बेरोजगारी की समस्या पर कुछ आंकड़े
• साल २००४-०५ में असंगठित क्षेत्र में खेतिहर कामगारों की तादाद ९८ फीसदी थी।#
• लगभग दो तिहाई(६४ फीसदी) खेतिहर कामगार स्वरोजगार में हैं। इन्हें हम किसान कह सकते हैं। शेष ३६ फीसदी खेतिहर कामगार दिहाड़ी मजदूर हैं।#
• खेती में रोजदार के बढ़ोतरी की दर साल १९८३ से १९९३-९४ के बीच १.४ फीसदी थी जो साल १९९३-९४ से २००४-०५ के बीच घटकर ०.८ फीसदी हो गई।*
• साल १९९३-९४ से २००४-०५ के बीच बेरोजगारी की दर में १ फीसदी का इजाफा हुआ।**
• ग्रामीण पुरुषों में ५८ फीसदी साल १९८३ में स्वरोदगार में थे जबकि साल २००५-०६ में यह तादाद घटकर ५७ फीसदी रह गई।**
• शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में नियमित तनख्वाह पाने वालों में भुगतान के लिहाज से स्त्री-पुरुष के बीच गैर बराबरी है।**
• गोवा(११.३९ फीसदी) और केरल(९.१३ फीसदी) में बेरोजगारी की दर सबसे ज्यादा है और उत्तराखंड(०.४८ फीसदी) तथा छत्तीसगढ़ में सबसे कम।***
# द चैलेंजे ऑव एम्पलॉयमेंट इन इंडिया-एन् इन्फारमल इकॉनामी परस्पेक्टिव, खंड-एक, मुख्य रिपोर्ट, एनसीईयूएस(नेशनल कमीशन फॉर इन्टरप्राइजेज इन ज अनआर्गनाइज्ड सेक्टर), अप्रैल, २००९ http://nceus.gov.in/
* एनसीईयूएस(२००७), रिपोर्ट ऑन कंडीशन ऑव वर्क एंड प्रोमोशन ऑव लाइवलीहुड इन द अन-आर्गनाइज्ड सेक्टर
** एम्पलॉयमेंट एंड अन-एम्पलॉयमेंट सिचुएशन इन इंडिया २००५-०६, नेशनल सैम्पल सर्वे, ६२ वां दौर
*** इंडिया लेबर मार्केट रिपोर्ट २००८, टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साईंसेज और एडको इंस्टीट्यूट,लंदन द्वारा प्रस्तुत
एक नजर
सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर लगातार ऊंची बनी होने के बावजूद भारत अपनी ग्रामीण जनता की जरुरत के हिसाब से मुठ्ठी भर भी नये रोजगार का सृजन नहीं कर पाया है। नये रोजगारों का सृजन हो रहा है लेकिन यह अर्थव्यवस्था के ऊंचली पादान के सेवा-क्षेत्र मसलन वित्त-जगत, बीमा, सूचना-प्रौद्योगिकी और सूचना प्रौद्योगिकी के दम पर चलने वाले हलकों में हो रहा है ना कि विनिर्माण और आधारभूत ढांचे के क्षेत्र में जहां ग्रामीण इलाकों से पलायन करके पहुंचे कम कौशल वाले लोगों को रोजगार हासिल करने की उम्मीद हो सकती है। किसी तरह घिसट-खिसट करके चलने वाली ग्रामीण अर्थव्यवस्था, ग्रामीण इलाकों के कुटीर और शिल्प उद्योगों का ठप्प पड़ना, घटती खेतिहर आमदनी और मानव-विकास के सूचकांकों से मिलती खस्ताहाली की सूचना-ये सारी बातें एकसाथ मिलकर जो माहौल बना रही हैं उसमें ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी को बढ़ना तो है ही, शहरों की तरफ ग्रामीण जनता का पलायन भी होना है।
अर्थव्यवस्था के मंदी की चपेट में आने से पहले भी नये रोजगार का सृजन नकारात्मक वृद्धि के रुझान दिखा रहा था।नेशनल कमीशन फॉर इंटरप्राइजेज इन द अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर(एनसीईयूस) के मुताबिक खरबों डॉलर की हमारी इस अर्थव्यवस्था में हर 10 में 9 व्यक्ति असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और कुल भारतीयों का तीन चौथाई हिस्सा रोजाना 20 रुपये में गुजारा करता है। बहुत से अर्थशास्त्री तर्क देते हैं कि गांवों से शहरों की तरफ पलायन अर्तव्यवस्था की तरक्की के लिहाज से एक जरुरी शर्त है। बहरहाल, वैश्विक अर्थव्यवस्था के भीतर भारत कम लागत के तर्क से अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रहा है और इससे आमदनी में कम बढ़ोतरी का होना लाजिमी है। ऐसे में चूंकि क्रयशक्ति मनमाफिक नहीं बढ़ रही इसलिए घरेलू मांग में बढोतरी ना होने के कारण नये रोजगारों का सृजन भी खास गति से नहीं हो रहा।
