रिकितयों के साथ जोड़कर नहीं देखा जायेगा । अनुच्छेद 16 मेें एक नर्इ धारा 4 बी जोड दी गयी जिसके अनुसार  इस अनुच्छेद के अन्तर्गत सरकार को किसी वर्ष के लिए आरक्षित रिकितयों में से  शेष (जो नहीं भर्री गर्इ ) रिकितयों पर धारा 4 अथवा 4ए में रिकितयों के एक अलग वर्ग के रूप में किसी परवर्ती वर्ष अथवा वर्षो में भरी जाने वाली रिकितयों के लिए किये गये प्रावधान के आधार पर विचार करने के लिए नहीं रोका जायेगा और इन रिकितयों को उस वर्ष के 50 प्रतिशत आरक्षण वाली रिकितयों के साथ नहीं जोड़ा जायेगा।
     एस0 विनोद कुमार बनाम भारतीय संघ (1996 एससीसी 580 ) में फिर से अपने फैसले में वही कहा जो इन्द्रासाहनी बनाम भारतसंघ में कहा गया था । न्यायालय ने कहा कि प्रशासन की सक्षमता पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों और अनुच्छेद 335 के प्रावधानों के उल्लंघन को दृषिट में रखते हुए सरकारी सेवाओं में पदोन्नति के मामलों में कोर्इ ढील या छूट नहीं दी जा सकती ।
      दिनांक 8 सितम्बर 2000 में पुन: 82वां संविधान संशोधन किया गया जो एक्ट 2000 कहलाया । इस संशोधन के परिणामस्वरूप अनुच्छेद 335 में एक नया प्रावधान किया गया जिसके अनुसार सरकार को किसी परीक्षा में अर्हता अंक में छूट देने अथवा मूल्यांकन के स्तर को निम्न करने के लिए तथा राज्य या संघ  मामलों से संबंधित सेवाओं अथवा पदों पर पदोन्नति के मामले में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों के पक्ष में कोर्इ प्रावधान तैयार करने से नहीं रोका जायेगा ।
     इन संशोधनों के बाद सरकारी विभागों में पदोन्नति एक नर्इ नामावली व्यवस्था ( त्वेजमत ैलेजमउ द्ध के आधार पर की जाने लगी और पदोन्नति के साथ-साथ वरिष्ठता भी मिलने लगी अर्थात आरक्षण का लाभ प्राप्त करने वाले कर्मचारियों को पदोन्नति के बाद जिस पद पर नियुकित हुए उस पर त्वरित वरिष्ठता का लाभ मिलने लगा । पुन: ब्राम्हणवादी व्यवस्था वाले न्यायाधीशों  ने वीरपाल सिंह चौहान बनाम भारतसंघ ( 1995 एससीसी 684 ) एवं अजीत सिंह जनूजा बनाम पंजाब सरकार आदि
( 1996 एससीसी 715 ) में इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया। तत्पश्चात संविधान में 85वां संविधान संशोधन किया गया जो संविधान संशोधन एक्ट 2001 है  अनुच्छेद 16 में पहले से जोडी गयी नर्इ धारा (4ए) में पुन: संशोधन करके उसमें किसी भी वर्ग पर परिणामी वरिष्ठता सहित पदोन्नति के मामलों में शब्द और जोड दिये गये । इस प्रकार धारा का प्रावधान इस तरह हो गया ।
       इस अनुच्छेद में सरकार को अपने अधीन पदाें अथवा पदों ंके वर्गो पर परिणामी वरिष्ठता के साथ पदोन्नति के मामलों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के पक्ष में आरक्षण का प्रावधान करने से नहीं रोका जायेगा जिन्हें सरकार के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है ।
       इसके अलावा अनेकों निर्णय आरक्षण व्यवस्था पर आये तथा संविधान संशोधन हुए जिनका वर्णन  हम आगे करेगें ।
       संविधान संशोधन 77वां, 81वां और 85वां जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति एवं पिछडे़ वर्ग के सम्बन्ध में हुए थे उन्हें एम नागराज नामक व्यकित ने उच्चतम न्यायालय में याचिका संख्या 62 सन 2002, एम नागराज बनाम भारतसंघ आदि दाखिल की और प्रार्थना की कि संविधान संशोधन 77,81 व 85 को असंवैधानिक घेाषित किये जायें क्योंकि इन संशोधनों से संविधान का मकसद ही समाप्त हो जाता है । उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसला दिनांक 19 अक्टूबर 2006 में कहा कि सभी संविधान संशोधन जायज हैं परन्तुं पदोन्नति के आरक्षण लागू करने के पहले संघ व राज्य  सरकारों को यह रिपोर्ट तैयार करनी पडेगी कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति का सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं और यदि पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो सरकार पदोन्नति में आरक्षण दक्षता और पिछडेपन  को ध्यान में रख लागू कर सकती है । अत: निर्णय में तीन शर्ते लगायीं जो भारतीय संविधान में पहले से मौजूद है । 
1-    संघ एवं राज्य  सरकार यह जांच रिपोर्ट तैयार करेगी कि सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं और यदि जांच में यह पाया जाता है कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो प्रोन्नति में आरक्षण लागू कर सकते हैं । यही बात अनुच्छेद 16 (4ए) में है जो निम्न है :-
         इस अनुच्छेद की कोर्इ बात राज्य को  अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है राज्य के अधीन सेवाओं में किसी वर्ग या वर्गो के  पदों पर परिणामिक ज्येष्ठता सहित, प्रोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से निवारित नहीं करेगी ।
        अनुच्छेद 16 (4) व 16 (4ए) में स्पष्ट कहा गया है, कि राज्य को अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवा में पर्याप्त नहीं अर्थात राज्य सरकार यह जांच रिपोर्ट तैयार करेगी कि अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों का सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नही है ंतो वह आरक्षण द्वारा सीधी भर्ती हेतु अथवा पदोन्नति में आरक्षण लागू कर सकती है । यहां पर जो संविधान में कहा गया है वह गलत क्या है क्योंकि आरक्षण लागू करने से पहले आपको यह देखना अनिवार्य है कि कुल पद कितने है तथा उनमें कितने पद आरक्षित होने चाहिए बिना इस बात की जानकारी के, किस प्रकार पदोन्नति में आरक्षण लागू कर सकते हैं अत: एम नागराज के मामले में राज्य सरकार को यह निर्देश दिया गया है । कि वह पहले जांच रिपोर्ट तैयार करेगी और यदि जांच रिपोर्ट में राज्य सरकार यह पाती है कि अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह पदोन्नति में आरक्षण लागू कर सकती है यह संविधान के अनुच्छेद 16 (4) व 16 (4ए) में पहले से ही  विधमान है । अत: एम. नागराज के केस में जो उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आरक्षण द्वारा पदोन्नति की नियुकित का प्रावधान किए जाने से पूर्व  सरकार को अनुमन्य आंकडो ;फनंदजपपिंइसम कंजं द्ध के तहत यह राय बनानी पडेगी कि यथोचित प्रतिनिधित्व ;ंचचतवचतपंइसम तमचतमेमदजंजपवद द्ध है कि नहीं यह तर्क संगत एवं संविधान संगत है ।
       दूसरी शर्त यह है कि संविधान के अनुच्छेद 335 को ध्यान में रखते हुए इनके आरक्षण और पदोन्नति में  प्रशासन की दक्षता बनाये रखने ;डंपदजमदंदबम व मिपिबपमदबल ंकउपदपेजतंजपवद द्ध में कोर्इ विपरीत असर तो नहीं है ।
       अनुच्छेद  335 :- सेवाओं और पदो ंके लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावे-संघ या किसी राज्य के कार्यकलाप से सम्बनिधत सेवाओं और पदो ंके लिए नियुकितयां करने में, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाये रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जायेगा ।
       परन्तु इस अनुच्छेद की कोर्इ भी बात अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में किसी परीक्षा में अर्हता अंकों में शिथिलीकरण करने जनजातियों के पक्ष में किसी परीक्षा में अर्हता अंकों में शिथिलीकरण करने अथवा संघ अथवा राज्य के कार्यो के सम्बन्ध में सेवाओं अथवा पदो ंके किसी भी वर्ग अथवा वर्गो में पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए मूल्यांकन के स्तर को कम करने वाले किसी प्रावधान के निर्माण से नहीं रोकेगी ।
      335ण् ब्संपउे व ैिबीमकनसमक ब्ेंजमे ंदक ैबीमकनसमक ज्तपइमे जवेमतअपबमे ंदक चवेजे. ज्ीम बसंपउे व जिीम उमउइमते व जिीम ैबीमकनसमक ब्ेंजमे ंदक जीम ैबीमकनसमक ज्तपइमेेींसस इम जांमद पदजव बवदेपकमतंजपवदए बवदेपेजमदजसलूपजी जीम उंपदजमदंदबम व मिपिबपमदबल व ंिकउपदपेजतंजपवदए पद जीम उांपदह व ंिचचवपदजउमदजे जवेमतअपबमे ंदक चवेजे पद बवददमबजपवदूपजी जीम ंंिपते व जिीम न्दपवद वत व ंि ैजंजमण्
            ष्ष् च्तवअपकमक जींज दवजीपदह पद जीपे ।तजपबसमेींसस चतमअमदज पद उांपदह व ंिदल चतवअपेपवद पद ंिअवनत व जिीम उमउइमते व जिीमेबीमकनसमक बेंजमे ंदक जीमेबीमकनसमक जतपइमे वत तमसंगंजपवद पदुनंसपलिपदह उंतो पद ंदल मगंउपदंजपवद वत सवूमतपदह जीमेजंदकंतके व मिअंसनंजपवदए वित तमेमतअंजपवद पद उंजजमते व चितवउवजपवद जव ंदल बसेें वत बसेेंमे वेिमतअपबमे वत चवेजे पद बवददमबजपवदूपजी जीम ंंिपते व जिीम न्दपवद वत व ंि ैजंजमष्ष्ण्
        हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि एम नागराज का संविधान संशोधन के विरूद्व दाखिल की गयी याचिका में दिया गया फैसला है उच्चतम न्यायालय के रूढि़वादी न्यायाधीशों  ने विनोद कुमार बनाम भारतसंघ ( 1996-एससीसी 580 ) में कहा था कि प्रशासन की सक्षमता पर पडने वाले विपरीत प्रभावों और अनुच्छेद 335 के प्रावधानों के उल्लंघन को दृषिट में रखते हुए सरकारी सेवाओं में पदोन्नति के मामले में कोर्इ ढील या छूट नहीं दी जा सकती । सर्वोच्च न्यायालय ने इस सन्दर्भ में उसी बात को दोहराया, जो  इन्द्रासाहनी के मामले में कहा था।
       इस प्रकार 8 सितम्बर 2000 को संविधान संशोधन हुआ जिसके अनुसार अनुच्छेद 335 में यह जोडा गया । परिणामस्वरूप अनुच्छेद 335 में एक नया प्रावधान किया गया जिसके अनुसार :-
         बशर्ते इस अनुच्छेद के अन्तर्गत (सरकार को ) किसी परीक्षा में अर्हता अंक में छूट देने अथवा मूल्यांकन के स्तर को निम्न करने के लिए तथा राज्य या संघ मामलों से संबंधित सेवाओं अथवा पदो पर पदोन्नति के मामले में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के पक्ष में कोर्इ प्रावधान तैयार करने से सरकार को नहीं रोका जायेगा ।
        इस प्रकार 81वां संविधान संशोधन को एम नागराज वाले मामलें में सर्वोच्च न्यायालय ने जायज ठहराया और बात दक्षता की है तो वह पहले से ही अनुच्छेद 335 में विधमान है यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि जिस पद पर सीधी अथवा पदोन्नति द्वारा नियुकित जिस व्यकित की होती है उस पद के लिए योग्यता या दक्षता अनिवार्य है यदि पद हेतु दी गयी योग्यता नहीं है तो उस पद पर नियुकित सम्भव नहीं है अत: एम नागराज वाले मामले में जो दक्षता की शर्त लगी वह संविधान में  पहले से दी गयी शर्त है जो सही है ।
       8 सितम्बर 2000 को 81वां संविधान संशोधन हुआ उसके अनुसार राज्य और संघ सरकार को यह अधिकार है कि वह अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए अंको एवं मूल्यांकन में छूट दे सकती  है इस संविधान संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एम नागराज के फैसले में उचित ठहराया है तो यह शर्त कि पदोन्नति में दक्षता का ध्यान रखा जाना चाहिए असंवैधानिक नहीं है ।
    तीसरी शर्त है कि राज्य सरकार पदोन्नति देते समय पिछडे़पन को ध्यान में रखेगी । 
      भारतीय संविधान के किसी भी अनुच्छेद में पिछड़ेपन शब्द का प्रयोग नहीं है उसमें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछडे ़वर्ग शब्द का प्रयोग किया गया है  पिछड़ापन शब्द पहली बार इन्द्रासाहनी वाले केस में जोड़ा  गया है । यह शब्द उस समय प्रयोग किया गया जब मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुर्इ और उच्चतम न्यायालय ने ंफैसला दिया और उसमें मलार्इदार परत ( कि्रमिलेयर) के लोगों को आरक्षण न देने की बात निर्णय में कही गयी उस समय यह प्रश्न उठा कि पिछडे़पन का मापदण्ड क्या होना चाहिए।
      मलार्इदार परत की पहचान करने के लिए क्या मापदण्ड अपनाना चाहिए इस विषय पर न्यायाधीशों में बड़ा मतभेद रहा है । मामले की सुनवार्इ कर रहे न्यायाधीशों में से चार का मानना था कि मलार्इदार परत की पहचान आर्थिक मापदण्ड के आधार पर की जानी चाहिए । उन्होंने कहा था कि निर्धारित सीमा से आगे बड़़ने वाले सदस्यों को तब तक बाहर नहीं किया जाना चाहिए जब तक उनका आर्थिक स्तर इतना ऊंचा न हो जाये कि उससे उनका सामाजिक स्तर भी ऊंचा उठ सके । न्यायमूर्ति सावंत ने इस मापदण्ड के विषय में कहा था कि किसी समूह को तब तक इस मलाइदार परत से बाहर नहीं किया जाना चाहिए जब तक वह सवर्ण वर्ग के साथ प्रतिस्पर्धा करने की सामाजिक क्षमता न हासिल कर लें ।
