गुरुवार, 7 जून 2012

कुछ चूम रहे थे, कुछ हाथ पकड़े थे

इस चिट्ठी में हमारी हैदराबाद यात्रा का वर्णन है।
हैदराबाद में दर्शनीय स्थल

भागमती नाम से बना, भाग्यनगर – अब हो गया हैदराबाद

हैदराबाद का इतिहास, गोलकोण्डा से नया है लेकिन उससे जुड़ा है।
गोकोण्डा का किला एक छोटी पहाड़ी वरंगल के काकतीय राजा प्रताप रूद्रदेव के द्वारा सन् ११४३ ई. में बनवाया गया था। इसे  बनाने का सुझाव एक गड़ेरिया ने दिया था। गोल्ला का अर्थ गड़ेरिया और   पहाडी को कोण्डा कहते है। इसी लिये इसका नाम ‘गोल्लकोण्डा’ रखा गया।
सन् १६६३ में, इसी वंश के राजा कृष्णदेवराय ने, एक संधि के अनुसार ‘गोलकोण्डा’ किले को बहमनी वंश के राजा मोहम्मद शाह को दे दिया।
बहमनी राजाओं की राजधानी गुलबर्गा तथा बीदर में थी। राज्य में, उनकी पकड़ भी अच्छी न थी। उनके पांच सूबेदार (Governor) थे। ये पांच सुबेदार बहमनी राज्य की अस्थिरता के कारण, मौके का लाभ उठा कर, स्वतंत्र हो गये। इसके एक सूबेदार, कुलि कुतुबशाह नें, १५१८ में गोलकोण्डा में, मे अपनी सलतनत, कुतुबशाही  स्थापित की।
१५१८ से १६१७ तक, कुतुबशाही वंश के सात राजाओं ने गोलकोण्डा पर राज किया। १५८७ में, चौथे राजा मोहम्मद कुली कुतुबशाह ने, अपनी प्रिय पत्नी भागमती के नाम से भाग्यनगर नामक शहर बसाया। यही अब हैदाराबाद हो गया है।
हैदराबाद - गोलकोण्डा किले से
१६५६ में औरंगजेब ने गोलकोण्डा और हैदराबाद पर हमला किया। सुलतान अब्दुल्ला शाह की हार हुई। सुलतान अब्दुल्ला की ओर से गुजारिश करने पर दोनों में संधि हुई। १६८७ में  कुतुबशाही की अब्दुल हसन तानाशाह सातवां राजा था। उस समय औरंगजेब ने दूसरी बार गोलकोण्डा पर हमला किया। इसमें अब्दुल हसन तानाशाह की हार हुई। गोलकोण्डा और हैदराबाद पर मुगलों का शासन आरंभ हुआ।
कुतुबशाही समाप्त होने के उपरांत मुगल साम्राज्य की ओर से कई सूबेदार (Governor) हैदराबाद में रखे गये। लेकिन १७३७ ईस्वी में मोहम्मद शाह के समय, मुगलों की राजनीतिक स्थिति  गिर गई। इसका फायदा उठाते हुए, निज़ाम -उल-मुल्क आसिफ जाह-१ स्वतंत्र बन गया और स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। इस वंश के सात राजाओं में, आखरी राजा ने नवाब मीस उस्मान अली खान ने, १९४७ तक हैदराबाद पर राज्य किया।
१७ सितंबर १९४८ में, निज़ाम की सेना ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और हैदराबाद  स्वतंत्र भारत में मिल गया।