आंकड़ों से जाहिर होता है कि वांछित लक्ष्य तक पहुंचने की जगह रोजगार के मामले में हमारी गाड़ी उलटे रास्ते पर लुढ़कने लगी है।मिसाल के तौर पर साल साल 1994 से 2005 के बीच के दशक में बेरोजगारी में प्रतिशत पैमाने पर 1 अंक की बढ़ोतरी हुई है। अस्सी के दशक के शुरुआती सालों से लेकर 2005 के बीच ग्रामीण पुरुषों में स्वरोजगार प्राप्त लोगों की तादाद 4 फीसदी कम हुई है।आंकड़ों से जाहिर है कि घटती हुई आमदनी के बीच कार्यप्रतिभागिता के मामले में ग्रामीण गरीब एक दुष्चक्र में फंस चुके हैं।
आंकड़ों से यह भी जाहिर होता है कि अस्सी के दशक के शुरुआती सालों से ग्रामीण इलाकों की महिलाओं के लिए रोजगार की सूरते हाल या तो ज्यों की त्यों ठहरी हुई है या फिर और बिगड़ी दशा को पहुंची है। एक तो किसानों की आमदनी खुद ही कम है उसपर गजब यह कि इस आमदनी का 45 फीसदी हिस्सा कृषि-इतर कामों से हासिल होता है और कृषि-इतर काम कहने से बात थोड़ी छुपती है मगर सीधे सीधे कहें तो यह दिहाड़ी मजदूरी का ही दूसरा नाम है। मजदूरी भी कम मिलती है क्योंकि गांव के दरम्याने में जो भी काम करने को मिल जाय किसानों को उसी से संतोष करना पड़ता है। फिलहाल केवल 57 फीसदी किसान स्वरोजगार में लगे हैं और 36 फीसदी से ज्यादा मजदूरी करते हैं। इस 36 फीसदी की तादाद का 98 फीसदी दिहाड़ी मजदूरी के भरोसे है यानी आज काम मिला तो ठीक वरना आसरा कल मिलने वाले काम पर टिका है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण यानी नेशनल सैंपल सर्वे की भारत में रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति पर केंद्रित ६२ वें दौर की गणना के अनुसार-
साल १९९३-९४ से तुलना करें तो एक दशक बाद यानी २००५-०६ में बेरोजगारी की दर में प्रतिशत पैमाने पर एक अंक की बढो़त्तरी हुई।शहरी इलाके में रोजगारयाफ्ता महिलाओं के मामले में स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया।
ग्रामीण इलाके में साल २००४-०५ और २००५-०६ के बीच वर्क पार्टिसिपेशन रेट,पुरूषों के मामले में ५५ फीसदी पर स्थिर रहा जबकि महिलाओं के मामले में इसमें प्रतिशत पैमाने पर २ अंको की कमी आयी।एक साल के अंदर महिलाओं के मामले में वर्क पार्टिसिपेशन रेट ३३ फीसदी से घटकर ३१ फीसदी पर आ गया।
ग्रामीण इलाके में, स्वरोजगार में लगे पुरूषों का अनुपात साल १९८३ में ६१ फीसदी था जबकि दो दशक बाद साल २००५-०६ में यह अनुपात घटकर ५७ फीसदी रह गया। स्वरोजगार में लगी महिलाओं के मामले में स्थिरता रही।साल १९८३ में स्वरोजगार में लगी महिलाओं का अनुपात ६२ फीसदी था और २००५-०६ में यही अनुपात कायम रहा।
असंगठित क्षेत्र को आधार माने तो ग्रामीण इलाके में ३५ फीसदी और शहरी इलाके में १८ फीसदी कार्य-दिवसों को महिलाओं को रोजगार नहीं मिला।ग्रामीण इलाके में ११ फीसदी और शहरी इलाके में ५ फीसदी कार्य-दिवसों में पुरूषों को रोजगार नहीं मिला।
ग्रामीण इलाके में अर्थव्यवस्था के द्वितीयक क्षेत्र (खनन और खादान की खुली कटाई समेत) में काम करने वाले पुरूषों के अनुपात में बढोत्तरी हुई है।१९८३ में अर्थव्यवस्था के द्वितीयक क्षेत्र (खनन और खादान की खुली कटाई समेत) में काम करने वाले पुरूषों का अनुपात १० फीसदी था जो साल २००५-०६ में बढ़कर १७ फीसदी हो गया।महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा इस अवधि में ७ फीसदी से बढ़कर १२ फीसदी पर पहुंच गया।
ग्रामीण इलाके में १५ साल और उससे ऊपर की उम्र के केवल ५ फीसदी लोगों को लोक-निर्माण के हलके में काम हासिल है।इस आयु वर्ग के ७ फीसदी लोग काम की तलाश में हैं लेकिन उन्हें काम नहीं मिलता जबकि ८८ फीसदी लोक-निर्माण के कार्यो में रोजगार की तलाश भी नहीं करते।अगर लोक-निर्माण के कार्यों में ग्रामीण इलाके के पुरूषों को हासिल रोजगार के लिहाज से इस आंकड़े को देखें तो केवल ६ फीसदी पुरूषों को रोजगार हासिल है,८ फीसदी लोक-निर्माण के कार्यों में रोजगार खोजते हैं लेकिन उन्हें हासिल नहीं होता जबकि ८५ फीसदी लोक-निर्माण के कार्यों में रोजगार की तलाश तक नहीं करते।महिलाओं के मामले में यही आंकड़ा क्रमशः ३,६, और ९१ फीसदी का है।