       परन्तु यह स्पष्ट कर देना चाहता हू कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण व्यवस्था में मलाइदार परत ( कि्रमिलेयर) नहीं लगा है तो पिछडेपन की शर्त जो लगार्इ गयी है वह असंवैधानिक है । अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए 14 (4) व 16 (4ए) में यही कहा गया है कि जो सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछडे वर्ग के लोगों को आरक्षण व्यवस्था लागू करने का आदेश है अत: एम नागराज के मामले में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की पदोन्नति में पिछडे़पन को ध्यान में रखकर प्रतिनिधित्व की बात कही गयी है वह पूर्णरूपेण असंवैधानिक है और तर्कसंगत भी नहीं है । सर्वोच्च न्यायालय के प्रगतिशील न्यायमूर्ति रेडडी माननीय न्यायमूर्ति चिन्नप्पा रेडडी की वह टिप्पणी उदधृत करते हुए कहा है कि किस प्रकार असली लडार्इ समाज के दो वर्गो के बीच में है एक वर्ग जो गरीबी निरक्षरता और पिछडेपन के दलदल में कभी रहा ही नहीं तथा सदियों से शासक रहा है और दूसरा वह वर्ग जो आज भी उस दलदल में फंसा हुआ है और उससे निकलने को आतुर है ।
        अनुच्छेद 16 (4) का सम्बंध गरीबी निवारण कार्यक्रम से नहीं है न्यायमूर्ति सावंत का मानना है कि इसका उददेश्य आर्थिक उन्नयन नहीं है । इसका एक मात्र उददेश्य सत्ता का विकेन्द्रीयकरण समाज के उस वर्ग तक करना है जिसे उससे वंचित रखा गया है और वह वर्ग देश की कुल जनसंख्या का 80 प्रतिशत से ज्यादा है ।
          यह सच है कि राजनीतिक शकित स्वयं वास्तविक सत्ता नहीं प्रदान करती तथा सामाजिक श्ैाक्षिक और आर्थिक दृषिट से पिछडे वर्गो का पिछड़ापन दूर करने के लिए राजनीतिक शकित का यथार्थ प्रयोग करना होगा और शकित का प्रयोग करने का एक मात्र रास्ता प्रशासनिक तंत्र ही है यदि यह तंत्र प्रयोग के अनुकूल न हो तो राजनीतिक शकित निष्प्रभावी हो जाती है यही कारण है कि स्वतंत्रता प्रापित के 65 वर्षो बाद और लोगों के हाथ में राजनीतिक शकित आ जाने के बावजूद राष्ट्रीय मामलों पर उसी वर्ग का वर्चस्व कायम है जिसका पहले रहा था इसलिए आरक्षण भी लगातार जारी है । और आज तक पूरा नहीं हुआ है ।
        अशोक कुमार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1997 5 एससीसी 201पैरा 23,25,26,42,46 ) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अनुच्छेद 16 (4) का उददेश्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछडे वर्ग को सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देना है । जब तक इन वर्गो को उच्च पदों में आरक्षण नहीं दिया जाता तब तक इन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा ।
           जब कोर्इ व्यकित किसी सेवा में नियुक्त हो जाता है तो वह उस सेवा से सम्बनिधत सभी कर्तव्यों के लिए उत्तरदायी हो जाता है और साथ ही उस सेवा से सम्बनिधत अधिकारों का हकदार भी बन जाता है । उच्च पदों पर पहुंचना भी इन्हीं अधिकारों में एक है यानी पदोन्नति नियुकित का ही एक रूवरूप है । पदोन्नति का अधिकार एक कैडर से दूसरे उच्च कैडर या श्रेणी,को विभाग आदि में नियुकित का एक माध्यम है पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था समानता स्थापित करने के उददेश्य से वहां की गयी है जहां सरकार को लगता है कि विभिन्न कैडरों,श्रेणियों, वर्गो या विभागों अथवा पदोंं में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व कम है ।
         यह सच है कि उच्च पदों तक कमजोर वर्गो की पहुंच सुनिशिचत करके ही उन्हें अधिकार प्रदान किये जा सकते हैं और अधिकार उच्चस्तर के पदों में ही निहित है मध्यम या निम्न स्तर के पदों में नहीं जैसा हमारे सामाजिक ढांचे में है स्पष्ट है कि अनुच्छेद 16 (4) का उददेश्य अधिक से अधिक अनुसूचित जाति एवं जनजताति को सरकारी सेवाओं में सफार्इकर्मी के रूप में शामिल करना नहीं था बलिक इसका उददेश्य उन्हें अधिकारी के पद पर नियुक्त करना था ताकि प्रशासनिक अधिकारों में समान भागीदारी हो सके । सामाजिक ढांचा जो जाति व्यवस्था की रीढ है को अधिकार विभाजन अथवा विक्रेन्द्रीकरण के उपाय द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है सुझाव अथवा परामर्श द्वारा नहीं । अत: अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछडे वर्ग का पदोन्न्ति में आरक्षण आवश्यक है ।
        आरक्षण की सीधी भर्ती और पदोन्नति में आरक्षण दोनों में बहुत अन्तर है क्योंकि इस देश में तमाम उच्चपद ऐसे हैं जो मात्र प्रमोशन द्वारा ही भरे जाते है और उन पदों की सीधी भर्ती नहीं होती है जैसे प्रदेश के संयुक्तसचिव,  मुख्यसचिव, मुख्य अभियन्ता, आदि अत: उच्च पदों को पदोन्नति द्वारा भरा जाता है और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछडेवर्ग के लोगों को शासकीय सेवाओं में आरक्षण देने का उददेश्य मात्र उन्हें ऐसे पदों पर बैठाना  और आािथर्क आधार से मजबूत बनाने के लिए आरक्षण नहीं है बलिक आरक्षण का मकसद है मूलनिवासी समाज को शासन प्रशासन में प्रतिनिधित्व देना है ताकि वह उच्च पदों पर बैठकर नीति निर्धारित  करने की सिथति में पहुंचे और जब तक नीति निष्पादित करने वाले पदों पर नहीं पहुचेगें और राष्ट्र व समाज के विकास हेतु नीति  निर्धारित करने में अपनी अहम  भूमिका नहीं निभायेगें तब तक अधिकार वंचित समाज राष्ट्र की मुख्य धारा में नहीं जुड सकता है और जब तक बहु संख्यक समाज राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग-थलग रहेगा तब तक देश शकितशाली नहीं बनेगा।
                     बसपा सरकार द्वारा जारी किया गया शासनादेश निरस्त क्यों घ् 

 उ0प्र0 में बी0एस0पी0 ने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने के बाद दिनांक 17 अक्टूबर 2007 को एक शासनादेश जारी कर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने की व्यवस्था की उसके अनुसार पदोन्नति में आरक्षण मिलना श्ुारू हुआ । दिसम्बर 2007 को याचिका संख्या- 1389 सन 2009 में प्रेमकुमार सिंह आदि बनाम उ0प्र0 सरकार आदि तथा अन्य बहुत सी याचिकाएं दाखिल की गयी और कहा गया कि शासनादेश 17 अक्टूबर 2007 पदोन्नति हेतु जारी किया गया है उसमें उच्चतम न्यायालय के निर्णय दिनांक 19.10.2006 एम नागराज बनाम भारतसंघ व अनुच्छेद 14,16(4ए) और अनुच्छेद  335 में दिये गये नियमों का पालन नहीं किया गया है । अत: उ0प्र0 सरकार द्वारा जारी शासनादेश भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14,16ए और 335  व उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय एम नागराज बनाम भारतसंघ के विरूद्व है इसलिए उ.0प्र0सरकार द्वारा जारी किया गया शासनादेश असंवैधानिक घोषित किया जाये । उच्च न्यायालय इलाहाबाद लखनऊ खण्डपीठ ने सरकार को जवाब दाखिल करने हेतु नोटिस जारी किया तत्पश्चात उ0प्र0 सरकार ने अपना जवाब 
( ब्वनदजमत ।पिकंअपज ) दाखिल किया तथा अपने प्रतिशपथपत्र (ब्वनदजमत ।पिकंअपज ) के पेैरा 28 में कहा कि जो पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए की गयी है वह 1.1.1995 और 1.1.1996 की रिपोर्ट के आधार पर की गयी है यह निर्णय के पृष्ठ 578 पैरा 114 (2011 ( प) एडीजे ), में दिया है जो निम्न प्रकार है :-
114-     प्द चंतं 28 व जिीम ब्वनदजमत ।पिकंअपजए जीम ैजंजम ीें उंकम ंद मवितज जव कमउवदेजतंजम पद ंकमुनंबल व तिमचतमेमदजंजपवद पदेमतअपबमे वद जीम इेंपे व पिदवितउंजपवद बवससमबजमक तिवउ कपमितमदज कमचंतजउमदजे वद 1ण्1ण्1995 ंदक 1ण्1ण्1996ण्
     उ0प्र0 सरकार ने अपने प्रतिशपथ पत्र ( (ब्वनदजमत ।पिकंअपज ) में संलग्नक ( एनेक्चर) 18 लगाया और कहा कि यही डेटा की लिस्ट है । उच्च न्यायालय लखनऊ खण्डपीठ ने कहा कि सरकार ने जो लिस्ट लगार्इ है वह सीधी भर्ती ए, बी, सी, और डी पदो ंके सम्बन्ध में है न कि पदोन्नति के सम्बन्ध में है यह बात निर्णय के पैरा नं0 117 में है जो निम्न प्रकार है:-
   ज्ीम वदसल कवबनउमदजूीपबी ीें इममदेीवूद इल जीम तमेचवदकमदजे पद जीमपत बवनदजमत ंपिकंअपजेनचचवतज व जिीमपत तनसमे पे बवदजंपदमक पद ।ददमगनतम.18 जव जीम ब्वनदजमत ंपिकंअपज एूीपबी कवमे दवज पदकपबंजम चवेजध्कमचंतजउमदजूपेम तमचतमेमदजंजपवद व जिीमेबीमकनसमक बेंजमे ंदकेबीमकनसमक जतपइमे बंजमहवतल इनज जीमेंपक कंजं वदसल पदकपबंजमे जीम जवजंस दनउइमत व तिमचतमेमदजंजपवद वेिबीमकनसमक बेंजमे ंदकेबीमकनसमक जतपइमे पद ब्सेें ।एठएब् ंदक क् च्वेजे तमसंजपदह जव इंबासवह चवेजेए मंतउंतामक ंदक अंबंदज चवेजे पदबसनकपदह कपतमबज तमबतनपजउमदज चवेजेएूीपबी पे दवज ंज ंसस तमसमअंदज वित जीम चनतचवेमे व तिनसम व बिवदेमुनमदजपंसेमदपवतपजल वित बवदजतवससपदह जीम मगजमदज व तिमेमतअंजपवदण्
       उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से यह बहस की गयी कि अनुसूचित जाति  एवं अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए जांच रिपोर्ट तैयार करने की आवश्यकता नहीं है, कि इनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं क्योंकि संविधान संशोधन 77 और 85 होने के बाद ऐसा करना अनिवार्य नहीं है तथा सामाजिक न्याय समिति (  ैवबपंस रनेजपबम बवउउपजजमम) की रिपोर्ट दिनांक 28.6.2001 दाखिल है । वही रिपोर्ट पदोन्नति में आरक्षण देने हेतु जारी किये गये शासनादेश दिनांक 17.10.2007 के लिए सक्षम है । उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि एम नागराज का निर्णय 2006 में आया तथा उसमें कहा गया कि अनुच्छेद 14 (4) एवं 16(4ए) में आरक्षण देने हेतु यह जांच आवश्यक है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व पर्याप्त है अथवा नहीं और यदि जांच में सरकार यह पाती है कि इन वर्गो का सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह पदोन्नति में आरक्षण दक्षता और पिछडेपन को ध्यान में रखकर लागू कर सकती है । परन्तु उ0प्र0 सरकार  ने ऐसा नहीं किया है । निर्णय के पैरा 111 में दिया है जो निम्न प्रकार है:-
   ज्ीम ंतहनउमदज व जिीम तमेचवदकमदजे जींज दममक जव बवससमबजुनंदजपपिंइसम कंजं तमहंतकपदह इंबाूंतकदमेे व जिीम बसेें ंदक जीमपत पदंकमुनंजम तमचतमेमदजंजपवदूें दवज ंज ंसस मेेमदजपंस पद जीम ंिबजे ंदक बपतबनउेजंदबमे व जिीम बेंम ंदक जीमपत चसंबपदह तमसपंदबम नचवद जीम ीपेजवतपबंस ंिबजे व ंिजतवबपजपमे पदसिपबजमक नचवद जीमेबीमकनसमक बेंजमे ंदकेबीमकनसमक जतपइमे ंदक वद जीमेजंजमउमदजे व विइरमबजे ंदक त्मेंवदे व 7ि7जी ंदक 85जी ।उमदकउमदजे व जिीम ब्वदेजपजनजपवद ंदक ंसेव वद जीम चतम.मगपेजपदह तमचवतज व ैिवबपंस रनेजपबम बवउउपजजममए समंअमे दव तववउ वित ंदल कवकनइज जींज जीम ैजंजम ळवअमतदउमदज कपक दवज नदकमतजांम ंदल मगमतबपेम दवत पज उंकम ंदलेनबी मवितज जव बवससमबज जीमुनंदजपपिंइसम  कंजम तमहंतकपदह इंबाूंतकदमेे व जिीम बसेें वत जीमपत पदंकमुनंजम तमचतमेमदजंजपवद पद ंदल बसेें वत बसेेंमे व चिवेजे पद जीमेमतअपबमे नदकमत जीमेजंजम ंदक जीमतमवितम दव बवदेपकमतंजपवदूें उंकम जव जीम कपतमबजपअमे हपअमद पद ।तजपबसम 335 व जिीम ब्वदेजपजनजपवद ंसेवूीपबी चनजे सपउपजंजपवदे वदेनबी मगमतबपेमूीपसम उांपदह तनसम वित तमेमतअंजपवद पद चतवउवजपवदूपजी वतूपजीवनज बवदेमुनमदजपंसेमदपवतपजलण्
      अत: उ0प्र0 सरकार द्वारा जारी किया गया शासनादेश दिनांक 17.10.2001 बिना जांच रिपोर्ट के जारी किया गया इतना ही  नहीं सरकार ने अपने प्रतिशपथ पत्र में जो जवाब दिया वह भी तर्कसंगत नहीं था उन्होंने एक बार कहा कि अनुच्छेद 16 व 16 (4ए ) के अनुसार यह रिपोर्ट तैयार करनी आवश्यक नहीं है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति  का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं और यदि पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो राज्य सरकार दक्षता और पिछडेपन को ध्यान में रखकर पदोन्नति में आरक्षण दे सकती है । और यदि आवश्यक हो तो दिनांक 28.6.2001 को सामाजिक न्याय समिति ( ैवबपंस रनेजपबम बवउउपजजमम) द्वारा  तैयार की गयी रिपोर्ट को ही मान्यता देनी चाहिए । तथा प्रतिशपथ पत्र के पैरा 28 में कहा कि 1.1.1995 तथा 1.1.1996 को जो जांच रिपोर्ट तैयार की गयी थी वही शासनादेश का आधार माना जाना चाहिए तथा पुन: एक जगह अपने प्रतिशपथ पत्र में कहा कि जो संलग्न संख्या 18 ( एनेक्चर नं0 18 ) लगा है उसे ही आधार माना जाये इस पर न्यायालय ने कहा कि यह रिपोर्ट जो संलग्न संख्या 18 प्रतिशपथ पत्र के साथ लगायी गयी है वह रिपोर्ट सीधी भर्ती हेतु क,ख,ग और घ पदों हेतु तैयार रिपोर्ट न कि पदोन्नति के आरक्षण हेतु ।