गोलकुण्डा का किला और अंधेरी रात

हैदराबाद में गोलकुण्डा का किला भी देखने लायक। इसमें शाम को आवाज और रोशनी का कार्यक्रम होता जिसमें वे इसके इतिहास के बारे में बताते हैं। यह बहुत अच्छा है, कभी वहां जायें तो इसे अवश्य देखें।
हम लोग, इसके अंग्रेजी के प्रोग्राम को देखने के लिए गये थे। इसमें अंग्रेजी में आवाज अमिताभ बच्चन की है पर थोड़ी देर बाद आवाज और रोशनी दोनो गायब हो गयीं। जाहिर है कि बिजली चली गयी थी। कुछ देर तक जब बिजली नहीं आयी तो पता चला कि पावर कट है और जेनरेटर की डीज़ल खत्म हो गया है। बाजार से डीज़ल मंगवाया गया है पर आने में समय लगेगा।
गोलकोण्डा का किला
जहां तक मुझे याद पड़ता है उस रात अमावस्या थी – कम से कम चांद तो नहीं निकला था। आकाश में तारे सुन्दरता बिखेर रहे थे। मैंने पूंछा कि जब तक बिजली नहीं आती है तब तक क्या वे लोग तारों के बारे में बात करना पसन्द करेंगे। वहां पर बैठे लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि क‍या करें, बोर हो रहे थे – उन्होंने हामी भर दी। मैं अपने मित्रों के बीच ज्यादा बोलने के लिये बदनाम हूं। आदत से लाचार – हो गया शुरु।
मुझे लगा कि सबसे पहला काम लोगों में उत्सुकता बढ़ाना है इसलिये सबसे पहले तारों के वर्गीकरण के बारे में बताना शुरु किया जैसा कि मैंने यहां बताया। जब मैने वर्गीकरण को याद करने वाला वाक्य
‘Be A Fine Girl Kiss Me’
और उसके बाद इसमें जोड़े नये तीन वर्ग को याद करने के लिये वाक्य
‘Right Now Sweetheart’
बताया तो मुझे लगा कि कुछ लोग हल्के हल्के मुस्कुरा रहें हैं और उन्हें मजा आने लगा है।
इसके बाद आकाश में तारा समूहों के बारे मैं बताना शुरु किया। तब शुरु हुआ राशियों का सफर और वे क्यों महत्वपूर्ण हैं। इन सब के बारे में मैंने कुछ यहां और यहां लिखा है। इतने में जनरेटर चलने की आवाज शुरु हो गयी और बिजली आ गयी। इस प्रोग्राम में अधिकतर लोग विदेशी थे। मैंने देखा कि कुछ एक दूसरे को चूम रहे थे, कुछ हाथ पकड़ कर प्यार का इज़हार कर रहे थे। एक विदेशी महिला ने मुस्कराते हुऐ कहा,
‘Thank you for taking us on star trek.’
इतने में प्रोग्राम शुरु हो गया। अमिताभ बच्चन की आवाज आनी शुरु हो गयी और हम सब उसके जादू में खो गये।

निजाम के गहने

एक बार हैदराबाद ट्रिप पर मालुम चला कि सलारजंग संग्रहालय में निजाम के गहनों की प्रदर्शनी चल रही है। बस, मैं और शुभा भी पहुंच गए देखने के लिए। गहने तो इतने भारी, तड़क भड़क वाले और भद्दे थे कि मन में कुछ अनिच्छा सी हो गयी। मैंने कहा
‘क्या, इन्हें कोई भी पहन सकता है’
बगल में एक विवाहित महिला अपने परिवार के साथ थी मुझे और शुभा को देख कर कुछ मुस्करायी और बोली,
‘आप लोगों को देखकर लगता है कि आप तो किसी प्रकार के गहने नहीं पहन सकते।‘
मैं न तो कोई अंगूठी और न ही कफ-लिंक वगैरह पहनता हूं। यही हाल शुभा का है – वह तो फैशन से बहुत दूर रहती है। उसे गहनो से लगाव नहीं। यहां तक कि न चूड़ी, न बिन्दी न सिन्दूर। उसे गहनों से लगाव न रहने के कारण मुझे इस तरह के खर्चे नहीं करने पड़ते। इस कारण मेरे पैसे तो बचते हैं पर कभी कभी इस तरह का उपहार न दे पाने की टीस रहती है।
निज़ाम का आधिकारिक निवास - चौमहल्ला महल
निजाम के गहनों की प्रदर्शनी में जैकब हीरा भी रखा था। यह रोचक लगा।

जैकब हीरा – पेपरवेट की तरह प्रयोग किया

जैकब हीरा सवा सौ साल पहले अफ्रीका की किसी खान में कच्चे रूप में मिला था। वहां से इसे एक व्यवसाय संघ द्वारा ऐमस्टरडैम लाया गया और कटवा कर इसे नया रूप दिया गया। कहते हैं कि, यह दुनियां के सबसे बड़े हीरे में से एक है इसका वजन कोई १८४.७५ कैरेट (३६.९ ग्राम) है। यदि आप इसकी तुलना कोहिनूर हीरे से करें तो पायेंगे कि कोहिनूर हीरे का वजन पहले लगभग १८६.०६ कैरेट (३७.२ ग्राम) था। अंग्रेजी हुकूमत ने कोहिनूर हीरे की चमक बढ़ाने के लिये इसे तरशवाया और अब इसका वजन १०६.०६ कैरेट (२१.६ ग्राम) हो गया है।
जैकब हीरे को भारत लाने का श्रेय अलैक्जेंडर मालकन जैकब को जाता है। जैकब रहस्यमयी व्यक्ति था पर भारतीय राजाओं के विश्वास पात्र था। कहते हैं कि वह इटली में एक रोमन कैथोलिक परिवार में पैदा हुआ था। किपलिंग के उपन्यास किम में, ब्रितानी गुप्त सेवा के लगन साहब का व्यक्तित्व, जैकब पर आधारित है।
१८९० में जैकब ने इस हीरे को बेचने की बात छठे निजाम, महबू‍ब अली पाशा से की। उस समय इसका दाम १ करोड़ २० लाख रूपये आंका गया पर बात बनी ४६ लाख में। निजाम ने २० लाख रूपये उसे हिन्दुस्तान में लाने के लिये दिये, फिर लेने से मना कर दिया क्योंकि British Resident ने इस पर आपत्ति कर दी। निजाम ने जब पैसे वापस मांगे तो जैकब उसे वापस नहीं कर पाया। इस पर कलकत्ता हाईकोर्ट में मुकदमा चला और सुलह के बाद यह हीरा निज़ाम को मिल गया।
महबूब अली पाशा ने, जैकब हीरे पर कोई खास ध्यान नहीं दिया और इसे भी अन्य हीरों की तरह अपने संग्रह में यूं ही रखे रखा। उनके सुपुत्र और अंतिम निजाम उस्मान अली खान को यह उनके पिता की मृत्यु के कई सालों बाद में उनकी चप्पल के अगले हिस्से में मिला। उन्होंने अपने जीवन में इसका प्रयोग पेपरवेट की तरह किया।
इस हीरे का दाम इस समय ४०० कड़ोड़ रुपये है। प्रर्दशनी के बाहर इस हीरे के नकल का क्रिस्टल ४०० रुपये में बिक रहा था। मैंने इसे खरीद लिया। कम से कम इसका प्रयोग तो मैं पेपरवेट की तरह कर सकता हूं।