लोक-निर्माण के अंतर्गत आने वाले कामों में रोजगार पाने वाले व्यक्तियों का अनुपात प्रति व्यक्ति मासिक व्यय (एमपीसीई-मंथली पर कैपिटा एक्पेंडिचर) की बढ़ोत्तरी के साथ घटा है।यह बात स्त्री और पुरूष दोनों के मामले में देखी जा सकती है।प्रति व्यक्ति मासिक व्यय यानी एमपीसीई के सबसे ऊंचले दर्जे (६९० रूपये और उससे ज्यादा) में आने महज २ फीसदी पुरूषों को लोक-निर्माण के कार्यों में रोजगार हासिल था जबकि एमपीसीई के सबसे निचले दर्जे(३२० रूपये और उससे कम) के ९ फीसदी पुरूषों को, यानी एमपीसीई के ऊपरले दर्जे की तुलना में एमपीसीई के निचले दर्जे के लगभग ५ गुना ज्यादा पुरूषों को लोक-निर्माण के कामों में रोजगार हासिल था।महिलाओं के मामले में यही आंकड़ा एमपीसीई के ऊपरले दर्जे में १ फीसदी और एमपीसीई के निचले दर्जे में ४ फीसदी का है,यानी दोनों के बीच का अंतर ४ गुना है।
लोक-निर्माण के कार्यों में पिछले ३६५ दिनों (साल २००५-०६) स्त्री और पुरूषों को लोक-निर्माँण के काम औसतन क्रमशः १८ और १७ कार्यदिवसों को रोजगार हासिल हुआ।पिछले ३६५ दिनों (साल २००५-०६) में एमपीसीई के ऊपरले दर्जे (६९० रूपये और उससे ज्यादा) में आने वाले पुरूषों को सबसे ज्यादा कार्यदिवसों (२४ दिन) को रोजगार हासिल हुआ जबकि इसी अवधि में एमपीसीई के बिचले दर्जे (५१०-६९० रूपये) की महिलाओं को लोक-निर्माण के कार्यों में सबसे ज्यादा कार्यदिवसों (२३ दिन) को रोजगार हासिल हुआ।
श्रम और रोजगार मंत्रालय के लेबर ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट ऑन एम्पलॉयमेंट एंड अनएम्पलॉयमेंट सर्वे (2009-10) के अनुसार
http://labourbureau.nic.in/Final_Report_Emp_Unemp_2009_10.pdf:
• लेबर ब्यूरो द्वारा तैयार हालिया एम्पलॉयमेंट-अनएम्पलॉयमेंट सर्वे 28 राज्यों-केंद्रशासित प्रदेशों का है जहां देश की कुल 99 फीसदी आबादी रहती है।
• इस सर्वे में कुल 45,859 परिवारों के 2,33,410 लोगों के साक्षात्कार लिए गए।
• इस सर्वे में 1.4.2009 से 31.3.2010 की अवधि तक की सूचनाएं जुटायी गई हैं।
• सर्वे के अनुसार रोजगार में लगे कुल लोगों में 45.5 फीसदी किसानी,मत्स्य-पालन और वनोपज एकत्र करने के कामों में लगे हैं। रोजगार में लगे केवल 8.9 फीसदी लोग ही मैन्युफैक्चरिंग में हैं जबकि 7.5 फीसदी कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में।
• ग्रामीण इलाकों में कामगार आबादी का 57.6 फीसदी हिस्सा खेती-किसानी के काम में लगा है, 7.2 फीसदी हिस्सा कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में और 6.7 फीसदी हिस्सा मैन्युफैक्चरिंग(विनिर्माण) में।
• शहरी इलाके में 9.9 फीसदी कामगार आबादी खेती-किसानी में लगी है,. 8.6 फीसदी कामगार आबादी कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में जबकि 15.4 फीसदी मैन्युफैक्चरिंग के काम में। कामगार आबादी का तकरीबन 17.3 फीसदी हिस्सा होलसेल, रिटेल आदि के कामों में लगा है।
• सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि खेती-किसानी का क्षेत्र ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में कोई अतिरिक्त रोजगार का सृजन नहीं करने वाला।बहरहाल विनिर्माण-क्षेत्र में रोजगार के 4 फीसदी की दर से बढ़ने की संभावना जतायी गई है जबकि सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में परिवहरन और संचार(ट्रान्सपोर्ट एंड क्म्युनिकेशन) के क्षेत्र में रोजगार की बढ़ोत्तरी क्रमश 8.2 और 7.6 फीसदी की दर से हो सकती है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में कुल श्रमशक्ति में साढ़े चार करोड़ का इजाफा होने की संभावना है। इसके बरक्स योजना में, 5 करोड़ 80 लाख की तादाद में रोजगार सृजन का लक्ष्य रखा गया है। उम्मीद की गई है कि इससे बरोजगारी की दर 5 फीसदी पर रहेगी। बहरहाल, मौजूदा सर्वे के परिणामों से जाहिर होता है कि अखिल भारतीय स्तर पर श्रमशक्ति का 9.4 फीसदी हिस्सा बेरोजगार है। राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को एक साथ मिलाकर भारत में बेरोजगारों की तादाद 4 करोड़ बैठती है।
• अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो बरोजगारों में सर्वाधिक(80 फीसदी) ग्रामीण क्षेत्र से हैं।
• ग्रामीण भारत में बेराजगारी की दर 10.1 फीसदी है जबकि शहरी भारत में 7.3 फीसदी। पुरुषों में बेरोजगारी दर 8.0 फीसदी की है जबकि महिलाओं में 14.6 फीसदी की।
• लेबर ब्यूरो सर्वे (2009-10) और एनएसएसओ द्वारा किए गए एम्पलॉयमेंट-अनएम्पलॉयमेंट सर्वे(2007-08) के आंकड़ों की आपसी तुलना से जाहिर होता है कि लेबर ब्यूरो के सर्वे में बेरोजगारी की दर ज्यादा बतायी गई है। कुल बेरोजगारी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा एनएसएसओ की तुलना में 10 फीसदी ज्यादा मानने के कारण ऐसा हो सकता है।
• सर्वे के नतीजों से पता चलता है कि 1000 लोगों में 351 आदमी रोगारशुदा हैं, 36 लोग बेरोजगार हैं जबकि 613 लोग ऐसे हैं जिनकी श्रमशक्ति के भीतर गिनती नहीं की जाती। रोजगारशुदा कुल 351 लोगों में 154 लोग स्वरोजगार की श्रेणी में हैं, 59 लोग नियमित वेतनभोगी की श्रेणी में जबकि 138 लोग ऐसे हैं जिन्हें दिहाड़ी मजदूर कहा जा सकता है। ग्रामीण इलाके में 1000 लोगों की तादाद में 356 लोग रोजगारशुदा की श्रेणी में हैं, 40 लोग बेरोजगार की कोटि में जबकि 604 लोग ऐसे हैं जिनकी गणना श्रमशक्ति में नहीं की जाती। शहरी इलाके में प्रति 1000 व्यक्तियों में रोजगारप्राप्त व्यक्तियों की तादाद 335 है, बेरोजगारी की संख्या 27 और 638 जने ऐसे हैं जिनकी गिनती श्रमशक्ति में नहीं की जाती।
• शहरी क्षेत्र में 86 फीसदी और ग्रामीण इलाके में 81 फीसदी महिलायें ऐसी हैं जिनकी गिनती श्रमशक्ति में नहीं की जाती।
• सर्वे के अनुसार स्वरोजगार में लगे लोगों में ज्यादातर खेती-किसानी के काम से जुड़े हैं(प्रति 1000 में 572) जबकि थोक और खुदरा व्यापार करने वालों की तादाद स्वरोजगार करने वाली कोटि के भीतर प्रति हजार व्यक्ति में 135 है।
• नियनित वेतनभोगियों की श्रेणी में देखें तो पता चलता है कि ज्यादातर कम्युनिटी सर्विसेज से जुड़े( प्रति 1000 में 227) लोग हैं जबकि विनिर्माण क्षेत्र से जुड़े लोगों की तादाद प्रति हजार नियमित वेतनभोगियों में 153 है।
• दिहाड़ी मजदूरी करने वालों में सर्वाधिक तादाद खेतिहर मजदूर, मछली मारने या वनोपज से जीविका चलाने वालों की (दिहाड़ी कमाने वाले प्रति हजार व्यक्ति में से 467 व्यक्ति) है जबकि कंस्ट्रक्सन के काम में लगे ऐसे व्यक्तियों की तादाद प्रति हजार में 148 है।
• सर्वे के अनुसार रोजगार-प्राप्त लोगों में ज्यादातर वैसे उद्यमों में काम करते हैं जिन्हें प्रोपराइटी टाईप कहा जाता है। ऐसे उद्यमों में रोजगार-प्राप्त लोगों की प्रति हजार संख्या में 494 वयक्ति ऐसे उद्यमों में काम करते हैं जबकि सार्वजनिक या फिर निजी क्षेत्र की लिमिटेड कंपनियों में काम करने वालों की तादाद ऐसे लोगों में प्रतिहजार पर 200 है।
• सर्वे के आंकड़ों से पता चलता है कि रोजगार प्राप्त प्रतिहजार व्यक्तियों में केवल 157 लोगों को ही पेड़-लीव की सुविधा मिलती है। कम्युनिटी सर्विसेज ग्रुप में प्रति हजार व्यक्तियों में 443 लोगों को पेड़-लीव की सुविधा है जबकि खेती-किसानी,वानिकी या फिर मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों में रोजगार प्राप्त लोगों में 1000 में 54 व्यक्तियों को ही यह सुविधा हासिल हो पाती है।