      उ0प्र0 सरकार ने जो शासनादेश अनुसूचित जाति, जनजाति की पदोन्नति हेतु दिनांक 17.10.2007 को जारी किया था वह बिना जांच रिपोर्ट के जारी किया तथा जो जांच रिपोर्ट लगायी वह 28.6.2001 की जांच रिपोर्ट  थी और शासनादेश 17.10.2007 को लागू किया गया था । इन परिसिथतियों के आधार पर न्यायालय ने पाया कि यह शासनादेश भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14,16(4द्ध व उच्चतम न्यायालय के निर्णय एम नागराज में दिये गये नियमों के विरूद्व है अत: इलाहाबाद की लखनऊ खण्डपीठ ने अपने निर्णय दिनांक 4.1.2012 द्वारा उ0प्र0 सरकार द्वारा जारी किया गया शासनादेश निरस्त कर दिया तथा साथ ही अपने निर्णय के पैरा नं0 189 पेज 595 में यह आदेशित किया कि उ0प्र0 सरकार संविधान में दिये गये अनुच्छेद 14,16 (4) व 16 (4ए) के प्रावधानो ंएवं उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय एम नागराज की शर्तो को पूरा करके अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण लागू कर सकती है । इससे पूर्णरूपेण साबित है कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति का पदोन्नति में आरक्षण समाप्त नहीं हुआ मात्र बी0एस0पी0 सरकार द्वारा जारी शासनादेश समाप्त हुआ है ।
   म नितजीमत बसंतपलि जींज पद बेंम जीम ैजंजम ळवअमतदउमदज कमबपकमे जव चतवअपकम तमेमतअंजपवद पद चतवउवजपवद जव ंदल बसेें वत बसेेंमे व चिवेजे पद जीमेमतअपबमे नदकमत जीम ैजंजमए पज पे तिमम जव कवेव ंजिमत नदकमतजांपदह जीम मगमतबपेम ें तमुनपतमक नदकमत जीम बवदेजपजनजपवदंस चतवअपेपवदेएाममचपदह पद उपदक जीम संू संपक कवूद इल जीम ।चमग ब्वनतज पद जीम बेंम व डिण्छंहतंरण्ठनज जपससेनबी ंद मगमतबपेम पे कवदम ंदक मदंबजउमदजध्त्नसम पे बवदेमुनमदजसल उंकमए दव तमेमतअंजपवद पद चतवउवजपवदवद ंदल चवेज वत बसेेंमे व चिवेजे नदकमत जीमेमतअपबमे व जिीम ैजंजम पदबसनकपदह जीम बवतचवतंजपवदेए मजबऐींसस इम उंकम ीमदबमवितजीण् भ्वूमअमतए ंसस चतवउवजपवदे ंंसतमंकल उंकम ें चमत जीम चतवअपेपवदध्तनसम व तिमेमतअंजपवदएूीमतम जीम इमदमपिज व तिनसम 8.। ीें दवज इममद हपअमदएूीपसम उांपदह जीम चतवउवजपवदेऐींसस दवज इम कपेजनतइमक इल जीम कमबसंतंजपवद ंवितमेंपक ंदकेींससेजंदक चतवजमबजमकण्

     इस आदेश के बाद बी0एस0पी0 सरकार को एक नया आदेश अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की पदोन्नति में आरक्षण देने हेतु जारी करना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं किया और उच्चतम न्यायालय में अपील (सिविल ) संख्या 2608 सन 2001 उ0प्र0 पावर कारपोरेशन लिमिटेड बनाम राजेश कुमार आदि दाखिल कर दी यह जानते हुए कि जो शासनादेश दिनांक 17.10.2007 जारी किया है वह अनुच्छेद 14,16(4) 16(4ए) व एम नागराज में दिये गये फैसलें के अनुसार नहीं है  क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16(4ए) व उच्चतम न्यायालय का निर्णय दिनांक 19.10.2006 एम नागराज  बनाम भारत संघ आदि में यह शर्त है कि राज्य सरकार अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने से पहले सरकार यह जांच करेगी कि इन वर्गो का सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं और सरकार जांच में यह पाती है कि सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह दक्षता एवं पिछडेपन को ध्यान में रखकर पदोन्नति में आरक्षण लागू कर सकती है । परन्तु सरकार ने यह जांच रिपोर्ट तैयार किये बिना ही पदोन्नति में आरक्षण लागू कर दिया है । जो असंवैधानिक है  और उच्चतम न्यायालय भी इसे खारिज कर देगा यह समाज को धोखे में रखने वाली बात है और इतना ही नहीं  हमारे अधिकारियों ने भी लगभग 50 अपीलों से ज्यादा अपीलें दाखिल की और सबसे चंदा वसूली की और  अधिकारियों ने भी यह उचित नहीं समझा कि हम सरकार पर दवाब बनाकर पुन: पदोन्नति में आरक्षण व्यवस्था लागू कराएं । चूंकि राज्य सरकार ने शासनादेश नियम विरूद्व जारी किया था अत: उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा दाखिल अपील 2608 सन 2011 व अन्य अधिकारियों द्वारा दाखिल की गयी 50 से ज्यादा अपीलें दिनांक 27.4.2012 को खारिज कर दी और साथ में पैरा 38 (4) में यह भी कहा कि राज्य सरकार अनुच्छेद 16 (4) व एम नागराज के निर्णय के अनुसार यह जांच करें कि अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं और यदि राज्य सरकार यह पाती है कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह पदोन्नति में आरक्षण लागू करने का अधिकार रखती है ।
पैरा 38(अद्ध  ज्ीम ैजंजम ीें जव वितउ पजे वचपदपवद वद जीमुनंदजपपिंइसम कंजं तमहंतकपदह ंकमुनंबल व तिमचतमेमदजंजपवदण् ब्संनेम ;4।द्ध व ।ितजपबसम 16 पे ंद मदंइसपदह चतवअपेपवदण् प्ज हपअमे तिममकवउ जव जीमैजंजम जव चतवअपकम वित तमेमतअंजपवद पद उंजजमते व चितवउवजपवदण् ब्संनेम ;4।द्ध व ।ितजपबसम 16 ंचचसपमे वदसल जव ैब्े ंदक ैज्ेण् ज्ीमेंपक बसंनेम पे बंतअमक वनज व ।ितजपबसम 16;4।द्धण्ज्ीमतमवितमए बसंनेम ;4।द्धूपसस इम हवअमतदमक इल जीम जूव बवउचमससपदह तमेंवदे.ष्ष् इंबाूंतकदमेेष्ष् ंदक ष्ष्पदंकमुनंबल व तिमचतमेमदजंजपवदएष्ष् ें उमदजपवदमक पद ।तजपबसम 16;4द्धए प जिीमेंपक जूव तमेंवदे कव दवज मगपेजए जीमउ जीम मदंइसपदह चतवअपेपवद बंददवज इम मदवितबमकण् 

         अत: उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के अनुसार उ0प्र.0 सरकार द्वारा जारी शासनादेश दिनांक 17.10.2007  निरस्त हुआ और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का पदोन्नति में आरक्षण जारी है और यह बात इलाहाबाद की लखनऊ खण्डपीठ ने अपने निर्णय दिनांक 4.1.2012 के पैरा नं0 189 एवं उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय दिनांक 27.9.2012 के पैरा नं0 38 (अद्ध में स्पष्ट कहा है कि राज्य सरकार द्वारा जारी असंवैधानिक  शासनादेश को निरस्त किया जाता है और राज्य सरकार को पदोन्नति में नियमानुसार आरक्षण देने का अधिकार है ।
 क्या केन्द्र और राज्य सरकारें मूलनिवासी समाज को आरक्षण के विषय पर भ्रमित कर रही हैं घ्
         उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के अनुसार उ0प्र.0 सरकार द्वारा जारी शासनादेश दिनांक 17.10.2007  निरस्त हुआ और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का पदोन्नति में आरक्षण जारी है और यह बात इलाहाबाद की लखनऊ खण्डपीठ ने अपने निर्णय दिनांक 4.1.2012 के पैरा नं0 189 एवं उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय दिनांक 27.9.2012 के पैरा नं0 38 (अद्ध में स्पष्ट कहा है कि राज्य सरकार द्वारा जारी असंवैधानिक  शासनादेश को निरस्त किया जाता है और राज्य सरकार को पदोन्नति में नियमानुसार आरक्षण देने का अधिकार है इसके बावजूद भी उत्तर प्रदेश की सपा सरकार पदोन्नति में आरक्षण लागू नहीं कर रही है और यह प्रचार कर रही है कि उच्चतम न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण व्यवस्था को असंवैधानिक  घोषित कर दिया है ।
       इसी विषय पर सितम्बर .2012 को सपा के राष्ट्रीय महासचिव  माननीय मुलायम सिंह यादव के छोटे भार्इ प्रोफेसर राम गोपाल यादव (सांसद ) ने अपना ब्यान इणिडया टुडे को दिया और कहा कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति का पदोन्नति में आरक्षण उच्चतम न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया इसलिए आरक्षण का हम विरोध करते हैं तथा अन्य पिछडे वर्ग को भी पदोन्नति में आरक्षण नहीं मिलना चाहिए ।
        दूसरी तरफ बी0एस0पी0 की राष्ट्रीय अध्यक्ष, बहन मायावती जी ने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण मिलना चाहिए इस सम्बन्ध में एक पुस्तक लिखी है उसके पेज नं0 26 पैरा नं0 15 में यह कहा  ंकि सपा सरकार को उच्चतम न्यायालय में रिव्यू पिटीशन दाखिल करनी चाहिए और अनुसूचित जाति, जनजाति का आरक्षण समाप्त नहीं करना चाहिए । किताब का विवरण निम्न है ।
       किन्तु इसके ठीक विपरीत, उत्तर प्रदेश में बी.एस.पी. की सरकार के दौरान नियम बनाकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को जो प्रोन्नति में आरक्षण देने की व्यवस्था की गयी थी इस सम्बन्ध में बी.एस.पी.की सरकार के जाने के बाद दिनांक 27.4.2012 को उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन बनाम राजेश कुमार एवं अन्य के मामले में राजस्थान व एम. नागराज के मामले को बाध्य मानते हुए मा. सर्वोच्च न्यायालय ने अपना निर्णय दिया जिसके तहत उत्तर प्रदेश की वर्तमान समाजवादी पार्टी की सरकार ने प्रोन्नति में आरक्षण खत्म करने का काम कर दिया है । जबकि वर्तमान सपा सरकार को इस निर्णय के बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय में रिव्यू पिटीशन (त्मअपमू च्मजपजपवद ) दाखिल करने का निर्णय लेना चाहिए था,लेकिन दलित विरोधी मानसिकता रखने वाली इस पार्टी ने ऐसा करने से मनाकर दिया, तत्पश्चात  इस निर्णय के तुरन्त बाद ही कांग्रेस, सपा व अन्य विरोधी पार्टियों का इस किस्म का रवैया देखकर फिर दिनांक 29.4.2012 को ही बी.एस.पी. की  राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती जी ने राज्य सभा में इस विषय को प्रश्नकाल स्थगित कराते हुए उठाया और संविधान में संशोधन लाने की मांग की जिसके पश्चात ही दिनांक 03.05.2012 को राज्य सभा में इस विषय पर सभी पार्टियों को सुना गया और जिसके तहत आम सहमति बनी थी कि संविधान में संशोधन लाया जाए ।
       उपरोक्त सपा व बी0एस0पी0 के कथनों से ऐसा लगता है कि उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को पढ़ा नहीं है इसलिए आरक्षण हेतु रिव्यू पिटीशन दाखिल करने का सुझाव दे रही है और सपा उन निर्णयों के आधार पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का आरक्षण उच्चतम न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित हो गया है यह कह रहे परन्तु समाज यह मानने को तैयार नहीं है कि ये दोनों हमारे नेता निर्णयों के बारे में नहीं जानते हैं क्योंकि सरकार के पास महाअधिवक्ता के साथ-साथ हजारों की संख्या में उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में सरकारी वकील होते हैं और कानून बनाने से पहले राज्य सरकार अपने महाअधिवक्ता और मुख्य स्थार्इ अधिवक्ता से लिखित परामर्श लेने के बाद शासनादेश व अधिनियम बनाते हैं इसलिए जो शासनादेश अनुसूचित जाति  व अनुसूचित जनजाति को सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने के लिए दिनांक 17.10.2007 को बसपा सरकार ने जारी किया परामर्श अवश्य लिया गया होगा तथा उच्चतम न्यायालय का आदेश दिनांक 27.4.2012 को आया और सपा सरकार ने 8 मर्इ 2012 को उच्चतम न्यायालय के निर्णय के सम्बन्ध में एक शासनादेश संख्या 112012 टी.सी.-1-का-22012 जारी कर बसपा सरकार द्वारा जारी शासनादेश को वापस लेकर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का पदोन्नति में आरक्षण वापस ले लिया है इस शासनादेश के सम्बन्ध में सपा सरकार ने भी अपने महाधिवक्ता व मुख्य स्थार्इ अधिवक्ता ने लिखित परामर्श अवश्य लिया होगा ।
         अत: हमारे दोनों नेताओं को कानून और निर्णयों पर जानकारी है परन्तु वह ऐसा क्यों कर रहे हैं इससे हमारी समझ में जो आता है और वह सही भी है कि इनका पूर्णरूपेण ब्राम्हणीकरण हो गया है इसीलिए वह भारतीय संविधान जो समता स्वतंत्रता, बन्धुत्व और न्यायपर आधारित समाज और राष्ट्र का निर्माण करने का संकल्प करता है ये लोग उस पर कार्य न कर ब्राम्हणवादी व्यवस्था को शकितशाली बनाने का कार्य कर रहे हैं । और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछडे वर्ग को दिये गये संवैधानिक अधिकार के तहत आरक्षण व्यवस्था समाप्त करने का कार्य कर रहे हैं ।  अत: इनका कार्य देश व देशवासियों के हित में न होकर केवल  यूरेशियन ब्राम्हणों के हित में है अत: जो संविधान ने अनुसार कार्य नहीं करते हैं विरोध में कार्य करते हैं वह राष्ट्रद्रोही होते हैं और मूल निवासियों के दुश्मन होते हैं ।