आप किस बात पर, सबसे ज्यादा झुंझलाते हैं

मुझे दो बातें हमेशा से पसन्द हैंं: आईसक्रीम और पुस्तकें।
किसी भी शहर में मेरे लिए समय व्यतीत करने का सबसे प्रिय तरीका: वहां के अच्छे रेस्तराँ में जाकर आईसक्रीम खाना और पुस्तकों की दूकानों पर समय बिताना। उम्र के चढ़ते चढ़ते, गले के नाज़ुक होने के कारण आईस क्रीम खाना बन्द हो गया। मेरे डाक्टर मित्र कहते हैं कि ठंडी चीज खाने से और गले की खराबी का कोई सं‍बन्ध नहीं है फिर भी मैंने कोई ठन्डी चीज खायी नहीं कि गला हुआ खराब। मालुम नहीं मेरे डाक्टर मित्र सही हैं या मेरा अनुभव, पर मैंने ठन्डी चीज खाना या पीना बन्द कर दिया है। हालांकि पुस्तकों से प्रेम अब भी जारी है।
मुझे अक्सर काम के सिलसिले में दूसरे शहरों में जाना पड़ता है, इसमें हैदराबाद भी है। एक बार हैदराबाद जाने का मौका मिला तो वहां की पुस्तकों की दुकान जाने का कार्यक्रम बनाया। पूछने पर पता चला कि वहां की सबसे अच्छी पुस्तक की दुकान वाल्डन, बेगम पेठ के इलाके में है। बस वहां पहुंच गया।
वाल्डन दुकान काफी बड़ी है किताबों का चयन अच्छा है पर किताबों की रैक बहुत पास-पास है थोड़ी घुटन सी लगी। यदि कुछ दूर दूर होती तो ज्यादा अच्छा रहता। दुकान में एक अंग्रेजी गाना ‘सलोरी …सलोरी’ कहते हुये बज रहा था। कोने में एक संगीत और वीडियो कैसेट का भाग था। वहां हिन्दी का गाना ‘कभी अलविदा न कहना’ बज रहा था। दोनों का मिश्रण कुछ अजीब तरह का माहौल पैदा कर रहा था। संगीत इतनी जोरों से था जैसा कि डिस्को में अक्सर होता है। यह अक्सर किताबों की दुकानों के साथ होता है। मुझे सबसे ज्यादा झुंझलाहट तब होती है जब पुस्तक की दुकान पर जोर जोर से संगीत बजता हो।
किताबों की दुकानें, पुस्तक प्रेमियों के द्वारा या उस व्यापारी वर्ग के द्वारा जो कि पुस्तक प्रेमियों की मनोवृत्ति को अच्छी तरह समझते थे, के द्वारा शुरू की गयीं थी पर अब उनकी जगह उनके नयी पीढियों ने जगह ले ली है। नयी पीढ़ी तो डिस्को सभ्यता में विश्वास करती है और पुस्तक की दुकान को भी उसी रंग में रंगना चाहते हैं। मैं हमेशा इस बात को उनके मैनेजर से कहता हूं, इस बात को उनकी शिकायत पुस्तिका में दर्ज करता हूं – मालुम नहीं असर होता है कि नहीं पर मैं शिकायत दर्ज करता चलता हूं।
मैंने वाल्डन में कुछ किताबें खरीदी और पैसे देते समय अपनी शिकायत दर्ज की। मेरे साथ एक बुजुर्ग भी कुछ खरीद रहे थे, वे मुस्कराये और सहमति जतायी। मालुम नहीं दुकान वाले की समझ में आया कि नहीं पर मुझे इतना लगा कि मेरी मनोवृति उस बुजुर्ग की तरह है।
खैर अगली बार वाल्डन जाऊंगा तो देखूंगा कि कुछ असर हुआ कि नहीं।
यह मेरे उन्मुक्त चिट्ठे पर कड़ियों में प्रकाशित हो चुका है। यदि इसे आप कड़ियों में पढ़ना चाहें तो नीचे चटका लगा कर जा सकते हैं।

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