• जहां तक प्राविडेन्ट फंड, ग्रेच्युटी, स्वास्थ्य सुविधा और मेटरनिटी बेनेफिट जैसी सुविधाओं का सवाल है विभिन्न उद्यमों में काम करने वाले प्रति हजार व्यक्तियों में से मात्र 163 ने कहा कि उन्हें इनमें से कुछ ना कुछ सुविधा मिलती है। कम्युनिटी सर्विसेज ग्रुप के सर्वाधिक लोगों(प्रति हजार में 400) ने कहा कि हमें ऐसी सुविधा मिलती है जबकि खेती-किसानी में रोजगार प्राप्त लोगों में से मात्र 82 लोगों(प्रति 1000 में) ने कहा कि उन्हें इनमें से कुछ ना कुछ सुविधा हासिल होती है।
असंगठित क्षेत्र में रोजगार की स्थिति से संबंधित राष्ट्रीय आयोग यानी नेशनल कमीशन फॉर द इन्टरप्राइजेज इन द अन-आर्गनाइज्ड सेक्टर(एनसीईयूएस) के दस्तावेज-रिपोर्ट ऑन द कंडीशन ऑव वर्क एंड प्रोमोशन ऑव लाइवलीहुड इन द अन-आर्गनाइज्ड सेक्टर के अनुसार,
http://nceus.gov.in/Condition_of_workers_sep_2007.pdf
· खेत-मजदूरों की संख्या साल २००४-०५ में ८ करोड़ ७० लाख थी यानी किसानों और खेत-मजदूरों की कुल संख्या(२५ करोड़ ३० लाख) में खेत-मजदूरों की तादाद ३४ फीसदी थी।
· दैनिक रोजगार के आधार पर देखें तो खेत-मजदूरों में बेरोजगारी की स्थिति भयावह है।१६ फीसदी पुरूष खेत-मजदूर और १७ फीसदी महिला खेत-मजदूर बेरोजगार हैं।
· साल १९९३-९४ और २००४-०५ के बीच खेत-मजदूरों के बीच छुपी हुई बेरोजगारी(अंडरएंप्लॉयमेंट) बढ़ी है।साल २००५-०६ में खेत-मजदूरों के बीच बेरोजगारी १६ फीसदी थी।
· खेत-मजदूरों को मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी कितनी हो–इसके बारे में बस एक ही कानूनी प्रावधान है।यह प्रावधान मिनिमम वेजज एक्ट,१९४८(न्यूनतम मजदूरी अधिनियम,१९४८) के नाम से जाना जाता है।साल २००४-०५ में खेत-मजदूरों ने जितने दिन काम किया उसमें लगभग ९१ फीसदी कार्यदिवसों को उन्हें राष्ट्रीय स्तर की न्यूनतम मजदूरी से कहीं कम मेहनताना हासिल हुआ जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के लिए एनसीआरएल (एनसीयूएस के दस्तावेज में एनसीआरएल के बारे में जानकारी देते हुए कहा गया है कि-१९९१ में हनुमंत राव की अध्यक्षता में एक आयोग नेशनल कमीशन ऑन रूरल लेबर नाम से बना था।इस आयोग ने ग्रामीण इलाके के लिए एक राष्ट्रीय स्तर पर लागू होने वाली एक आभासी न्यूनतम मजदूरी की अनुशंसा की थी।आयोग ने यह भी कहा था कि ग्रामीण क्षेत्र के मजदूरों को सरकार सामाजिक सुरक्षा के फायदों के तौर पर वृद्धावस्था पेंशन,जीवन बीमा,मेटरनिटी बेनेफिट और काम के दौरान दुर्घटना की स्थिति में मुआवजा फराहम करे।) द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के मानक को आधार मानें तो साल २००४-०५ में खेत-मजदूरों ने जितने दिन काम किया उसमें लगभग ६४ फीसदी कार्यदिवसों को उन्हें कम मेहनताना हासिल हुआ।.
· खेतिहर कामगारों(खेतिहर मजदूर और किसान) की संख्या साल २००४-०५ में २५ करोड़ ९० लाख थी।देश की कुल श्रमशक्ति में खेतिहर कामगारों की तादाद ५७ फीसदी है।इनमें २४ करोड़ ९० लाख ग्रामीण इलाकों में रहते हैं।इस तरह यह संख्या कुल ग्रामीण श्रमशक्ति (३४ करोड़ ३० लाख) के ७३ फीसदी के बराबर बैठती है।ग्रामीण इलाके की अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र के रोजगार में इनकी हिस्सेदारी ९६ फीसदी की और असंगठित कृषि-क्षेत्र के रोजगार में इनकी हिस्सेदारी ९८ फीसदी की है।
· लगभग दो तिहाई(६४ फीसदी) खेतिहर कामगार स्वरोजगार में लगे हैं,या कहें फिर कह लें कि ग्रामीण श्रमशक्ति जो हिस्सा स्वरोजगार में लगा है वह मूलतः किसान है और बाकि एक तिहाई यानी ३६ फीसदी जीविका के लिए मजदूरी पर निर्भर है और जीविका के लिए मजदूरी पर निर्भर कामगारों में ९८ फीसदी अनियमित मजदूर हैं।
· देश के कुल कामगारों में खेतिहर कामगारों की तादाद साल २००४-०५ में ५६.६ फीसदी थी जबकि साल १९८३ में कुल कामगारों में इनकी तादाद ६८.६ फीसदी थी।इस तरह पिछले २० सालों कुल कामगारों में खेतिहर कामगारों की तादाद में कमी आयी है।ग्रामीण इलाकों में खेतिहर कामगारों की तादाद ८१.६ फीसदी थी।यह संख्या २००४-०५ में घटकर ७२.६ फीसदी रह गई।