       बसपा सरकार द्वारा जो नियम विरूद्व शासनादेश 17 अक्टूबर 2007  को जारी किया गया उससे  ऐसा लगता कि वह सब जानबूझ कर किया गया ताकि समाज को गुमराह कर उससे वोट हासिल किया जा सके और ऐसा करने से यूरेशियन ब्राम्हण भी प्रसन्न रहेगा तथा हमारा समाज भी यही समझेगा कि हमारे नेतागण हमे आरक्षण देना चाहते हैं परन्तु न्यायपालिका बाधक है ऐसा एक बार नहीं अनेको बार किया गया है । उदाहरण के लिए  माननीय मुलायम सिंह यादव  सरकार ने अति पिछडे वर्ग की 06 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने हेतु  शासनादेश संख्या 4 (1)2002 का-2-2005 दिनांक 10 अक्टूबर 2005 को जारी कर दिया जबकि अनुसूचित जाति और जनजाति की किसी जाति को निकालना अथवा जोडने का अधिकार संसद के अलावा किसी को भी नहीं है यहां तक उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय तक को नहीं है परन्तु सत्ता में आने के लिए इस गरीब, असहाय, अज्ञान, शोषित शाशित,पीडित और प्रताडित  समाज का वोट पाने के लिए उसको धोखा दिया तथा बाद में अपने ही शासनादेश को सपा सरकार ने वापस ले लिया ।  
       यदि सपा सरकार सचमुच इन 6 विरादरियों का विकास कर राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने हेतु आरक्षण व्यवस्था लागू करना चाह रही है । तो उसे अतिपिछडे वर्ग की सूची बनाकर अलग से आरक्षण व्यवस्था लागू उसी प्रकार करना चाहिए जिस प्रकार देश के सात प्रान्तों में अन्य पिछडे वर्ग  की सुविधाएं उपलब्ध है जैसे आन्ध्र प्रदेश , कर्नाटक, तमिलनाडू, हरियाणा,पंजाब, बिहार और केरला । 
        इसी प्रकार राजनाथ सिंह सरकार ( बीजेपी) ने सन 2002 में अति पिछडे वर्ग को अलग से आरक्षण लागू किया वह आरक्षण नीति गलत नहीं थी परन्तु जानबूझकर शासनादेश में यह कमी कर दी कि एक ही शासनादेश में अति पिछडे वर्ग के साथ अति दलित ( अनुसूचित जाति ) की सूची जानबूझ कर लगा दी इसलिए  न्यायपालिका ने भाजपा की आरक्षण नीति को गलत ठहराया ।
        इसी प्रकार सन 2011 में कांग्रेस  सरकार ने अल्प संख्यकों को अलग से आरक्षण व्यवस्था लागू की परन्तु जान बूझकर पिछडे वर्ग आयोग से राय लिए बिना लागू कर दिया और आरक्षण व्यवस्था लागू करने का शासनादेश में कारण नहीं दिया कि क्यों अलग से आरक्षण की आवश्यकता है इसी आधार पर उच्चतम न्यायालय ने अल्पसंख्यकों को दी गयी आरक्षण सुविधा असंवैधानिक घोषित कर दी कांग्रेस सरकार ने भी जानबूझकर गलत शासनादेश जारी मात्र वोट की राजनीति के लिए किया सही माने में अल्पसंख्यकों को सुविधा देने के लिए नहीं ।
     उपरोक्त विवरण से यह साबित होता है कि आज देश में जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं चाहे वह यूरेशियन ब्राम्हणों की हों अथवा मूल निवासियों की हों सभी राजनीतिक पार्टियां मूल निवासियों को गुमराह कर वोट पाने की राजनीति कर रही हैं ।
        बसपा सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने हेतु दिनांक 17.10.2007 को शासनादेश जानबूझ कर गलत आधार पर लागू किया ताकि इस समाज को यह समझाने में साहूलियत हो  कि बसपा सरकार ने हमको पदोन्नति में आरक्षण लागू किया परन्तु न्यायपालिका ने खारिज कर दिया इससे सवर्ण भी खुश रहेगा और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जाति के लोग भी खुश रहेगें और दोनों का वोट मिलेगा और हम शासक बने रहेगें । जानकारी के बाद भी जांच रिपोर्ट तैयार नहीं की और आरक्षण पुरानी जांच रिपोर्ट जो सामाजिक न्याय समिति ( ैवबपंस रनेजपबम बवउउपजजमम द्ध ने दिनांक 28.6.2001 तैयार की थी लगाकर लागू कर दिया यह जानते हुए कि हम आरक्षण व्यवस्था 2007 में लागूकर रहे हैं और वर्तमान समय पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं इसके आंकडों के बिना यह शासनादेश न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित हो जायेगी । और ऐसा हुआ भी।
        बीएसपी पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष माननीया मायावती द्वारा पदोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण हेतु एक किताब प्रकाशित की है उसके पेज नं038 तथा पैरा नं0 9 में कहा गया है कि  इस प्रकार के आरक्षण के सम्बन्ध में जो सरकार द्वारा शासनादेश जारी किया गया है उनको उसी अनुपात में आरक्षण दिया गया है चाहे वह प्रथम नियुकित हो या पदोन्नति की नियुकित हो जो कि पूर्णतया सवैधानिक है  यह बात एक मुख्यमंत्री द्वारा शरारतपूर्ण उददेश्य से की जा रही है संविधान के अनुच्छेद 16,16(4)व 16 (4ए) में स्पष्ट है कि संघ या राज्य सरकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछडे वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने से रोका नहीं जा सकता है । पर्याप्त प्रतिनिधित्व ( ।कमुनंजमसल तमचतमेमदजमक द्ध शब्द का प्रयोग किया गया है इसका अर्थ है कि सरकार को इन वर्गो का सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देना है । तो बिना आंकडे इकटठे किये यह कैसे कहा जायेगा कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं यदि सीधी भर्ती होती है तो उसमें भी आंकडों के आधार पर आरक्षण लागू किया जाता है अत: संविधान व एम नागराज के फैसले में यह कहना है कि पदोन्नति में आरक्षण लागू करने से पहले आंकडे एकत्र करना अनिवार्य है । यह सच के साथ-साथ आवश्यक भी है ।
        इसी प्रकार किताब के पेज नं0 38 तथा पैरा 1 (सी) में यह कहना कि यह आरक्षण इस बात को ध्यान में रखकर ही किया गया है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के लोगों की प्रथम नियुकित और पदोन्नति की नियुकित पर उचिेत प्रतिनिधित्व नहीं है इसके लिए कोर्इ अलग से गणना करने या आंकडे निकालने की व्यवस्था हर बार नियुकित करने के वक्त नहीं की जा सकती और नहीं ऐसी गणना किया जाना सम्भव है ।
        एक मुख्यमंत्री द्वारा यह कहना कि आरक्षण लागू करने के समय गणना करना असम्भव है आम जनता के समझ से परे है क्योंकि सरकार के पास  एक कार्मिक विभाग होता है जिसका काम ही सभी सरकारी कर्मचारियों का लेखा-जोखा रखना होता है अत: प्रदेश के मुख्यमंत्री को गणना करना एक सप्ताह का समय की आवश्यकता है क्योंकि कार्मिक विभाग तथा अन्य सभी विभाग प्रदेश के मुख्यमंत्री के अन्तर्गत कार्य करते हैं ।
         अत: एम नागराज के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा लगायी गयीं तीन शर्तो में दो शर्ते जिसमें गणना अर्थात पर्याप्त प्रतिनिधित्व है  अथवा नहीं और यदि नहीं है तो पदोन्नति द्वारा अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की बात की गयी है यही शर्ते भारतीय संविधान के अनुच्छेद16,16(4) व 16(4ए) में है उसमें पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने का अधिकार राज्य सरकार को दिया गया है उसकी जांच बिना किये कैसे  तय होगा कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं तथा दूसरी शर्त दक्षता की है वह भी संविधान के अनुच्छेद 335 में है अत: इसका संशोधन होना सम्भव नहीं है इसी बात को भारत के महाधिवक्ता ने अपनी राय में कहा है कि जो संविधान संशोधन बिल है वह संविधान के अनुकूल नहीं है और यदि संविधान संशोधन होता है तो न्यायालय पुन: असंवैधानिक  घोषित कर सकता है । राज्य सभा में बहस के दौरान पुन: बिल में संशोधन किया गया है ।
          इसमें तीसरी शर्त जो पिछडेपन ( ठंबीूंतकदमेे द्ध से सम्बंधित है यह शब्द भारतीय संविधान के किसी भी अनुच्छेद में नही ंहै । यह शब्द पहली बार उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय इन्द्रासाहनी बनाम भारतसंघ में प्रयोग किया है और इस शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया क्योंकि अन्य पिछडेवर्ग को जो आरक्षण दिया गया था उसमें उच्चतम न्यायालय ने मलार्इदार परत (ब्तपउपसंलमतद्ध की श्रेणी में आने वाले अन्य पिछडे वर्ग के लोगों को आरक्षण नहीं मिलेगा । परन्तु उसी शब्द को अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के पदोन्नति हेतु आरक्षण में पिछडापन शब्द जोडा यह गलत है क्योंकि अनूसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में मलार्इदार परत (ब्तपउपसंलमतद्ध  को आरक्षण नहीं मिलेगा इस प्रकार की कोर्इ शर्त नहीं है । अत: पिछडेपन शब्द का अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पदोन्नति में आरक्षण के समय पिछडेपन को देखा जाये यह समझ से परे है परन्तु एक बात साफ कर देना चाहता हू कि बसपा सरकार द्वारा जारी किया गया पदोन्नति में आरक्षण हेतु शासनादेश केवल इसलिए निरस्त किया है कि उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि इस वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं न कि पिछडेपन शब्द से और इन्होने जो जांच रिपोर्ट दाखिल की वह सन 2001 की लगायी जो गलत थी।
         बसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा अपनी किताब के पेज नं0 23 पैराग्राफ नं0 8 में यह कहना कि  अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का पदोन्नति मे ंआरक्षण संविधान बनने की तिथि से आज तक लागू था । जिसके तहत एस0सी0एस0टी0 के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण एवं वरिष्ठता की व्यवस्था की एम नागराज के निर्णय में बनार्इ गर्इ तीनों शर्ते ऐसी हैं जो कि कभी भी पूरी नहीं हो पायेगी और इसका नतीजा यह होगा कि पदोन्नति में आरक्षण के संवैधानिक व्यवस्था बैध मानने के बाद भी  इसका लाभ नहीं मिलेगा और संविधान संशोधन आवश्यक है ।
        मैं यहां स्पष्ट करना चाहता हू कि एम नागराज ने जो शर्ते लगार्इ हैं वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16(4ए ) व 335 में पहले से दी गयी है । दूसरी बात इस वर्ग के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण संविधान के लागू होने की तिथि  से नहीं मिला बलिक 1962 में महा प्रबन्धक दक्षिण रेलवे बनाम रंगाचारी ( एआर्इआर 1962 पेज 36 ) में उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि जो पहली बार पदोन्नतति में आरक्षण इस वर्ग को दिया है वह उचित है तब से मिलना श्ुारू हुआ और जो बाद में 1992 में इन्द्रासाहनी वाले केस में समाप्त कर दिया था तब 77वां  संविधान संशोधन दिनांक 17.6.1995 को किया गया जिसके अनुसार अनुच्छेद 16(4ए) जोडा गया इसमें भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं इसको जानने के लिए जांच रिपोर्ट आवश्यक है इस संविधान संशोधन को एम नागराज के मामले में उच्चतम न्यायालय में सही ठहराया और जो शर्ते लगार्इ वह पहले से ही संविधान में मौजूद है केवल पिछडेपन शब्द की जगह पिछडापन शब्द लगा दिया और यदि जांच रिपोर्ट तैयार की जाती और कहा जाता कि एस.सी.एस.टी को भारतीय संविधान में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछडा माना गया है और इसमें कि्रमिलेयर नहीं लगा है । अत: संविधान के अनुसार उन्हें पिछडा ही माना जायेगा परन्तु ऐसा नहीं किया गया और बिना जांच रिपोर्ट तैयार किये गलत तरीके से शासनादेश जारी कर दिया इसे
इलाहाबाद की लखनऊ खण्डपीठ द्वारा दिये गये आदेश दिनांक 4.1.2012  के बाद ठीक किया जा सकता था परन्तु ऐसा नहीं किया गया और उच्चतम न्यायालय में अपील दाखिल कर दी जो इन्हीं कमियों के कारण निरस्त हुर्इ अपनी गलती को न सुधारना तथा दूसरों को धोखा देना और संविधान संशोधन हेतु राज्यसभा में प्रश्न उठाया और सपा के मुखिया मुलायम सिंह यादव की पार्टी ने राज्यसभा और लोकसभा में विरोध करना  क्या समाजवादी व्यकित को ऐसा करना चाहिए था उत्तर है बिल्कुल नहीं करना चाहिए था । बलिक सपा को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के पदोन्नति में आरक्षण हेतु लाये गये बिल का सही स्पष्टीकरण कर अन्य पिछडे वर्ग के लिए पदोन्नति में आरक्षण हेतु बिल लाना चाहिए था । परन्तु सत्ता के भूखे लोग सत्ता में बने रहने के लिए मूलनिवासी समाज को गुमराह कर रहे हैं । यह सब बातें क्या साबित करती हैं इससे तो यही साबित होता है कि हमारे समाज के राजनेता भी आरक्षण के साथ खिलवाड़ कर रहे और अपने वोट बैंैक का आधार बना रहे हैं ।
         इसी प्रकार हिमांचल प्रदेश की सरकार ने दिनांक 7.9.2007 को एस.सी.एस.टी.  को बिना जांच रिपोर्ट के पदोन्नति में आरक्षण शासनादेश द्वारा जारी कर दिया वह भी इसको हिमांचल हार्इ कोर्ट में हिमांचल प्रदेश सामान्य वर्ग कर्मचारी कल्यान महासंघ ने याचिकासंख्या  2628 सन!2008 में दाखिल की हिमांचल हार्इकोर्ट ने कहा बिना जांच रिपोर्ट के पदोन्नतियां एससीएसटी को आरक्षण दिया है वह असंवैधानिक है अत: शासनादेश 7.9.2007 को निरस्त कर दिया तत्पश्चात हिमांचल सरकार ने उच्चतम न्यायालय में अपील संख्या 3014 सन 2009 दाखिल की परन्तु बाद में हिमांचल प्रदेश सरकार ने उच्चतम  न्यायालय में एक प्रार्थनापत्र दाखिल कर अपील वापस यह कह कर ली  कि हम 3 माह के अन्दर जांच रिपोर्ट तैयार कर नया शासनादेश लागू करेगें । बाद में हिमांचल प्रदेश सरकार ने वैसा ही किया ऐसा ही बसपा सरकार को भी करना चाहिए था तथा देश के कर्इ अन्य प्रान्तों में पदोन्नति में आरक्षण लागू है।