·खेतिहर श्रमशक्ति में किसानों की संख्या ज्यादा है,हालांकि प्रतिशत पैमाने पर धीरे-धीरे इनकी संख्या में कमी आयी है।साल १८८३ में खेतिहर श्रमशक्ति में किसानों की संख्या ६३.५ फीसदी थी जबकि साल १९९९-२००० में घटकर ५७.८ फीसदी हो गई।
· साल १९८३-१९८४ और साल १९९३-९४ के बीच की अवधि यानी एक दशक पर नजर रखकर रोजगार की बढ़ोत्तरी की दर की तुलना करें तो पता चलेगा कि खेतिहर रोजगार में पिछले एक दशक में कमी आयी है।जहां साल १९८३-१९८४ में खेतिहर रोजगार में बढ़ोत्तरी की दर १.४ फीसद थी वहीं एक दशक बाद यह दर घटकर ०.८ फीसदी रह गई। हालांकि सकल रोजगार में भी इस अवधि में २.१ फीसदी के मुकाबले १.९ फीसदी की गिरावट आयी लेकिन सकल रोजगार में गिरावट की तुलना में खेतिहर रोजगार में गिरावट की रफ्तार कहीं ज्यादा रही।
· साल १९९३-९४ में भूमिहीन परिवारों की संख्या १३ फीसदी थी जबकि साल २००४-०५ में भूमिहीन परिवारों की संख्या बढ़कर १४.५ फीसदी हो गई।साल २००४-०५ में खेतिहर मजदूरों में १९.७ फीसदी मजदूर भूमिहीन थे जबकि ६० फीसदी से ज्यादा खेतिहर मजदूरों के पास ०.४ हेक्टेयर से भी कम जमीन थी और इनकी संख्या में इस पूरी अवधि में खास बदलाव नहीं आया। ज्यादातर,भूमिहीनता या फिर जमीन के बड़े छोटे टुकड़े पर स्वामित्व होने के कारण ग्रामीण इलाकों में लोग अपने भरण-पोषण के लिए मजदूरी करने को बाध्य होते हैं।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साइंसेज और एडको इंस्टीट्यूट,लंदन द्वारा तैयार द इंडिया लेबर मार्केट रिपोर्ट(२००८) में भारत में मौजूद बेरोजगारी और छुपी हुई बेरोजगारी की स्थिति के बारे में कहा गया है कि
http://www.macroscan.org/anl/may09/pdf/Indian_Labour.pdf
· भारत में ग्रामीण इलाके के व्यक्ति की तुलना में शहरी इलाके के व्यक्ति के लिए बेरोजगारी की दर कहीं ज्यादा है।शहरी महिलाओं में बेरोजगारी की दर ९.२२ फीसदी है जबकि ग्रामीण महिलाओं में यह दर ७.३१ फीसदी है।
· बेरोजगारी की प्रकृति का आकलन राज्यवार करें तो पता चलेगा कि गोवा और केरला जैसे तुलनात्मक रूप से विकसित राज्यों में बेरोजगारी की दर कहीं ज्यादा है।गोवा में बेरोजगारी की दर ११.३९ फीसदी और केरल में ९.१३ फीसदी है।बेरोजगारी की न्यूनतम दर अपेक्षाकृत कम विकसित राज्यों मसलन उत्तरांचल(०.४८ फीसदी) और छत्तीसगढ़(०.७७ फीसदी) में है।
· दस से चौबीस साल के आयुवर्ग में सबसे ज्यादा लोग बेरोजगार हैं।इससे यह धारणा बलवती होती है कि भारत में युवाओं में बेरोजगारी बढ़ रही है।
· रिपोर्ट का आकलन है कि बेरोजगारी की दर और व्यक्ति के शिक्षा-स्तर में संबंध है।अगर व्यक्ति का शिक्षा-स्तर ज्यादा है तो बेरोजगारी की दर भी उसके लिए ज्यादा है।जिन व्यक्तियों ने माध्यमिक स्तर से ज्यादा ऊंची शिक्षा हासिल की है उनके बीच बेरोजगारी की दर इससे कम दर्जे शिक्षा हासिल करने वालों की तुलना में कहीं ज्यादा है।ग्रामीण और शहरी दोनों ही इलाकों में शिक्षित महिलाओं के बीच बेरोजगारी की दर सबसे ज्यादा है।
· छुपी हुई बेरोजगारी की स्थिति के बारे में रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं के बीच छुपी हुई बेरोजगारी की स्थिति कहीं ज्यादा है और खासतौर पर यह बात ग्रामीण इलाके की महिलाओं पर लागू होती है।
· स्वरोजगार और दिहाड़ी मजदूरी में लगे लोगों के बीच छुपी हुई बेरोजगारी की स्थिति कहीं ज्यादा सघन है।इसकी तुलना में वेतनभोगी कर्मचारियों अथवा नियमित मजदूरी पर लगे लोगों के बीच छुपी हुई बेरोजगारी ना के बराबर है।
स्वरोजगार
स्वरोजगार में लगे लोगों की तादाद राज्यवार ३० फीसदी से लेकर ७० फीसदी तक है।आकलन से पता चलता है कि अपेक्षाकृत कम विकसित राज्य मसलन बिहार(६१ फीसदी),उत्तरप्रदेश(६९ फीसदी)राजस्थान(७० फीसदी)में स्वरोजगार में लगे लोगों की संख्या ज्यादा है।अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित राज्यों मसलन केरल (४२ फीसदी),दिल्ली(३८ फीसदी) और गोवा में (३४ फीसदी) कम संख्या में लोग स्वरोजगार में लगे हैं।
स्वरोजगार में लगे लोगों में शहरी लोगों की संख्या कम और ग्रामीण लोगों की संख्या ज्यादा है।
स्वरोजगार में लगे लोगों में कम शिक्षा-स्तर वाली महिलाओं का अनुपात पुरूषों की अपेक्षा ज्यादा है।कुल मिलाकर देखें तो स्वरोजगार में लगे लोगों में अधिकांस कम शिक्षा-स्तर वाले हैं।
अगर स्वरोजगार में लगे लोगों की संख्या को अर्थव्यवस्था के क्षेत्रवार देखें तो मजर आएगा कि खेती में सबसे ज्यादा लोगों को स्वरोजगार हासिल है।इसका बाद नंबर आता है व्यापार का।खेती और व्यापार में कुल मिलाकर कुल तीन-चौथाई लोग स्वरोजगार में लगे हैं।
अनियमित यानी दिहाड़ी मजदूरी का बाजार
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ६२ वें दौर की गणना को आधार मानकर ऊपर्युक्त रिपोर्ट में कहा गया है कि ३१ फीसदी रोजगार दिहाड़ी श्रम बाजार में हासिल है और इस श्रम बाजार में महिलाओं की प्रतिभागिता पुरूषों की तुलना में ज्यादा है।
दिहाड़ी श्रम बाजार में रोजगार हासिल करने वाले ग्रामीण स्त्री और पुरूष के आयु वर्ग में ज्यादा फर्क नहीं है जबकि दिहाड़ी पर खटने वाले शहरी इलाके के पुरूषों के मामले में बाल श्रमिकों (आयुवर्ग ५ से ९) की संख्या ज्यादा है।
दिहाड़ी श्रम बाजार में ३४ साल तक की उम्र के मजदूरों को रोजगार के कहीं ज्यादा अवसर उपलब्ध हैं।इस आयु के बाद दिहाड़ी श्रम बाजार में उनको हासिल रोजगार के अवसरों में कमी देखी गई है।
दिहाड़ी मजदूरी के बाजार में शिक्षा के बढ़ते स्तर के साथ प्रतिभागिता में कमी देखी जा सकती है।दिहाड़ी मजदूरों का अधिकतर हिस्सा या तो अशिक्षित है या फिर उसे प्राथमिक स्तर की शिक्षा हासिल हुई है।
खेती में दिहाड़ी मजदूरों की तादाद के ७० फीसदी हिस्से को रोजगार हासिल है।इसके बाद सबसे ज्यादा तादाद में दिहाड़ी मजदूर उद्योग और सेवा-क्षेत्र में लगे हैं।अपेक्षाकृत विकसित राज्यों मसलन महाराष्ट्र, कर्नाटक,तमिलनाडु और पंजाब में खेती में दिहाड़ी मजदूरों की तादाद कहीं ज्यादा है जबकि अपेक्षाकृत कम विकसित राज्यों मसलन राजस्थान,झारखंड,उत्तरप्रदेश और उत्तरांचल में उद्योग-क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूरों की संख्या खेती में लगे दिहाड़ी मजदूरों की संख्या से ज्यादा है।
कम विकसित राज्यों में उद्योग क्षेत्र के अंदर विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) दिहाड़ी मजदूरों की संख्या ज्यादा है।कंस्ट्रक्शन के अंतर्गत रोजगार पाने वाले दिहाड़ी मजदूरों की संख्या भी कम विकसित राज्यों में अपेक्षाकृत ज्यादा है।
आबादी जो श्रमबाजार में प्रतिभागी नहीं है-
जो आबादी श्रमशक्ति में प्रतिभागी नहीं है उसमें महिलाओं की संख्या पुरूषों की तुलना में बहुत ज्यादा है।
ग्रामीण इलाके की महिलाओं की तुलना में शहरी इलाके की महिलाएं कहीं ज्यादा तादाद में श्रमबाजार से बाहर हैं।जहां अधिकांश राज्यों के ग्रामीण इलाके में ६० से ७० फीसदी महिलाएं श्रमबाजार से बाहरह हैं वहीं शहरी इलाकों की महिलाओं के बीच यह आंकड़ा ८० फीसदी का है।
२५ से ५९ साल के आयुवर्ग की महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा (४७ से ५७ फीसदी तक) श्रमबाजार से बाहर है जबकि इस आयुवर्ग के पुरूषों के बीच यह आंकड़ा तुलनात्मक रूप से ना के बराबर(१ से ९ फीसदी) बैठता है।इसके अतिरिक्त श्रमबाजार से बाहर रहने वाली महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं का है।स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त लगभग ६८ फीसदी महिलाएं श्रमबाजार से बाहर हैं जबकि इसी शिक्षास्तर के १३ फीसदी पुरूष श्रमबाजार से बाहर हैं।स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा हासिल कर चुकी ५३ फीसदी महिलाएं श्रमबाजार से बाहर हैं जबकि इसी शिक्षास्तर के १० फीसदी पुरूष श्रमबाजार से बाहर हैं।