      प्रगतिशील न्यायाधीशों के निर्णय जिन्होंने आरक्षण व्यवस्था का समर्थन किया
          जब यूरेशियन ब्राम्हणों को यह समझ में आया कि यदि हम आरक्षण का विरोध करेगें तो भविष्य में शासन सत्ता मे ंनहीं आ सकेगें तब उन्होंने न्यायपालिका का सहारा लिया और न्यायपालिका द्वारा आरक्षण को समाप्त करने का अभियान चलाया । न्यायपालिका में जो न्यायाधीश यूरेशियन ब्राम्हण नहीं थे उनके निर्णय आरक्षण के समर्थन में और यूरेशियन ब्राम्हणों ने उन न्यायाधीशों को जो न्यायधीश संविधान और देश को ध्यान में रखकर निर्णय देते थे उन्हें यूरेशियन ब्राम्हणों ने प्रगतिशील जज कह कर उनका प्रचार गलत किया और कहा कि वह जातिवाद को बढावा देते हैं तथा श्रेष्ठता का ध्यान नहीं रखते हैं और दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है वह है कि ऐसे न्यायाधीशों के उन निर्णयों का प्रेस मीडियां या अन्य लेखक वर्णन नहीं करतें  हंै मात्र उनके निर्णयों  को गलत बताते हैं।
      अशोक कुमार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश सरकार ( 1997),5 एससीसी पृष्ठ 201,231, पैरा 35 ) सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि योग्यता और श्रेष्ठता की धारणा शुद्व आर्यवादी मन की उपज है जिसे आर्यो ने अपने एकाधिकार को सुरक्षित बनाये रखने के लिए अपनाया था यह समीक्षा का शीर्षक है, मेरिट मार्इ फुट ए रिप्लार्इ टू एन्ट्री रिजर्वेशन रेसिस्टेस ( डमतपज उल विवज ं तमचसल जव ंदजप तमेमतअंजपवद तंबपेजे द्ध इस प्रचारक की सिद्वान्तवादी सत्ता पर टिप्पणी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था  विश्व में कहीं भी योग्यता और श्रेष्ठता को उतना महत्व नहीं दिया गया है जितना भारत में दिया गया है ।, जिसे आज दुनिया के विभिन्न देशों में इसी योग्यता अथवा श्रेष्ठता के मन्त्र की मदद से  120वें स्थान पर ढकेल दिया गया है , यानि सब देशों से पीछे  भारत के उच्च जाति के शासकों ने देश के मूलनिवासियों - अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछडे वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक को स्थार्इ रूप से अपना दास बनाये रखा है । योग्यता अथवा श्रेष्ठता को वे जन्म से जोड कर देखते हैं। श्रेष्ठ वही है जो उच्च कुल में पैदा हुआ है । यह जातिवाद का शुद्व व सरल सिद्वान्त है । यह तथ्य वैज्ञानिक आधार पर सिद्व हो चुका है कि जन्म अथवा रंग का श्रेष्ठता और दक्षता से कोर्इ सम्बन्ध नहीं है  परन्तु शासक वर्ग का विज्ञान से कोर्इ लेना- देना नहीं है क्योंकि विज्ञान तो प्रगति के लिए है । और फिर प्रगति चाहने वालों को मानवता भी धारण करनी पडेगी और भारत में इसी का अभाव है । यदि किसी को एक मनुष्य द्वारा दूसरे के प्रति अमानवीयता का नंगा रूप देखना है तो उसे भारत आना चाहिए क्योंकि जातिवाद और असमानता का यही असली घर है । इस प्रकार श्रेष्ठता का सिद्वान्त शासक वर्ग को ही शोभा देता है । अत: इससे साबित होता है कि यदि देश को महाशकित बनाना है तो देश में स्थापित ब्राम्हणवादी व्यवस्था का विनाश करना होगा और मूलनिवासियों की समता,  स्वतंत्रता, बन्धुत्व और न्याय पर आधारित व्यवस्था स्थापित करनी होगी ।
        इन्द्रासाहनी ( इन्द्रासाहनी बनाम भारत संघ 1992 सप्ली0 (3) एससीसी पेज 377 ,714,745 पैरा 779 ) में न्यायमूर्ति बी0पी0 जीवनरेडडी ने कहा था कि भारत में जाति पेशा-गरीबी की कडी अटूट बनी हुर्इ है । न्यायमूर्ति रेडडी के अनुसार, नार्इ जाति में जनमा कोर्इ व्यकित धोबी का काम करें, ऐसा  शायद ही देखने को मिलेगा, ऐसा सामान्यतया नहीं होता है । कहीं-कहीं अपवाद देखने को मिल सकते हैं, लेकिन हमें आम सिथति पर ध्यान देना है,न कि अपवादों पर ।  और फिर, कुछ शहरी क्षेत्रों में इस कडी के कुछ कमजोर पडने की संभावना है । लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में यह पहले जैसी ही बनी हुर्इ है । चूंकि ग्रामीण भारत और ग्रामीण जनसंख्या ही भारतीय जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है, अत: यह वास्तविकता आज भी बनी हुर्इ है । 
      इसी मामले में एक अन्य न्यायमूर्ति माननीय रत्नावेल पंडियन ने भारत का सही चित्रण किया -
      इस ( तिन्नेवाली ) जिले में एक वर्ग अदशर्नीयों  का है, जिन्हें  परदा चन्ना कहा जाता है । उन्हें दिन में बाहर नहीं निकलने दिया जाता, क्योंकि उनका दर्शन ( यानी उन्हें देखना ) अशुभ अथवा गंदा माना जाता है । उनमें से कुछ लोग ,जो रात के समय दूसरी बाहय जातियो ंके कपडे धोने का काम करते हैं उन्हें बहुत मुशिकल से साक्षात्कार के लिए तैयार किया जा सका । 
      इस तथ्य से न्यायाधीश भी सोेचने पर विवश हो गये थे ।  क्या परदा चन्ना  जाति के उल्लेख मात्र से ही यह संकेत नहीं मिलता कि उस समुदाय के लोग सामाजिक आर्थिक और शैक्षिक दृषिट से अत्यधिक पिछडे हुए थे जिन लोगों को दिन के समय बाहर निकलने पर भी इतनी पाबंदी है, उनके बच्चे क्या कभी स्कूल गए होगें घ् क्या इनके साथ किये जा रहे इस तरह के अपमानपूर्ण और अमानवीय व्यवहार की बात सुनकर दिल नहीं दहल जाता कितने दुख की बात  है । इस सामाजिक बहिष्कार  के चलते अपने घरों में छिपे अपनी दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण सिथति पर रोते हुए इन लोगों को कितना कष्ट का अनुभव है । जाति प्रथा की इस रूढिवादी परमंपरा में जब निम्न जाति के लोग गूंगों की तरह जीवन बिताते हुए और नीची जाति में जन्म लेने पर आंसू बहाते हुए सामाजिक रीति-रिवाजों की मार से हुए घाव को चाटने पर विवश है तो ऐसे में क्या किसी भी तरह यह कल्पना की जा सकती है कि सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछडेपन की निर्धारित करने वाला प्रमुख कारण  जाति नहीं है । 
     इसी मामले में न्यायमूर्ति माननीय पी0वी0सांवत  ने कहा कि भारतीय समाज युगो-युगो  से बहु -स्तरीय बना रहा है । इसमें उत्तराधिकार संबंधी ऐसे सामाजिक डिब्बे हैं, जिनकी गतिशीलता प्रतिबंधित है । प्रत्येक व्यकित एवं खास जाति में और उस जाति  के नाम के साथ पैदा हुआ है, अत:  वह इसे बदल नहीं सकता ।
          भारतीय समाज की प्रकृति और विस्तार के सम्बंध में पुराने समय से चली आ रही धारणाओं के इतिहास के आधार पर इस प्रकार की मान्यताओं एवं घोषणाओं को तर्कसंगत ठहराते हुए न्यायमूर्ति सावंत ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया है -  समाज के कुछ चुने हुए वर्गो के हाथ में कार्यकारी सत्ता के केन्द्रीयकरण के कुछ स्वाभाविक परिणाम है । सबसे महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक परिणाम है देश का प्रशासन मुठठी  भर उच्च जातिवर्ग के हाथ में आ गया और अन्य जाति धर्मो को उससे वंचित रखा गया । इस प्रकार,जीवन के सभी क्षेत्र समाज के एक छोटे वर्ग के हितों को ध्यान में रखते हुए नियंत्रित, निर्देशित और संचालित किए जाते रहे हैं, जिसका भारत की कुल जनसंख्या में हिस्सा 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है  ।
       उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 14 (4) और 16(4) में किये गये प्रावधानों का लाभ निर्धन ब्राम्हणों को देने का विचार इतना íोटा है कि इस पर विचार भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि इन  अनुच्छेदों में सामाजिक और शैक्षिक पिछडे वर्गो का प्रशासन में प्र्याप्त प्रतिनिधित्व की बात कही गयी न कि आर्थिक पिछडे वर्ग के लिए आपने कहा कि यह कैसे पता लगाया जा सकता है कि कोर्इ व्यकित आर्थिक दृषिट से पिछडा है  या नहीं और उसे सामाजिक शैक्षिक दृषिट से पिछडे वर्गो की ्रश्रेणी में रखा जाना चाहिए या नहीं क्या उन सभी लोगों की सामाजिक-शैक्षिक दृषिट से पिछडे वर्गो की श्रेणी में रखा जायेगा, जो किसी अधिकारी, विधायक आदि से इस सम्बंध में प्रमाण पत्र हासिल कर लेते है ंकि उनकी पारिवारिक आय निर्धारित आय-सीमा से कम है कोर्इ भी आसानी से समझ सकता है कि इस प्रकार के प्रमाण पत्र किसके पास होगें । निस्संदेह ग्रामीण उच्चवर्ग, प्रतिषिठत वर्ग, जो कोर्इ आय कर जमा नही  करते, क्योंकि कृषि-आय को कर मुक्त रखा गया है और समाज के वास्तविक निम्न वर्गो को ये प्रमाणपत्र नहीं मिल सकेगें,जिन्हें  सबसे ज्यादा जरूरत है । 
  न्यायमूर्ति सावंत ने कहा कि मलार्इदार परत की पहचान केवल आर्थिक मापदण्ड के आधार पर नही ंकी जानी चाहिए । साथ ही उन्होंने इसमें एक शर्त भी जोडी है- कोर्इ व्यकित अथवा समूह मलार्इदार परत के अन्तर्गत आता है या नहीं, इसका निर्धारण करने के लिए यह देखा जाना चाहिए कि संबंधित व्यकित के समूह ने वे सामाजिक क्षमताएं हासिल कर ली है  या नहीं ,जो सक्षम और सबल वर्ग के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए आवश्यक है । उन्होंने लिखा है -  पिछडे वर्गो में मौजूद उन्नत लोगों को प्रगति शीलता का निर्धारण करने के लिए उनकी क्षमता की तुलना वर्ग के अन्य पिछडे सदस्यों के साथ न करके सवर्ण वर्ग के सदस्यों की क्षमता से की जानी चाहिए।  और उनकी सामाजिक क्षमता का मूल्यांकन करने के लिए यह मापदण्ड नहीं अपनाया जाना चाहिए कि वे चतुर्थ्र और पंचम श्रेणी के पदो ंके लिए सवर्ण वर्ग के सदस्यों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं या नहीं, बलिक यह देखना चाहिए कि क्या वे उच्च पदों के लिए उनके साथ प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं न्यायाधीश महोदय ने लिखा  यदि सरकारी सेवाओं में उनके प्रतिनिधित्व का मूल्यांकन परिमाणात्मक एवं गुणात्मक दोनों आधार पर करना हो, यानी उसमें उच्च पदों को भी शामिल करके देखना हो तो प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता का निर्धारण उच्च पदो ंके लिए उनकी प्रतियोगी क्षमता के आधार पर भी किया जाना चाहिए । यह क्षमता तभी हासिल की जा सकेगी, जब पिछडावर्ग उस स्तर पर अथवा उसके निकट पहुं्रच जायेगा । लेकिन तब तक उन्हें पिछडे वर्ग से बाहर नहीं किया जा सकता। 
     न्यायमूर्ति रत्नवेल पांडियान ( त्ंजदंअमस च्ंदकपंद  ) तो मध्य मूल्यांकन के बिल्कुल पक्ष में ही नहीं है । उनका कहना है कि  यह बिल्कुल अव्यावहारिक है । इसका विश्लेषण करते ही पता चल जाता है कि वह कोर्इ निर्णायक मूल्यांकन या परीक्षण नहीं है, बलिक इसके विपरीत कर्इ लोगों के लिए यह सुरक्षा छतरी के रूप में कार्य करेगा, जिसकी सहायता से वे किसी भी अवैध अथवा अनैतिक तरीके से इस अलग वर्ग में शामिल हो जायेगें ।
    माननीय न्यायमूर्ति ओ चिन्नपा रेडडी ने  के.सी. वसंत कुमार बनाम कर्नाटक राज्य में ( 1985 सप्ली0एससीसी 714,757,पैरा 33 में ) कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आगे बढाने के लिए विशेष सुविधाएं दी जानी चाहिए । इनकी जरूरतें ही उनकी मांगे हैं ये मांगे उनके अधिकार से सम्बंधित है न कि किसी प्रकार के उपकार से वे समानता भी मांग की मांग कर  रहे हैं न कि दया की ।
    इसी प्रकार केरल राज्य बनाम एन.एम.बगमान ( 1976)2 एससीसी 310,357 पैरा 42 ) मामले में प्रगतिशील न्यायाधीशों ने स्पष्ट किया  कि कुल सेवा में की गयी पदोन्नतियां किसी भी तरह से कुल पदों के 50 प्रतिशत के निकट नहीं है।  अत: उन्होंने कहा कि शर्तो एवं मापदण्डों में छूट देकर पदों का अनुपात बनाए रखने का जो आदेश दिया गया वह न केवल अनुच्छेद 46 के नीति निर्देशक सिद्वान्त के अनुरूप है- जिसके अनुसार,  सरकार समाज के कमजोर वर्गो और विशेषकर अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के शैक्षिक व आर्थिक हितों को विशेष रूप से बढावा देगी और सभी प्रकार के सामाजिक अन्याय एवं शोषण से उनकी रक्षा करेगी ।  बलिक वह  अनुच्छेद 335 के अन्तर्गत निर्देश को  लागू करने के लिए है, जिसके अनुसार सरकार प्रशासन की कुशलता को ध्यान में रखकर, ही अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के दावों  या अधिकारों  पर विचार करेगी ।
    न्यायमूर्ति के.के. मैथ्यू के  अनूुसार अनुच्छेद 16(4) का उददेश्य सरकारी सेवाओं मे ंकम प्रतिनिधित्व वाले वर्गो के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिशिचत करना- भले ही इसके लिए निर्धारित अर्हता-शर्तो में छूट ही क्यों न देनी पडे़ । उन्होंने कहा था,  सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिशिचत करने के लिए सरकार कोर्इ भी प्रावधान कर सकती है और उसे अवसर की समानता के सिद्वान्त के रूप में न्यायसंगत करार दे सकती है वशर्ते उससे प्रशासन की कुशलता के लिए आवश्यक न्यूनतम योग्यता की अनदेखी न हो ।  इतना ही नहीं, सरकार वह प्रावधान अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए कर सकती है या इसमें अन्य पिछडा वर्ग को भी शामिल कर सकती है । न्यायमूर्ति मैथ्यू ने कहा था, कानून बनाने वाले को यह स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह बुरार्इ पर चाहे वह जहां कहीं भी सबसे ज्यादा दिखार्इ दें, प्रहार कर सके  ।
    माननीय न्यायमूर्ति फजल अली ने केरल राज्य बनाम एन.एम. थामस ( 1976)2 एससीसी 310,387, पैरा 191 ) में कहा कि आरक्षण की सीमा अलग-अलग मामले की परिसिथतियों के आधार पर  अलग-अलग निर्धारित की जानी चाहिए, इस सम्बंध में कोर्इ निशिचत नियम नहीं है और न ही ऐसा कोर्इ अंकगणितीय सूत्र तैयार किया जा सकता है, जो सभी मामलों में समान रूप से लागू हो ।  न्यायाधीश महोदय का कहना था,  इसमें कोर्इ संदेह नहीं  कि इस न्यायालय के निर्णीत मामलेों में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत निशिचत कर दी गयी थी । किन्तु यह सावधानी के लिए दिया जानेवाला निर्देश मात्र है, जो सभी मामलों में समान रूप से लागू नहीं हो सकता । मान लीजिए, किसी राज्य में पिछडे वर्गो का राज्य की कुल जनसंख्या 80 प्रतिशत हिस्सा है और उन्हें उपयुक्त प्रतिनिधित्व देने के लिए सरकार उनके लिए 80 प्रतिशत पर आरक्षित कर देती है । ऐसे में क्या यह कहा जा सकता है कि इससे अनुच्छेद 16 की धारा (4) का उल्लंघन हो रहा है । उत्तर निस्संदेह  नहीं  में ही होगा । वस्तुत: इस अनुच्छेद का मूल उददेश्य ही पिछडे वर्गो के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिशिचत करना है ।  यानी 80 प्रतिशत आरक्षण में भी कोर्इ बुरार्इ नहीं है  ।
     न्यायमूर्ति फजल अली की धारणात्मक टिप्पणी का समर्थन करते हुए लिखा था ।  मैं अपने विद्वान वंधु न्यायमूर्ति फजल अली की बात से सहमत हू कि किसी दिए गए वर्ष में 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा को कोर्इ निशिचत नियम के रूप में लागू नहीं किया जा सकता ।  किसी विभाग में कुल प्रतिनिधित्व का निर्धारण किसी दिए गए वर्ष में की गयी भर्तियों के आधार पर नहीं किया जाता, बलिक कुल भर्तियों के आधार पर किया जाता है । मैं अनुच्छेद 16 (4) के संदर्भ में दिए गए उनके स्पष्टीकरण और उनके  अग्रसारण नियम  से सहमत हू ।
    न्यायमूर्ति रत्नावेल पांडियान तो यह बात मानने से पूरी तरह इनकार ही कर देते हैं कि आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। उनका कहना है कि इस संदर्भ में बालाजी आदि मामलों में जो निर्देश दिए गए हैं वे प्रासंगिक उकित मात्र है । आरक्षण 100 प्रतिशत न हो बस, इससे कम चाहे जितना भी हो सकता है । माननीय न्यायाधीश का कहना है कि  आरक्षण का अनुपात कितना होना चाहिए, यह संबंधित मामले में प्रतिनिधित्व के अनुपात के आधार पर निशिचत किया जाना चाहिए । अत: आरक्षण को 50 प्रतिशत पर सीमित कर देना उपयुक्त नहीं है । आरक्षण की इस प्रकार सीमा निर्धारित करने का निर्णय न तो किसी वैज्ञानिक आंकडे पर आधारित है और न ही इसका कोर्इ सर्र्वमान्य फामर्ूला है । सच तो यह है कि अनुच्छेद 16(4;ें में  ऐसा कुछ नहीं है, जो सरकार को आवश्यक अनुपात में आरक्षण का प्रावधान करने से रोकता हो  ।
    न्यायमूर्ति पी0बी0 सांवत ने अपने निर्णय ( इन्द्रासाहनी ) में कहा है कि देश की कुल जनसंख्या में पिछडे वर्गो का हिस्सा 77.5 प्रतिशत है,लेकिन संविधान सभा की बहस के दौरान किसी भी सदस्य ने यह बात नहीं उठार्इ कि आरक्षण से संबंधित कुल जनसंख्या में किसी समुदाय विशेष के हिस्से के अनुपात में किया जाना चाहिए ।
    माननीय न्यायमूर्ति ए.एन.राय ने एन.एम. थामस वाले मामले में कहा है कि  सेवायोजन के संदर्भ में , अन्य संबंधित शर्तो की तरह ही, चयन के आधार पर भरे जाने वाले पदों का मामला भी सेवायोजन के अन्तर्गत आता है और इस प्रकार के पदों पर पदोन्नति के संदर्भ में अनुच्छेद 16(1) में जो व्यवस्था की गयी है, उसका उददेश्य सभी के लिए अवसर की समानता ही है ।  हालांकि  उन्होंने सचेत भी किया कि पदोन्नति में आनुपातिक आरक्षण लागू करते समय सरकार को यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि इससे प्रशासन की कुशलता पर क्या प्रभाव पडेगा, क्योंकि  यह बात भुलार्इ नहीं जा सकती कि प्रशासन की कुशलता और सक्षमता सर्वोपरि है, उसकी उपेक्षा करके किसी तरह का आरक्षण कभी प्रावधान नहीं किया जा सकता । 
    न्यायमूर्ति फजल अली अपनी टिप्पणी पर कायम रहे । उन्होंने कहा कि; अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 16 के अनुसार समानता का सिद्वान्त किसी व्यकित के सेवायोजन से संबंधित सभी पहलुओं पर लागू होता है नियुकित से लेकर पदोन्नति, सेवानिवृतित और आनुश्रमिक  ( ग्रेच्युटी) तथा पेंशन तक । अत: सरकार को कर्मचारियों को अलग अलग श्रेणियों में वर्गीकृत करने का पूरा-पूरा अधिकार है और साथ ही, बास्तविक समानता स्थापित करने के लिए एक वर्ग अथवा श्रेणी के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों जनजातियों तथा अन्य पिछडा वर्ग के लिए विशेष प्रावधान करने का भी अधिकार है । 
    न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अइयर ने अखिल भारतीय शेाषित कर्मचारी संध मामले में पुन: यह विन्दु उठाया । उन्होंने इस अधिकार को और भी व्यापक बना दिया।
    सबसे पहले न्यायमूर्ति अइयर ने नीति निर्देशक सिद्वान्तों की बात उठार्इ । उन्होंने कहा  देश के शासन में प्रत्येक नीति निर्देशक सिद्वान्त एक मौलिक सिद्वान्त है और कानून बनाते समय उसे अमल में लाना सरकार का दायित्व है । उन्होंने आगे कहा कि  अनुच्छेद 46  के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से कहा जाये तो सरकार समाज के कमजोर वर्गो विशेषकर अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के शैक्षिक व आर्थिक हितों को रक्षा करने तथा उन्हें किसी भी प्रकार की सामाजिक असमानता और शोषण से बचाकर रखने के लिए बाध्य है ।  अनुच्छेद 46 और अनुच्छेद 16 (4) का आशय समनिवत रूप से लिया जाये तो संविधान निर्माताओं के इस उददेश्य का पता चलता है कि हरिजन गिरिजन  समूह के शोषित वर्ग की समस्याओं को सरकार द्वारा दूर किया जाना चाहिए । माननीय न्यायाधीश ने कहा कि आशय बिल्कुल स्पष्ट है और अनुसूचित जाति एवं जनजाति की प्रशासनिक भागीदारी को ही सरकार द्वारा विशेष प्रयास से बढावा दिया जाना चाहिए  ।
    अशोक कुमार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था-
    1- अनुच्छेद 16 (4) का उददेश्य अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों और अन्य पिछडे वर्ग को सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देना है । जब तक इन वर्गो को उच्च पदों में आरक्षण नहीं दिया जाता तब तक इन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा ।
      2- जब कोर्इ व्यकित किसी सेवा में नियुक्त हो जाता है तो वह उस सेवा से संबंधित सभी कर्तव्यों के लिए उत्तरदायी हो जाता है और साथ ही उस सेवा से संबंधित अधिकारों का हकदार भी बन जाता है । उच्च पद पर पहुंचना भी इन्हीं अधिकारोें में से एक है । यानी पदोन्नति नियुकित का ही एक स्वरूप है । न्यायालय ने स्वयं कहा था ।  पदोन्नति का अधिकार एक कैडर से दूसरे उच्च कैडर या श्रेणी, वर्ग विभाग आदि में नियुकित का एक माध्यम है । पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था समानता स्थापित करने के उददेश्य से की गर्इ है जहां सरकार को लगता है कि विभिन्न कैडरों, श्रेणियों वर्गो या विभागों अथवा पदों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछडे वर्ग का प्रतिनिधित्व कम है । 
    न्यायमूर्ति कृष्णा अइयर  तो यहां तक कहते हैं कि  अनुसूचित जाति के कर्मचारी उच्च पदों के लिए अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त होते हैं, क्योंकि वे उस समस्या का सामना स्वयं कर चुके हैं,जिसे दूर किया जाना है, और  व्यवहारिक  अनुभव  सैद्वानितक परीक्षा की अपेक्षा योग्यता का बेहतर  मूल्यांकन  कर सकता है ।
    न्यायमूर्ति ओ0. चिननपा रेडडी का कहना है कि  किसी व्यवस्था में ऐसी कोर्इ योग्यता नहीं है जिसके ऐसे परिणम हों । अनुसूचित जाति एवं जनजाति या फिर अन्य पिछडा वर्ग का एक बच्चा जो गरीबी, निरक्षरता और संस्कृति विहीनता के माहौल में पला बड़ा है,जिसे समाज हेय दृषिट से देखता है, जिसके पास पढने के लिए पुस्तकें या पत्रिकाएं नहीं है, देश-विदेश की खबरे आदि सुनने के लिए रेडियों नहीं है, देखने के लिए टेलीवीजन नहीं है, घर पर गृहकार्य में मदद करने वाला कोर्इ नहीं है,जिसे निकट के ही स्कूल कालेज में पढना पडता है, जिसके माता-पिता इतने गरीब और अशिक्षित  है कि वह उनसे किसी प्रकार के मार्गदर्शन की आशा भी नहीं कर सकता, ताजा घटनाओं की जानकारी प्राप्त करने के उददेश्य से समाचार पत्र पढने के लिए सार्वजनिक अध्ययन कक्ष में जाना पडता है । इतनी कठिन परिसिथतियों के बावजूद किसी प्रतियोगी परीक्षा में 40 प्रतिशत अंक प्राप्त कर लेता है,जिसमें उच्च वर्ग  से निकलकर आये बच्चे जिनके पास सभी सुविधाएं मौजूद हैं, जिन्हें पढने के लिए सेंट पाल हार्इस्कूल और सेंट स्टीफन कालेज में भेजा जाता है, जो परीक्षा की तैयारी के लिए कोचिंग कक्षाएं  लेने में भी सक्षम हैं। 50 प्रतिशत अंक प्राप्त करते हैं,ऐसे में क्या अनुसूचित जाति एवं जनजाति अथवा अन्य पिछडा वर्ग के इस बच्चे को योग्य नहीं माना जा सकता । इसमें कोर्इ संदेह नहीं कि जो बच्चा इतनी सारी बाधाआें को पार करके आगे बड़ा है वह अपने जीवन में निरंतर आगे बड़ता रहेगा ।
    पूर्वाग्रह से ग्रस्त न्यायाधीशों के निर्णय जिनके द्वारा आरक्षण का विरोध किया गया ।
     अब उन न्यायाधीशों केे निर्णयों के बारे में बात करेगें जिन्होंने अपने निर्णय आरक्षण के विरोध में दिये हैं उनसे पहले हम शासक वर्ग ( यूरेशियन ब्राम्हण ) की सोच क्या है पर बात करेगें ।
        आजादी के 65 साल पूरे होने के बाद भी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछडे वर्ग का शासन प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है और जिन लोगों, अधिकारियों, और राजनेताओं के कारण नहीं हुआ है उन्हें चिनिहत कर राष्ट्रद्रोही घोषित कर दणिडत करना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हुआ और जिन लोगों ने आरक्षण व्यवस्था असफल की है वह आज सम्मानित किये जा रहे हैं इसका केवल एक ही कारण है कि इस प्रजातंत्र देश में प्रजातंत्र के चारों स्तम्भों, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस मीडिया पर केवल एक ही वर्ग यूरेशियन ब्राम्हणों का कब्जा है और इसी वर्ग ने ही यहां के मूलनिवासियो ंको अधिकार वंचित कर उन्हें जानवरों  से बदत्तर जिन्दगी जीने को मजबूर किया था । इससे यह साबित होता है कि उन्हें इस देश और देशवासियों से कोर्इ प्रेम नहीं है यह एक पत्र से साबित होता है जो प्रथम प्रधानमंत्री व यूरेशियन ब्राम्हणों के सर्वमान्य नेता पंडित जवाहर लाल ने दिनांक 27 जून 1961 को आरक्षण के विरोध में देश के सभी मुख्यमंत्रियों  को लिखा था जो निम्न प्रकार है ।
        पहले में कुशलता या योग्यता का जिक्र कर चुका हू और मैने यह भी जिक्र किया है कि हम अपनी परम्परागत लीक से हट रहे हैं । ऐसे में हमारे लिए अपनी आरक्षण की आदत और किसी जाति या समुदाय विशेष को विशेष अधिकार देने की प्रवृतित से बाहर निकलना आवश्यक हो जाता है । हाल ही में यहा सम्पन्न हुर्इ मुख्यमंत्रियों की बैठक जो राष्ट्रीय अखण्डता के विषय पर चर्चा करने के लिए आयोजित की गर्इ थी, में यह विचार रखा गया कि ( आरक्षण या विशेष अधिकार के रूप में ) सहायता देने के लिए जाति को आधार बनाकर आर्थिक सिथति को आधार बनाया जाना चाहिए । यह सच है कि हम अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को सहायता उपलब्ध कराने से सम्बंधित कुछ नियमों और मान्यताओं से तंग आ चुके हैं । उन्हें सहायता की आवश्यकता है, इसमें कोर्इ दो राय नहीं, लेकिन मैं किसी प्रकार के आरक्षण के पक्ष में नहीं हू, विशेषकर नौकरियों में । मैं ऐसी किसी भी व्यवस्था के खिलाफ हू, जो हमें कुशलता और दोयम दर्जे की ओर ले जाये । मैं चाहता हू कि मेरा देश हर मामले में पहले दर्जे पर हो । जब हम दोयम दर्जे की ओर ले जाने वाली किसी व्यवस्था को बढावा देने शुरू कर देगें, तो हम अपना सब कुछ खो बैठेेंगें ।
    पिछडों को सहायता देने का एकमात्र वास्तविक रास्ता यही है कि उन्हें शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराये जायें इसमें तकनीकी शिक्षा को भी शामिल किया जा सकता है, जो वर्तमान में बहुत महत्वपूर्ण होती जा रही है । इसके अलावा कोर्इ अन्य प्राविधान यदि किया जाता है तो वह एक तरह से वैसा ही होगा, जो हमें मजबूत बनाने की वजाय कमजोर करेगा । हाल ही में हमने दो महत्वपूर्ण निर्णय लिये हैं पहला सब के लिए नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा, जो विकास का आधार है और दूसरा शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर चाहे वह साहितियक शिक्षा हो, चाहे तकनीकी, वैज्ञानिक अथवा चिकित्सकीय शिक्षा या प्रशिक्षण हो - मेधावी और प्रतिभाशाली छा़त्र-छात्राओं के लिए व्यापक पैमाने पर छात्रवृतित की व्यवस्था, में प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं पर अधिक बल देता हू । क्योंकि वही हमारे स्तर को ऊंचा उठा सकते हैं। नि:सन्देह हमारे देश में प्रतिभा की कमी नहीं है, आवश्यकता है तो बस उन्हें उपयुक्त अवसर उपलब्ध कराने की । परन्तु यदि हम जाति या सम्प्रदाय के आधार पर आरक्षण का प्रावधान लेकर चलते हैं तो निशि.चत रूप से हम दूसरे या तीसरे दर्जे पर रह जायेगें क्योंकि उस सिथति में योग्यता या कुशलता की उपेक्षा होगी यह देखकर मुझे बड़ा दु:ख होता है कि जाति - सम्प्रदाय आधारित आरक्षण की ओर हम कितना आगेे बढ़ चुके हैं । यह जानकर मुझे और भी आश्चर्य होता है कि कर्इ बार तो पदोन्नति के लिए भी आरक्षण को आधार बना लिया जाता है यह रास्ता मूर्खतापूर्ण तो है ही घातक भी है । हमें पिछडे समुदायों की हर सम्भव मदद करनी है, लेकिन कुशलता पर बिल्कुल नहीं । आखिर दोयम दर्जे की कुशलता लेकर हम सार्वजनिक क्षेत्र या किसी भी क्षे़त्र का निर्माण कैसे कर पायेगें । ं
         ( पं0 जवाहर लाल नेहरू द्वारा राज्यों के मुख्यमंत्रियों को 27 जून, 1961 को लिखा पत्र ) 
        जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखित पत्र यह साबित करता है कि यूरेशियन ब्राम्हण आज भी यहां के मूल निवासियों को अपना गुलाम मान कर चल रहे हैं और इस मूलनिवासी समाज को शोषित, शासित बनाए रखने के लिए शासन, प्रशासन का  पूर्णरुपेण प्रयोग यूरेशियन ब्राम्हण कर रहा है। परन्तु हमारा मूलनिवासी समाज इस बात से अनभिज्ञ है और जो लोग जानकार है वह स्वार्थवश या भयवश ब्राम्हणवादी व्यवस्था के शरणागत है वर्तमान समय में व्यस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस मीडिया का प्रयोग देश कैसे महाशकित बने उसके लिए कार्य नही ंकरते हैं बलिक उसका प्रयोग केवल और केवल मूलनिवासियो ंको शोषित शासित बनाए रखने के लिए कर रहे हैं ।
          यह ऐतिहासिक सच है कि यूरेशियन ब्राम्हणों ने यहां के मूलनिवासियों को शूद्र घोषित कर अधिकार वंचित कर जानवरों से बदत्तर जिन्दगी जीने को मजबूर कर दिया और इतनी घृणा पैदा की कि मूलनिवासियों की छाया से भी  यूरेशियन ब्राम्हणों को नफरत थी एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हू कि आगे चलकर शूद्रों के दो भाग ब्राम्हणों ने किये शूद्र और अतिशुद्र ़ वर्तमान समय में अन्य पिछडे वर्ग के लोगों को शूद्र की श्रेणी में तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को अतिशुद्र में रखा इनसे यह आशा रखना कि वह मूलनिवासियों का विकास कर राष्ट की मुख्यधारा में लायेगें वह बहुत बडी भूल है ।
    जवाहर लाल नेहरू यूरेशियन ब्राम्हणों के सर्वमान्य नेता थे और मूलनिवासियों के सबसे बडे विरोधी थे ।
     जवाहर लाल नेहरू बहुत ही झूंठ बोलने वाला व्यकित था तथा मूलनिवासियों के विकास का बाधक था वह हमेशा आरक्षण नीति का विरोधी था । 13 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में प्रस्ताव रखा था और अपने प्रस्ताव में नेहरू ने कहा था कि धर्म परिवर्तित अल्पसंख्यक, पिछडा क्षेत्र,आदिवासी क्षेत्र, डिप्रेस्ड क्लास (एससीएसटी ) और पिछडे वर्ग को पर्याप्त संरक्षण दिया जायेगा इसमें पिछडे वर्ग के लिए नेहरू ने कुछ नहीं किया और धोखा दिया तब बाबा साहब अम्ब्ेाडकर ने संविधान में अनुच्छेद 340 जोडा और पिछडे वर्ग के लिए आयोग बनाने के लिए संविधान में अधिकार दिये जिसके लिए नेहरू ने सहमत जतायी और एक वर्ष के अन्दर आयोग गठन करने का बचन दिया परन्तु धोखेबाज ने जब कुछ नहीं किया तब बाबा साहब ने अपना इस्तीफा दिया और उस स्तीफा में बाबा साहब ने कहा कि सरकार बने दो साल बीत जाने के बाद भी सरकार ने पिछडे वर्ग के लिए आयोग का गठन नहीं किया है तब जाकर 29 जनवरी 1953 को ओबीसी के लिए काका कलेकर कमीशन का गठन किया । आयोग के गठन के लगभग एक माह बाद 18 मार्च 1953 को राज्य के मुख्यमंत्रियों को लिखे अपने पत्र में नेहरू ने कहा कि इससे देश के चौदह करोड जनता का जीवन प्रभावित  होगा और आगे लिखा है कि जाति और वर्ग के आधार पर जनता का सूक्ष्म विभाजन घातक है जब तक हम जाति प्रथा को समाप्त करके इन बाधाओं को दूर नहीं करेगें तब तक हम अपने सामने आ रही मुशिकलों से पूरी तरह नहीं उबर सकते ( वहीबाल्यूम प्प्प् 1952-1954 18 मार्च 1953 पृष्ठ 270-71 )
        जब मूलनिवासियों को विशेष सुविधाएं देने की बात आती है तब नेहरूं को जाति-वाद खतरनाक दिखार्इ देता है और जब पूरे राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल, आयोग के चेयरमैन अपनी जाति यूरेशियन ब्राम्हणों को बनाया और 56 प्रतिशत क्रांग्र्रेस का टिकट देकर 47 प्रतिशत जिताकर यूरेशियन ब्राम्हणों को लाये और ब्राम्हण राज्य घोषित किया तब जातिवाद दिखार्इ नहीं दिया। परन्तु 31 मार्च 1955 को जब काला कालेकर की रिपोर्ट आर्इ तो उसे लागू करने से इन्कार कर दिया यह धोखेबाजी उस व्यकित की है जिसे देश के इतिहास में महान समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष,भारत का विकास पुत्र और बच्चों का चाचा कहा जाता है । यह सब जवाहर लाल नेहरू कर रहा था उस समय राम मनोहर लोहिया कांग्रेस मे ंही थे ।
      इन न्यायाधीशों को यदि हम रूढिवादी कहते हैं तो सही नहीं है क्योंकि आरक्षण के विरूद्व में जो फैसले आये हैं वह जातीय पूर्वागृह के कारण है बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर साहब ने सही कहा था कि बाल गंगाधर तिलक यदि अछूत समाज में पैदा होते तो स्वराज्य हमारा जन्म सिद्व अधिकार है यह न कहते बलिक यह कहते कि छुआछूत समाप्त करना हमारा जन्मसिद्व अधिकार है  इसी प्रकार जो लोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में पैदा हुए हैं उन्होंने छुआछूत गरीबी शोषण और अमानवीय अत्याचार कर्इ पीढियों से झेला  है और पिछडे वर्ग  के लोग भी छुआछूत के अलावा शोषण अत्याचार और अमानवीय व्यवहार कर्इ सदियों से झेला है और आज तक झेल रहे हैं । अत: इस मूलनिवासी समाज की पीड़ा वह लोग क्या जाने जिनके पूर्वजों  ने सदियों से पीड़ा दी है और आज भी दे रहे हैं इसलिए  यह आवश्यक हो जाता है कि मूलनिवासी समाज का शासन और प्रशासन में पया्र्रप्त प्रतिनिधित्व  हो और पर्याप्त  प्रतिनिधित्व  हुए बिना मूलनिवासी समाज और राष्ट्र का भला नहीं हो सकता है ।
    भारतीय संविधान में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछडे़ वर्गो के लिए संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 16 (4) में सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व की बात कही गयी है और यह संविधान 26 नवम्बर 1949 को लागू हुआ, संविधान के लागू होने के बाद मद्रास सरकार ने अपने राज्य के मेडिकल कालेजों में आरक्षण व्यवस्था लागू की उस शासनादेश को मद्रास हार्इकोर्ट ने निरस्त कर दिया तत्पश्चात मद्रास सरकार ने उच्चतम न्यायालय में अपील दाखिल की जिसको उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया । ( स्टेट आफ मद्रास बनाम चम्पकम दोरर्इ  राजन ए0आर्इ0आर0 1951 सुप्रीम कोर्ट 226 ) और कहा कि शासनादेश अनुच्छेद 15 (1) के विरूद्व है उसके बाद सर्वप्रथम 18 जून 1951 को भारतीय संविधान में पहला संविधान संशोधन किया गया और अनुच्छेद 15(4) जोड़ा गया जो निम्न प्रकार है:-
    अनुच्छेद 15(4) - इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खण्ड (2) की कोर्इ बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृषिट से पिछडे हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गो की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोर्इ विशेष उपबन्ध करने से निवारित नहीं करेगी ।
    उपरोक्त निर्णय में उच्चतम न्यायालय के सात न्यायाधीशों ने कहा कि मद्रास सरकार द्वारा पारित शासनादेश गलत है जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16(4) में पहले से ही आरक्षण व्यवस्था का प्रावधान था क्योंकि अनुच्छेद 16(4) में स्पष्ट है कि  इस अनुच्छेद की कोर्इ बात राज्य के पिछडे हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में प्र्याप्त नहीं है । नियुकित या पदो ंके आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से रोका नहीं जायेगा ।
    इससे साबित होता है कि यूरेशियन ब्राम्हण के न्यायाधीशों ने भारतीय संविधान की व्याख्या सही नहीं की क्योंकि वे नहीं चाहते हैं कि देश के मूलनिवासियों को शासन प्रशासन में प्र्याप्त प्रतिनिधित्व मिलें । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 (4द्ध व 29 (2) में स्पष्ट कहा है कि सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछडे वर्गो को सरकारी सेवाओं व सरकारी शिक्षण संस्थाओं में प्र्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जायेगा तो  15 (1) का उल्लंघन हो रहा है यह न्यायपालिका की व्याख्या गलत है ।
    प्रथम संविधान संशोधन के बाद उच्चतम न्यायालय एम0आर बालाजी बनाम मैसूर राज्य
 ( एआर्इआर 1963 सुप्रीम कोर्ट 649 ) में निर्णय दिया वह भी संविधान के विरूद्व है क्योंकि  भारतीय संविधान के किसी भी अनुच्छेद में आरक्षण सीमा का वर्णन नहीं है  इसके बावजूद भी उच्चतम न्यायालय ने 50 प्रतिशत से आरक्षण अधिक नहीं होगा यह कहकर भारतीय संविधान के मकसद को ही रोक दिया। भारतीय संविधान में संविधान सभा ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण उनकी जनसंख्या की अनुपात में 22.5 प्रतिशत दिया है और पिछडे वर्ग की जनसंख्या 52 प्रतिशत से अधिक है तो दोनों को मिलाकर 85 प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए था । परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में  50 प्रतिशत सीमा तय कर दी । इससे ऐसा लगता है कि इस देश की न्यायापालिका में बैठे लोग भारतीय संविधान, देश एवम देशवासियों को ध्यान में रखकर निर्णय नहीं देते हैं बलिक वह जातीय पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर मूलनिवासियो के विरूद्व निर्णय देते हैं न्यायपालिका का कार्य संविधान की सुरक्षा करना है न कि कानून बनाना कानून बनाने का काम केवल संसद को है और कानून की व्याख्या का अधिकार न्यायपालिका को है । परन्तु बालाजी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने संविधान के बाहर जाकर निर्णय दिया ।
    के0सी0वसंत कुमार बनाम कर्नाटक सरकार (ए आर्इ आर 1985 सुप्रीम कोर्ट 714 पैरा 82,84 ) में न्यायमूर्ति ए0पी0 सेन ने कहा कि संविधान में किये गये प्रावधान के अनुसार और आवश्यकता की दृषिट से भी सामाजिक एवं शेक्षिक रूप से पिछडे वर्ग की सहायता की जानी चाहिए । किन्तु दुर्भाग्य से समाज के पिछडे वर्ग के उत्थान के लिए सरकार द्वारा तैयार की गयी आरक्षण नीति जाति को आधार बनाकर ही तैयार की गयी है । जबकि उसका आधार आर्थिक स्तर होना चाहिए । इस संदर्भ में उन्होनें खासतौर पर दो बातों पर जोर दिया जो भारतीय संविधान के विरूद्व है पहला आर्थिक स्तर को पिछडेपन का मापदण्ड बनाकर ही अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) के अन्तर्गत किये गये विशेष प्रावधान से जातिवादी धारणा को हटाया जा सकता है । दूसरी बात वर्तमान में पिछडे वर्गो के एक खास समूह को ही इस प्रकार के आरक्षण का लाभ मिल रहा है परिणाम स्वरूप जो लोग सामाजिक और शैक्षिक दृषिट से पिछडे हैं और जिन्हें वास्तव में सहायता की आवश्यकता है वे इसके लाभ से वंचित रह गये हैं उन्होंने आगे कहा कि जाति आधार मापदण्ड को समाप्त करके उसके स्थान पर आर्थिक वाली प्रकि्रया का सहारा लिया जाना चाहिए सबसे पहले व्यकित की निर्धनता का स्तर देखा जाना चाहिए उसके बाद उसके सामाजिक और शैक्षिक स्तर का मूल्यांकन किया जाना चाहिए एवम जाति और उपजाति का उल्लेख अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के संदर्भ में व्यकित के पहिचान के लिए ही किया जाना चाहिए ।
    इसी प्रकार इन्द्रासाहनी वाले केस में नौ जजों में से तीन न्यायाधीशों ने माननीय कुलदीप सिंह, माननीय आर0बी0 सहाय और थामस ने मण्डल कमीशन रिपोर्ट को गलत बताया तथा आरक्षण को आर्थिक आधार पर पिछडे वर्ग को परिभाषित किया ।
    न्यायामूर्ति सेन ने ( के0सी0बसंत कुमार बनाम कर्नाटक राज्य एआर्इआर 1985 सप्ली0 714 पैरा 88) में कहा कि योग्यता शर्तो में इस प्रकार ढील दिये जाने से सेवाओं की गुणवत्ता व कुशलता पर विपरीत प्रभाव पडेगा उन्होंने यह भी कहा कि देश को इस सिथति से बचने के लिए संविधान में ंव्यवस्था की जानी चाहिए मैं कहना चाहूगा कि अनुच्छेद 15 (4) और अनुच्छेद 16 (4) में संरक्षणात्मक भेद की व्यवस्था तथा अनुच्छेद 29(2) के प्रावधानों को एक निशिचत सीमा से आगे नहीं ले जाना चाहिए । सरकार जनता की सेवा के लिए है कुछ सेवाएं ऐसी हैं जिनमें कुशलता और विशेषज्ञता आवश्यक होती है ।
    माननीय सेन का यह कहना कि सरकारी अस्पताल, वैज्ञानिक, व्यवसायिक, उडडयन अभियन्ताओं में आरक्षण नहीं होना चाहिए सेन साहब को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वर्तमान समय में यूरेशियन ब्राम्हण शासन प्रशासन में 79 प्रतिशत हैं फिर भी देश के राजनेता, अधिकारी,व्यापारी, व अन्य पैसे वाले लोग अपना इलाज दूसरे देशों में कराते हैं उन्हें भी यूरेशियन ब्राम्हणों पर विश्वास नहीं है इससे साबित होता है कि योग्यता की बात कहना गलत है परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए न्यूनतम अंक पाना सभी को अनिवार्य है और यदि उत्तीर्ण अंक 45 हैं और यदि किसी ने 55 अंक प्राप्त कर लिये तो यह नहीं कहा जा सकता है कि 45 प्रतिशत पाने वाला विधार्थी अयोग्य है । यह योग्यता अथवा श्रेष्ठता यदि यूरेशियन ब्राम्हणों में होती तो देश दुनिया के गरीब देशों की 120वें  स्थान पर नहीं होता ।
    उच्चतम न्यायालय ने एस0पी0 गुप्ता बनाम भारत संघ ( एआर्इआर 1982 सुप्रीम कोर्ट 149 ) इस मामले में केस यह था कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का स्थानान्तरण होना चाहिए अथवा नहीं परन्तु न्यायालय ने जो निर्णय दिया कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुकित किस प्रकार होगी । उसमें निर्णय दिया कि उच्च न्यायालयों की न्यायाधीशों की नियुकित उच्च न्यायालय के कोलेजियम द्वारा नियुकित हेतु नाम सुप्रीम कोर्ट को भेजे जायेगें और सुप्रीमकोर्ट के कोलेजियम द्वारा वह नाम केन्द्र सरकार के पास भेजे जोयेगें और सरकार उन्हीं को उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त करेगी तथा उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुकित हेतु उच्चतम  न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श कर सरकार न्यायाधीशों की नियुकित करेगी यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 124 व 217 के विरूद्व है क्योंकि इन अनुच्छेदों में केन्द्र सरकार उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श कर उच्च न्यायाधीशों की नियुकित का प्रावधान है और इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय में परामर्श कर न्यायाधीशों की नियुकित का भी प्रावधान है । परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में अपनी स्वयं की नियुकित का अधिकार स्वयं ले लिया जो भारतीय संविधान के तो विरूद्व है ही और इस प्रकार दुनिया के किसी भी न्यायालय में नियुकित करने का प्रावधान नहीं है ।
    इसी प्रकार इन्द्रासाहनी वाले केस में उच्चतम न्यायालय ने अपना फैसला भारतीय संविधान के विरूद्व दिया तत्पश्चात सरकार को तीन संविधान संशोधन करने पडे़ और वर्तमान समय पर न्यायाधीशों की नियुकित के विषय में भी आयोग की रिपोर्ट आ चुकी है ।  
    केरल राज्य बनाम एन0एम0 थामस ( 1976 एससीसी 310, 400 पैरा 221 ) में एच0आर0 खन्ना ने आरक्षण का विरोध इस प्रकार किया कि सायद उन्हें ब्राम्हणवादी व्यवस्था द्वारा स्थापित जातिप्रथा और इस व्यवस्था के आधार पर शोषण के विषय में मालुम नहीं है उन्होंने कहा कि मेरे विचार से अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा पिछडे वर्गो की सिथति को सुधारने के लिए हर संभव प्रयास किए जाने की आवश्यकता के विषय पर कोर्इ विवाद नहीं है । इस विषय पर हम सभी एकमत है । इन वर्गो का पिछडापन हमारे समाज के लिए एक बुरार्इ है , जिसे अनुच्छेद 46 के अन्तर्गत मिटाने की बात की गयी है । इसके लिए अतीत में इन वर्गो के साथ किये जाने वाले उपेक्षापूर्ण वर्ताव  और शोषण को समाप्त करने के लिए ठोस  कदम भी उठाने पड सकते हैं, जिनसे उन्हें समाज के अन्य उन्नत वर्गो की बराबरी में लाया जा सके । लेकिन सवाल यह है कि इसके लिए जो तरीका अपनाया गया है, क्या वह अनुच्छेद 16 की धारा (1) के अनुरूप है मेरा ख्याल है कि इस प्रश्न का उत्तर न मेें ही होगा । अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के हितों की रक्षा के साथ साथ हमें यह भी देखना होगा कि कहीं उससे अनुच्छेद 16 की धारा (1) में उलिलखित अवसर की समानता के सिद्वान्त की अनदेखी तो नहीं हो रही है, और कहीं अवसर की समानता का यह सिद्वान्त मृग मरीचिका बनकर तो नहीं रह जाता । यदि अनुच्छेद 16 की धारा (4) में उलिलखित सिद्वान्तों से आगे बढकर इस महत्वपूर्ण सिद्वान्त तक पहुचने का मौका दे दिया गया तो योग्यता कीे सर्वोच्चता सेवाओं की गुणवत्ता और सार्वजनिक रोजगार के क्षेत्र में मौजूद भेदभावहीनता बुरी तरह प्रभावित होगी ।
     इन्द्रा साहनी मामले में न्यायमूर्ति आर.एम. सहाय ने न्यायमूर्ति फजल अली की इस धारणात्मक टिप्पणी जो देश की जनता और संविधान के अनुसार थे का खण्डन किया और साथ ही साथ न्यायमूर्ति मैथ्यू के तर्क का भी खण्डन कर दिया । इस संदर्भ में उन्होंने अनुूच्छेद 16(4) में प्रयुक्त शब्दों की ओर संकेत किया है । यदि संविधान निर्माताओं का उददेश्य किसी समूह या वर्ग के लिए आरक्षण देश की कुल जनसंख्या में उसके अनुपात के अनुसार करने का होता तो वे स्वयं ये शब्द जोड सकते थे  इतना ही नहीं, उन्होंने न्यायमूर्ति मैथ्यू की  आनुपातिक समानता की धारणा की ओर भी संकेत किया है । एन0एम0 थामस मामले में न्यायमूर्ति मैैथ्यू ने दो अमेरिकी मुकदमों गि्रफिन और हार्पर के आधार पर आनुपातिक समानता की धारणा प्रस्तुत की । इनमें से किसी भी मुकदमें के फैसले का सम्बंध सकारात्मक कारवार्इ से नहीं है । एक मामले का सम्बंध एक पांडुलिपि के अनुवाद के लिए पारिश्रमिक की अदायगी से था और दूसरा मामला चुनाव करके समान करारोपण से संबंधित था । अनुच्छेद 16(4) की पृष्ठभूमि और स्पष्ट शब्दावली के संदर्भ में देखा जाए तो अमेरिका के इन मामलों में सामने लाए जाने वाले अनुपात के आधार पर कोर्इ निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता । हमारा संविधान आनुपातिक प्रतिनिधित्व को न तो सेवाओं में मान्यता देता है और न ही संसद में जैसा अनुच्छेद 331 मे ंउल्लेख किया गया है, जिसके अन्तर्गत अगर आंग्ल-भारत समुदाय का उचित प्रतिनिधित्व न हो तो भारत के राष्ट्रपति को राज्यसभा के लिए उनके केवल दो सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार दिया गया है। यहां पर माननीय आर0एम0सहाय की व्याख्या तर्क संगत नहीं है क्योंकि भारतीय संविधान का मकसद जनसंख्या के अनुपात में ही आरक्षण व्यवस्था लागू करने का था । इसीलिए संविधान सभा ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को उनकी जनसंख्या के अनुपात में 22 प्रतिशत आरक्षण दिया है ।
    न्यायामूर्ति ए0सी0 गुप्ता ने भी इसको और आगे बढ़ाया और उन्होंने न्यायमूर्ति गजेन्द्र गडकर द्वारा दी गर्इ आरक्षण विरोधी व्यवस्था का समर्थन किया और कहा कि संविधान में उलिलखित किसी एक आदर्श पर आगे बढते हुए हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा करके हम संविधान के दूसरे आदर्शो की अनदेखी तो नहीं कर रहे हैं ।
    न्यायमूर्ति गजेन्द्र गडकर ने एम0आर0 बाला जी के मामले में कहा कि जब अनुच्छेद 16(4) अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों अथवा अन्य किसी निशिचत वर्ग के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान की बात करता है तो हमें इस तथ्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि जिस प्रावधान की बात की जा
रही है वह एक विशेष प्रावधान के रूप में है । इसका स्वरूप इतना व्यापक नहीं है कि इसके आगे सरकार शेष समाज को उपेक्षित कर दे । वस्तुत: समाज के कमजोर वर्गो के उत्थान से पूरे समाज का हित होगा इसलिए अनुच्छेद 15(4) के अन्तर्गत आ ही नहीं सकता यह मानना बिल्कुल असंगत होगा कि अनुच्छेद 15(4) को लागू करने में संसद का उददेश्य यह बिलकुल नहीं था कि पिछडे वर्गो व अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के उत्थान के आगे शेष समाज के मौलिक अधिकारों को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया जाय।
    न्यायमूर्ति गजेन्द्र गडकर साहब का संविधान की यह व्याख्या करना कि संविधान में दिये गये वंचित समाज को अधिकार सर्वण समाज के अधिकारों में हस्तक्षेप है बलिक भारतीय संविधान में मूलनिवासी समाज को विशेष सुविधाएं देकर उनका प्र्याप्त प्रतिनिधित्व शासन और प्रशासन में सुनिशिचत करना मात्र है  न कि शेष समाज को उनके अधिकारों से वंचित करना । अत: न्यायमूर्ति द्वारा दिया गया उदाहारण संविधान, देश एवम देशवासियों को ध्यान में रखकर नहीं दिया गया ।
    इस देश में यूरेशियन ब्राम्हणों ने वर्ण एवं जाति व्यवस्था का निर्माण अपनी श्रेष्ठता तथा शासक बने रहने के लिए किया और जो न्यायमूर्ति अपने निर्णयों में अनुच्छेद 15 ,16 व 335 की बात कहकर समानता व दक्षता का हवाला देते हैं और आरक्षण का विरोध करते हैं वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16(4),16(4ए),340, 341,342, को ध्यान में रखकर संविधान की व्याख्या नहीं कर रहे हैं । न्यायमूर्तियों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि इस देश में मूलनिवासियों की लगभग तीन सौ पीढियों को न पढने दिया न लिखने दिया न संवाद करने दिया और उन्हें समस्त अधिकारों से वंचित कर शासित और शोषित बनाकर जानवरों से बदतर  जिन्दगी जीने को मजबूर किया और उन्हें जब विशेष सुविधाएं देकर  राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का कार्य हो रहा है तो यूरेशियन ब्राम्हणों को इसलिए अच्छा नहीं लग रहा है क्योंकि उनके खून में अत्याचार, असामनता, उंचनीच व भेदभाव करने का रक्त प्रवाह कर रहा है ।
    जो लोग आज आरक्षण का विरोध कर रहे हैं वह अज्ञान हैं क्योंकि जल, जमीन, जगंल, रोशनी, नदियां, सागर,झरने आदि प्राकृतिक सम्पदा है और उस पर हर व्यकित का बराबर का अधिकार है और इस प्राकृतिक सम्पदा को कोर्इ व्यकित या समाज केवल अपना अधिकार समझता है तो वह केवल मूर्ख की श्रेणी में ही आयेगा और आरक्षण मूलनिवासी समाज का मौलिक अधिकार है ।
                                                 ( एडवोकेट जे0एस0 कश्यप )
                                                     हार्इकोर्ट, इलाहाबाद ।

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