महिलाओं की एक बड़ी तादाद घरेलू कामकाज के कारण श्रमबाजार से बाहर है।२५ से २९ साल के कामकाजी आयुवर्ग में भी श्रमबाजार से बाहर रह जाने वाली महिलाओं की तादाद ६० फीसदी है।ये आंकड़े ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों की महिलाओं पर लागू होते हैं।
श्रमबाजार से बाहर रह जाने वाली महिलाओं की संख्या दिल्ली में सबसे ज्यादा(९२.१० फीसदी) है।इस मामले में छत्तीसगढ़ दूसरे पादान पर है जहां ८९.५० फीसदी महिलाएं श्रमबाजार से बाहर हैं।इस मामले में सबसे अच्छी स्थिति हिमाचल प्रदेश की है।वहां सिर्फ ५१.७० फीसदी महिलाएं श्रमबाजार से बाहर हैं।
शारीरिक रूप से विकलांग माने जाने वाले व्यक्तियों में ज्यादा तादाद (४० फीसदी) २५ से ४० साल के आयुवर्ग में आने वाले पुरूषों की है और ग्रामीण इलाके में यह आंकड़ा इससे भी ज्यादा का है।इस कोटि में आने वाले अधिकांश लोग अशिक्षित हैं।
जहां तक भीख मांगने वाले और यौनकर्मियों का सवाल है,उनकी १९ फीसदी आबादी ५ से ९ साल के आयुवर्ग की है जबकि इस कोटि में आने वाले ३५ फीसदी व्यक्ति ६० साल या उससे ज्यादा उम्र के हैं।इनमें अधिकतर अशिक्षित हैं।
अर्थव्यवस्था के उभरते हुए हलको में रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति-
· अर्थव्यवस्था के उभरते हुए क्षेत्रों पर नजर डालें तो एक बड़ी तादाद लेबर मार्केट के रीटेल सेक्टर(लेबर मार्केट में इसका हिस्सा लगभग साढे़ ७ फीसदी है) में रोजगारयाफ्ता दीखेगी।अर्थव्यवस्था के इस सेक्टर में लेबर मार्केट का संगठित क्षेत्र भी शामिल है और असंगठित क्षेत्र भी।
·भू-निर्माण यानी कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री लेबर मार्केट का दूसरा बड़ा हिस्सा(५.९ फीसदी) है।इस सेक्टर में सबसे ज्यादा रोजगार पुरूषों को हासिल है और इसका विस्तार शहरों में ज्यादा है।लगभग ८.७ फीसदी शहरी और ५ फीसदी ग्रामीण मजदूरों को इस सेक्टर में रोजगार हासिल है।
· परिवहन यानी ट्रान्सपोर्ट सेक्टर में पुरूष मजदूरो की तादाद ७.५ फीसदी है जबकि महिलाओं की ०.१ फीसदी।भारत के ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में ये बात देखी जा सकती है।
· ग्रामीण इलाके में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में रोजगार ना के बराबर हासिल है।अर्थव्यवस्था का यह क्षेत्र अपनी प्रकृति में शहरी है और इसमें पढ़े-लिखे तथा उच्चे कौशल वाले लोगों की जरूरत है।आईटी यानी सूचना प्रौद्योगिकी और सॉप्टवेयर के समान मीडिया और फार्मास्यूटिकल्स में भी रोजगार की स्थिति शहरी वर्चस्व की सूचना देती है।
· स्वास्थ्य सुविधाओं और हॉस्पिटेलिटी के सेक्टर में महिलाओं को बाकी की अपेक्षा कहीं ज्यादा रोजगार हासिल है।
· साल २००८ के अक्तूबर से दिसबंर के बीच खनन,सूती वस्त्र-उद्योग,धातुकर्म,रत्न और आभूषण उद्योग,ऑटोमोबाइल तथा बीपीओ-आईटी जैसे क्षेत्रों में हासिल रोजगार में १.०१ फीसदी की कमी आयी।नवंबर के महीने में इन क्षेत्रों में रोजगार सृजन की दर सबसे नीचे(०.७४ फीसदी थी लेकिन साल २००९ के जनवरी में इन क्षेत्रों में रोजगार में १.०७ फीसदी का इजाफा हुआ।
· आईटी और बीपीओ को छोड़कर बाकी सभी सेक्टर में साल २००८ के अक्तूबर से दिसंबर के बीच रोजगार की दर में कमी आयी।सबसे ज्यादा गिरावट रत्न और आभूषण के सेक्टर में रही जबकि आईटी और बीपीओ में हासिल रोजगार की दर में इजाफा हुआ।
·
· कुल मिलाकर देखें तो साल २००८ के अक्तूबर से दिसंबर के बीच ठेके पर शारीरिक श्रम से रोजगार हासिल करने वाले मजदूरों को बेरोजगारी का कहीं ज्यादा सामना पड़ा जबकि नियमित आधार पर बहाल और मानसिक श्रम वाले कामों में लगे कामगारों को रोजगार के कहीं ज्यादा अवसर हासिल हुए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें